मंगलवार, 13 जुलाई 2010

यूज़ टू

"चलो ना छोना. तुम्हारा फ्री चेक अप तो एनी-वे ड्यू है."
"श्वेता ! अभी पूरा साल पड़ा हुआ है लव. "
"कहाँ?  देखो... हार्डली २  महीने  ही बचे  हैं  मेडीक्लेम के रिन्यूवल में."
"बट !"
"चलो ना प्लीज़..."
"......................"
"फ़िर तुम्हारा ऑफ भी युटीलाईज़ हो जाएगा. आते वक्त निरुलाज़ से खाना पैक करवा लेंगे. इसी बहाने आउटिंग भी हो जायेगी." 
"व्हटएवर"
(गोया हॉस्पिटल नहीं 'लोट्स टेम्पल' या 'सेलेक्ट सिटी वॉक' हो या फ़िर लॉन्ग ड्राइव.)

XXX





प्राइवेट हॉस्पिटल में भी कतारें बढ़ने लग गयी हैं. या तो लोग अमीर ज़्यादा हो रहे हैं. या बीमार ज़्यादा हो रहे हैं. या बस, लोग ज़्यादा हो रहे हैं.
एक चीज़ जो मैंने शिद्दत से महसूस की है, 'शुष्म' स्तर पर वो ये कि, जहाँ सरकारी/खैराती  हॉस्पिटलज़ में बीमारी और मृत्यु की वाईब्ज़ होती हैं वहीँ प्राइवेट में रिकवरी, गेट वैल सून की वाईब्ज़.स्थूल स्तर पर, 'लाइज़ोल' बनाम 'फिनाएल'.आधी बीमारी तो आपकी हॉस्पिटल पहुँच के ही ठीक हो जाती है.
मुझे हिंदी फिल्मों का जुमला याद आ रहा है...
"अब इन्हें दवाओं की नहीं प्राइवेट हॉस्पिटल की ज़रूरत है."
लगभग डेढ़ साल बाद आया हूँ हॉस्पिटल... डेढ़ साल में ही इतने बदलाव ?
पिछली बार जब श्वेता का मिस कैरेज हुआ था. इसी हॉस्पिटल में. मैंने उसे बड़े ही नोर्मल वे में लिया था. पर बाद में पता चल कि हमें हॉस्पिटल के चक्करों के बाद अनाथालयों के भी चक्कर लगाने पडेंगे. डॉक्टर कहते थे कि टेस्ट ट्यूब बेबी का भी ऑप्शन है. पर श्वेता के इमोशन बड़े प्रेक्टिकल है...
" छोड़ो ना छोना टेस्ट ट्यूब वेस्ट ट्यूब. इट वुड बी प्रीटी कोस्टली. मोरोवर, जब भगवान ही नहीं चाहता तो ! वैसे भी अगर एक बच्चे को गोद ले लेंगे तो शायद जाने अनजाने में किये गए पाप..."
"पर गोद लेंगे तो लड़की."

XXX

बड़ा सा हॉल. बीच में गोल पोडियम जिसमें लगभग सारी 'रिसेप्शनिस्ट'   लडकियां हैं. उनके सामने  उनसा ही स्लिम से माईक. सॉफ्ट से 'रिसेप्शन म्युज़िक' के बीच में गूंजती और भी ज़्यादा 'सॉफ्ट  फैमिनाइन' आवाज़,"डॉ. रजनीश, काइंडली  कम टू  द काउन्टर...  डॉ. रजनीश !"   
उधर दूर ए. टी. एम्. मशीन. उसके बगल में इन्टरनेट करने की सुविधा-६० रुपया प्रति घंटा, न्यूनतम ३० मिनट.
उसके सामने एक और  अज़ीब सी मशीन जहाँ से पंच करके आपको आपकी बारी का नम्बर मिलता है.  जो वहाँ, उधर,  दीवार में लगे बड़े से एल. सी. डी. स्क्रीन के डिसप्ले से सिन्क्रोनाइज़ किया तो आपका नम्बर.  लेकिन अगर आप अंधे हैं तो भी आपको मुश्किल नहीं होगी.
"पेशेंट नम्बर सेवनटी वन ." (वही 'सॉफ्ट फैमिनाइन' आवाज़.) 
मुझे 'पेशेंट' शब्द से आपत्ति है. जब तक सिद्ध नहीं हुआ.तब तक कैसे 'पेशेंट' ? हाईली अनप्रोफेशनल विद रेस्पेक्ट टू 'कोर्ट'. जहाँ  जब तक जुर्म वैलिडेट ना हो जाए तब तक मुजरिम-मुजरिम नहीं.
मैं काफी देर से श्वेता का इंतज़ार कर रहा हूँ. वो डॉक्टर के पास गयी है मेरी रिपोर्ट लेने. पीछे बायीं तरफ़ किताबों का काउन्टर और उसके बगल में कॉफ़ी वेंडिंग मशीन. ठीक कैफिटेरिया  के आगे.
"भाई सा'ब एक कॉफ़ी."
"सत्तर रुपये?"
मेरे पीछे कतार में खड़ा आदमी शायद इसलिए ही कतार से हट जाता है.
"ये लीजिये भाई सा'ब बहुत सारी है आधी आप पी लीजिये."
"अरे नहीं नहीं मेरा मन नहीं है."
"अरे ! मैं कौन सा फ्री में दे रहा हूँ. कॉन्ट्री कर के पी लेते है."
"हा ! हा !! आई टेल यू दीज़ गाईज़ आर फकिंग दोज़ हू आर ऑलरेडी फक्ड अप."
मैं मुस्कुरा देता हूँ.
"बाई द वे हुआ क्या है आपको?"मैं पूछता हूँ.
"कुछ नहीं बच्चे का एच. आई. वी. टेस्ट करवाया था.उसी की रिपोर्ट लेने आया हूँ. "
"एच. आई. वी. टेस्ट ?बच्चे क्या ? क्यूँ?"
अपने सवाल पर गुस्सा आता है मुझे. कॉफ़ी  पीते ही मितली सी आने लगती है. मैं वॉश रूम की  तरफ़ भागता हूँ.
"अरे भाई सा'ब क्या हुआ?"
"कुछ नहीं लगता है... "
मैं लगभग दौड़ते हुए चिल्लाता हूँ.
"...मेरे हिस्से के पैंतीस रुपये गए."
कै करते हुए अपना चेहरा शीशे में देखता हूँ.  वॉशरूम में भी एक स्पीकर लगा हुआ है.
"पेशेंट नम्बर सेवनटी टू."

XXX

उधर छोटा सा टी.पी. ए.  काउन्टर है. एक्ज़िट गेट के ठीक सामने.
एक  आदमी वहाँ पे लड़ रहा है,
"क्या बात कहते हैं सर आप देख लीजिये, आपका हॉस्पिटल  भी लिस्टेड है."
"लिस्टेड.... था !."
"अरे ऐसे कैसे? इंश्योरेंस करते वक्त तो आप लोग..."
"भाई सा'ब मैं कह रहा हूँ ना कि न तो  मैं इस हॉस्पिटल के लिए काम  करता हूँ और न ही  आपकी इंश्योरेंस कम्पनी के लिए."
"तो हरामजादे किसके लिए काम करता है? बीच का है क्या  ! छक्का भेन चोद !!"
वो आदमी दोनों हाथों से ज़ोर ज़ोर से ताली बजाता है.
"भाई सा'ब माइंड योर लेंग्वेज.गाली देनी मुझे भी आती है और अगर पैंट शर्ट उतार लूं तो मैं भी बहुत बड़ा गुंडा हूँ."
"कमीने ! तू पैंट शर्ट और इस टाई के साथ भी बहुत बड़ा गुंडा ही है. गुंडा नहीं दल्ला है दल्ला. पैसे दोनों से लेता है काम किसी के लिए नहीं करता?"
"जाइए भाई सा'ब जाइए यू आर  वेस्टिंग यौर एंड माई टाइम . एंड मोस्ट  इम्पोरटेंनटली  पेशेंट टाइम एज़ वैल. वो... जिनके साथ आप आए हैं."
टी.पी. ए.  एजेंट पेन घुमाते हुए राय देता है.  आदमी को इससे शायद  उस मरीज़ की याद  हो आती है जो बाहर एम्ब्युलेंस में  ज़िन्दगी और मौत से 'टू बी ऑर नॉट टू बी' खेल रहा है. आदमी की नाराजगी अब उसकी गिड़गिडाहट में स्थाई रूप से घुल जाती है.  
"भाई सा'ब वो मर जायेगी."
"तो जाके काउन्टर में पैसे जमा करवाइए और बचा लीजिये उन्हें."
"मेरे पास..." बात लगभग चिल्लाते हुए शुरू करता है पर खुद को समझाते हुए शान्त हो जाता है...
"...मेरे पास पैसे नहीं है इतने."
"देन गो टू सम अदर चीप होस्पिटल ऑर मे बी सम डिसपेंन्सरीज़. यू आर रनिंग आउट ऑफ़ टाईम."
"भाई साब किमोथेरेपी किसी डिसपेंन्सरी  में नहीं होती."
"..................."
"ठीक है..." आदमी लम्बी  निर्णयात्मक सांस लेते हुए दोहराता है.
"..ठीक है, जाता हूँ पर याद रखना की मेरी बीवी को कुछ हुआ  तो उसके जिम्मेवार आप होंगे आप."
आदमी हताश सा बाहर निकल जाता है. उस आदमी की खाली पड़ी सीट पर  मैं बैठ जाता हूँ. 
"क्या बात भाई सा'ब क्या हो गया था?"
"अरे कुछ नहीं इन सब के तो हम यूज़ टू हो गए है सर. जब तक दो चार से लड़ न लो खाना नहीं पचता. देख नहीं रहे थे किस तरह से बात कर रहा था अभी जो आया था."
"वैसे  आप मदद कर सकते थे उसकी. नहीं क्या?"
"देखिये मदद का तो ऐसा है जी हमारी तो दोनों पार्टी से....  समझ रहे हैं ना?लेकिन आदमी को बोलने का ढंग भी तो आना चाहिए न. अभी लाखों का काम हज़ार दो हज़ार में निपट जाना था उन भाई सा'ब का. अब करवाओ सफदरजंग में जाके इलाज़."
"कभी किसी ने मारा वारा तो नहीं ना आपको? आई मीन हाथ पाई वगैरा. या कभी किसी ने झापड़ रसीद किया हो ?"
"भाई सा'ब बीमार को देखेंगे लोग या मुझसे हाथापाई करेंगे? और फ़िर कोई अगर परेशानी में हो तो पाप पुण्य का डर ज़्यादा सताता है उसको. देख नहीं रहे थे कैसे गिड़गिडा के गया था अन्त में."
"आपको दया नहीं आई ? आई मीन  थोड़ी बहुत?"
"आई न ! अपने २ बच्चों और अपनी बीमार माँ पे आई. और रोज़ आती है."
वो व्यंगात्मक ढंग से मुह टेढ़ा  करके  मुस्कुराता है. और सर झुका के कुछ लिखने में व्यस्त हो जाता है.
"कितने भोलेपन से आप अपने हरामीपन कि बातें कह रहें हैं ना?"
मैं भी ठीक उसी की तरह ठहाका लगता हूँ.
"जी ? मतलब ?"  
मेरे सर का दर्द बढ़ने लगता है. पूरा पोडियम घूमने लगता है. मैं अपने आपक को गिरते गिरते संभालता हूँ.
.............................
"पेशेंट नम्बर सेवनटी फाइव."

XXX

जब लोगों को हज़ार हज़ार के ढेर सारे नोट काउन्टर में देते हुए, पैसों को देने से पहले कई कई बार गिनते हुए देखता हूँ तो चीज़ों से वितृष्णा सी होने लगती है. काउन्टर का फिसलन वाला फर्श और उसपे फिसलते (लगभग उड़ते) नोट और टंग-टडंग, टंग-टडंग, छन छ्नाते चमकते सिक्के. बड़ा ही डरावना लगता है मुझे. बड़ा ही...
कैसे कोई 'रिसेप्शनिस्ट'   इतना मुस्कुरा सकती है. लगातार? क्या  पहले दिन जब उसने   ज्वाइन किया होगा उस दिन भी? या अब ये मजबूरी उनकी आदत बन गयी है?  शायद 'यूज़ टू' होना इसे ही कहते हैं.मुझे यकीन है  'यार जुलाहे' की पहली बुनाई में कई कई गिरहें नज़र आती होंगी.  पक्का!
आखिर कैसे वो एक बीमार बेटे की माँ को इस तरह  डांट सकती हैं?
"नहीं माँ जी डॉक्टर सा'ब तो अपने टर्न पर ही देखने आयेंगे ना.और वैसे भी अब आपका बेटा एक दम ठीक है."
"बेटी देख !! तूने माँ कहा है तो वो तेरा भाई हुआ ना? बोल ना डॉक्टर सा'ब से..."
दो रिसेप्शनिस्ट एक दूसरे को देख के मुस्कुरा रही हैं. (लो एक और बीमार से रिश्ता !) 
बुढ़िया का बस एक दांत है, वो भी ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा, जब बात करती है तो वो बार बार होठों से बाहर निकल जाता है. आँखों के आंसू, झुर्रियों  से अपना रास्ता खुद ढून्ढ रहे हैं इसलिए उनकी बूँदें नहीं बन पाती, साड़ी इस तरह से तितर बितर है कि माना कोई  मोटी रस्सी लपेटी हो उसने अपने चारों ओर.  हाथ में कागजों कि गंदली सी पोटली. संक्षेप में बुढ़िया का व्यक्तित्व करुणामय विभत्सता से ओत प्रोत है. 
"जाइये माँ जी आप जाके वहाँ बैठ जाइये."
"पेशेंट नम्बर सेवनटी सिक्स."
मेरा पूरा बदन एक झुरझुरी से काँप जाता है.

XXX

"छोना ..."
श्वेता डॉक्टर सा'ब के के साथ तेज़ तेज़ क़दमों से मेरे पास आती है.
"...छोना, डोक्टर कहते हैं तुम्हें कुछ नहीं हुआ. बस कल गैस हो गयी थी तुम्हें शायद. ये देखो हिमोग्लोबिन १६.२, ब्लड प्रेशर...." 
"आय ऍम नॉट ऑल राईट छोना ! आय ऍम नॉट !!  नॉट  एट ऑल !!! मुझे ज़ल्द से ज़ल्द आई. सी. यू. में भर्ती  करो. और तब तक रखो जब तक, जब तक  मैं... मैं... 'यूज़ टू' नहीं हो जाता...
हाँ 'यूज़ टू.'.... "
मुझे पता नहीं क्यूँ चिल्लाना अच्छा लग रहा है. गर्दन टेढ़ी करके एक टक डॉक्टर को देखना चाहता हूँ. पर मेरी आँखें गोल गोल घूम रही हैं.  मैं चाहता हूँ कि मेरे होंठ सूख जाएँ. पर उनमें से झाग निकल रहा है.  मुझे पता है सबलोग मेरी तरफ देख रहें हैं. जहाँ हॉल मैं थोड़ी देर पहले एक सोफ़ेसटीकेटेड सा शोर था... चिड़ियों सा... वहाँ सन्नाटा है.  मैं चुप हो जाना चाहता हूँ... चुप चुप....
अपने से कहता हूँ... प्लीज़... प्लीज़... काम डाउन... प्लीज़ssss....
पर...
"मुझको भी तरकीब सीखा  कोई...
...भोसड़ी वालेsssss !"
मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है, इसलिए अपने को रोकता नहीं हूँ. और तेज़ चिल्लाता हूँ, सोचता हूँ अपने बाल भी खींचूँ....
हाँ... ऐसे... अरे वाह ! इसमें भी बड़ा मज़ा है ! रीलिफ ! स्ट्रेस बस्टर है ये तो,  और तेज़ तेज़ चिल्लाना...
"यूज़ टू ! यूज़ टू !!  यूज़ टू !!!....  यूज़ टू... उस... उस... हरामी इंश्योरेंस एजेंट की तरह! कमीना साला !!"
"क्या हो गया छोना तुम्हें."
"मिसेज़ साह,  यू वुड हेव कंसल्ट हिम टू अ साईकेट्रिस रादर."
"साले भडुवे! तू बताएगा मेरी बीवी को. तू? जा ! जा के लोगों की किडनियां बेच भेन चोद ! बीमार लड़कियों से  अपनी दिमाग की बीमारी ठीक करवाता है. और ये... ये जो... कॉल गर्ल्ज़ बिठा रक्खी हैं तूने काउन्टर में..."
मुझे मन हो रहा है कि माईक में बोलूं...
"कितना पैसा लेती हैं आप मैडम ! एक रात का?"
मेरी आवाज़  चारों ओर के स्पिकर्ज़ से आ रही है. खुश हो के ताली बजाता हूँ. उछल उछल के. अपने कपड़े भी फाड़ना चाहता हूँ पर लोग मुझे पागल समझेंगे  इसलिए नहीं फाड़ता.  फ़िर माईक पकड़ लेता हूँ.
"यूज़ टू ! यूज़ टू !!  यूज़ टू !!!"
मैं गिर पड़ना चाहता हूँ... उस फर्श पे. हटो हटो सब... मैं  गिर रहा हूँ.
कहीं दूर से आवाज़ आ रही है.
"नर्स... आई. सी. यू..."
............................
शान्त ! सन्नाटा...
फ़िर से, कहीं दूर से वही  चिड़ियों की चहचहाने सी सोफ़ेसटीकेटेड शोर की आवाज़ आ रही है.मेरी आँखें बंद हो रही हैं...
मैं अर्ध चेतन अवस्था में भी मुस्कुराता हूँ, और बड़ बड़ाता हूँ.
"यूज़ टू... यूज़ मम्म... मम्म... मम्म... "
......................................
"पेशेंट नम्बर सेवनटी नाइन."

XXX

"क्या हो गया था तुम्हें कल?"
"क्या?"
"डॉक्टर कहते हैं कि तुमको ज़ल्द से ज़ल्द किसी साईकेट्रिस से.."
"ह्म्म्म... मैंने कहा था ना कि मुझे नहीं आना यहाँ."
"कुछ खाओगे?"
"कमर  में दर्द है.बड़ी ज़्यादा  उफ़ !"
"हाँ कल गिरे थे ना तुम. ना ना रहने दो उठो मत. सच पूरे नौटंकी हो! "
श्वेता मेरी आँखों में मेरी गिल्ट पढ़ सकती है. इसलिए मुझे कम्फर्टेबल करने के लिए मुस्कुराती है.
"आय ऍम सॉरी फॉर वटएवर आई डिड यसटरडे, एंड आय लव यू."
इस वक्त उसका, अपना हाथ  मेरे हाथ में फंसा के दबाना अच्छा लगता है.
"इट्ज़ ओ.के. एंड मी टू."
"भूख लगी है यार. कैन यू अरेंज अ कॉफ़ी?  एंड यस...  सम स्नैक्स, मे बी?"
थोड़ी देर अपलक मेरी आँखों को देखती है. मेरे हाथ को और फ़िर  दबाती है. हाँ में सर हिला के बाहर चली जाती है.
"और सुनो... कॉफ़ी बाहर से लाना !"

XXX

सामने वाले बैड में एक ६-७ महीने का बच्चा लेटा है. गोल गोल आँखें दूर से देखने में कहीं से भी बीमार नहीं लगता. उसे ग्लूकोज़ चढ़ रहा है. उसके बाप की आँखें लाल हैं. और चूंकि उसकी आँखें लाल हैं इसलिए यकीनन वो उसका बाप ही है. बच्चे के ऊँघते ही वो बच्चे के  गाल थपथपाने लगता है. हर बार बच्चे के गाल थपथपाते वक्त वो अपनी आँख गीली कर लेता है.
"उठ बेटा. उठ जा !"
बाप के बगल में ही एक २५-२६ साल का युवक बैठा है. युवक  चुप है. लगता है कि युवक ने भविष्य  की  डरावनी सच्चाई को स्वीकार कर लिया है. इसलिए उसकी आँखें पथरा गयी सी लगती हैं. पर बाप बोल रहा है उस युवक से लगातार...
"ग्लूकोज़ का नशा है ना इसे इसलिए. हुआ कुच्छ भी नहीं है."
पर युवक की पथराई  हुई आँखों से आँख मिला के बाप  सिहर  जाता है. उसे युवक के चुप रहने पर भी  खीज होती है.
"तू ऐसा चूतियों सा चेहरा बना के क्यूँ बैठा है बे? जा ! घर जा अपनी मामी को भेज....   ...साला!"
युवक चुपचाप उठ के चल देता है.
बाप फ़िर बेटे के गाल थपथपाता है. एक नियत रोबोटिक प्रक्रिया सा...
"उठ बेटा. उठ जा !"
उसकी नज़रें मेरी नज़रों से मिलती हैं. सवाल करती सी, अनुनय करती सी, गिड़गिड़ाती सी...
मानो कहती हों,"भाई साब... बात करो ना... इतना ही कह दो कि ये ठीक हो जाएगा."
मैं भी चाहता हूँ उससे सच में पूछूं...
"क्या हुआ आपके बच्चे को?"
पर मैं, पता नहीं क्यूँ मैं नहीं पूछता हूँ. मैं वहाँ से नज़रें हटा लेता हूँ. मानो मैं उस बाप का अपराधी हूँ.

XXX

"ढेंण ट ढेंण ! कॉफ़ी केपेचिनो एंड फ्रेंच फ्राइज़ लव !! "
"उस आदमी को देखती हो?"
"हाँ! क्या हुआ है उसके बच्चे को पूछा तुमने?"
"ना!"
"उसकी आँखें देखीं ? कितनी लाल हैं?"
हम दोनों उसकी आँखें देखते हैं. उससे फ़िर नज़र मिलती है. हम तीनों मुस्कुराते हैं.
"रात भर सोया नहीं होगा."
"या रात भर रोया होगा."
"बता सकती हो वो बच्चे को सोने क्यूँ नहीं दे रहा? बच्चा जब भी ऐसी कोशिश करता है. वो क्यूँ उसे थपथपा देता है?"
"नॉट श्योर.  डॉक्टर ने कहा हो शायद."
"हाँ शायद!"
"..........."
"छोना कॉफ़ी तुम पी लो. मेरा मन नहीं है. सर में दर्द है. सोना चाहता हूँ."
"तुमने कल से कुछ नहीं खाया."
"प्लीज़ छोना"
"पर..."
"प्लीज़..."
मैं बेड से तेज़ी से उठता हूँ. (जितना तेज़ भी हो सके)
"चलो घर चलते हैं. फिज़िकली तो एक दम ठीक हूँ मैं."
उठ कर तेज़ क़दमों से बाहर निकलता हूँ. पीछे श्वेता अपना पर्स और मेरा सामान समेट के बाहर आती है.
"भाई सा'ब! जा रहे हैं?"
हम दोनों पलट के देखते हैं.
"थोड़ी देर बैठो ना मेरे पास. एक बार पूछ लो मुझसे क्या हुआ है मेरे बच्चे को. एक बार इसके गाल  सहला दो. एक बार..."
उसके बगल में बैठ जाता हूँ. उसके कंधे में हाथ रख देता हूँ. श्वेता बच्चे के बालों में हाथ  फेरती है.
"शो  रहा  है." सच बच्चा बड़ा स्वस्थ और बच्चों सा ही प्यारा था पर उसकी आँखें बंद थीं .
"क्या... क्या कहा.. सो ?"
बाप हैरत से अपने बच्चे को देखता है.
श्वेता को कुछ नहीं सूझता, वो वहीँ पे अपना सामान छोड़  के कमरे से बाहर निकल जाती है.

XXX

बाहर निकलते ही उसकी चाल धीमी हो जाती है. बहुत धीमी.
टी.पी.ए. काउन्टर में फ़िर चिल्ल-पौं मची है.
"अरे कैसे कह सकते है आप की ये प्री एग्जिस्टिंग डिज़ीज़ है ?"
"ये देखिये रिपोर्ट दिखाती है."
"पर आपने तो..."
मैं श्वेता की तरफ़ देखता हूँ, वो मेरी तरफ़. हम दोनों के बीच आँखों-आँखों में कुछ बातें होती  हैं. उसकी गीली आँखों में ना  जाने किस बात की चमक आ जाती है. मैं दौड़ के टी.पी. ए. काउंटर में चढ़ जाता हूँ,  घुटनों के बल....
काउन्टर ऊँचा है इसलिए मुझसे थोड़ी परेशानी होती है. मुझसे उस एजेंट को थप्पड़ रसीद करना बहुत अच्छा लग रहा है. स्ट्रेस-बस्टर. एक, दो, तीन...
मुझे कोई नहीं रोकता...
पूरे फ्रंट ऑफिस में थप्पड़ की आवाज़ें गूंज रहीं हैं.
एक नर्स मेरी तरफ़ दौड़ती है,
"ओ माई गोड. ही  विल किल समवन."
श्वेता काफी मेहनत करके  बीच में ही उसे रोक देती है,
"रहने दें नर्स साहिबा. ऐसा कुछ नहीं होगा."
नर्स अपने को छुड़ाने की कोशिश करती है,
"बट सीम्ज़ डेट युअर हबी निड्ज़ हेल्प एज़ वेल."
"नो वरीज, वो अब बिल्कुल ठीक है. इनफेक्ट,  ही  इज  फीलिंग मच बेटर नाऊ."
"............." नर्स अब अपने को श्वेता से छुड़ाने की कोशिश नहीं करती.
मुझे हॉस्पिटल से बाहर निकलते हुए देख श्वेता भी नर्स को झटककर मेरे पीछे  दौड़ती है.
"छोना... सुनो... सुनो ना...  क्या मरे हुए बच्चे को गोद लिया जा सकता है?"
"पेशेंट नम्बर ट्वेंटी वन."

शनिवार, 10 जुलाई 2010

चेट रूम (लघु कथा)

दिन 1(रिषभ का कंप्यूटर):

Me: Buzzzzz...
Catchmeif: ह्म्म्म्म ...
क्या चल रहा है ?
Me: बहुत बड़ा तूफ़ान ...
Catchmeif: मतलब ?
Me: कॉलेज गयी थी ?
Catchmeif: नहीं तबियत,
Me: दवाई ली ?
Catchmeif: ख़राब है.
हाँ दो पन्ने पढ़ लिए थे तुम्हारी डायरी के ,
दिन में तीन बार .
Me: :)
Catchmeif: :)
तुम गए ?
Me: कहाँ ?
Catchmeif: जेह्न्नुम . नहीं करनी है बात तो मैं जा रही हूँ ....
Me: ह्म्म्म्म.....
Catchmeif: क्या बोली ?
Me: कौन ?
Catchmeif: ओके बाय ...
Me: अरे रुको बाबा . कुछ नहीं ...
बस..
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Me: मतलब आँखों के बोलने को बोलना थोडी न कहते हैं...
:)
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Me: कहाँ गयी ?
ओफो...
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Me: अच्छा बाबा..
पूछो क्या पूछना है?
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दिन 2(रिषभ का कंप्यूटर):

Me:मुझे पता है तुम ऑनलाइन हो...
[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]
Catchmeif: ह्म्म्म ...
तुम्हें कैसे पता ?
Me: ये चेहरा तुम्हारा , हर बार की तरह
Catchmeif: मतलब ?
Me: Facebook देखो अपना .
Catchmeif: अरे हाँ अभी..
Me: याद है ४ साल पहले ? ये चेहरा ?
Catchmeif: अभी खोला था.
Me: ह्म्म्म ...
[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]
Me: गयी क्या ?
[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]

 दिन 3(रिषभ का कंप्यूटर):

ऋचा: सॉरी बाबा कल के लिए ....
Me: नहीं कोई नहीं .
[ऋचा अभी व्यस्त हैं, आप शायद उनके कार्य में व्यवधान डाल रहे हैं]
ऋचा: क्या कर रहे थे ?
Me: आज हिंदी में ?
ऋचा: तुम्हें पसंद है न हिंदी ?
Me: ह्म्म्म्म...
ऋचा: अच्छा चलो मैं चलती हूँ शायद वो बुला रहे हैं . TK CR
Me: पहले से कहीं ज्यादा पसंद है अब तो
[ऋचा को आपकी ये चेट नहीं मिली ]

 

दिन 4(ऋचा  का कंप्यूटर)::

Me: कहानी कैसी चल रही है तुम्हारी .
रिषभ : ह्म्म्म ...
Me:शादी कब है ?
रिषभ : बताया तो था .
Me: ह्म्म्म्म ....
तैयारियां शैयारियां ?
रिषभ : ह्म्म्म्म ...
Me: क्या ह्म्म्म्म्म.. ह्म्म्म्म्म...
रिषभ  :)
Me: ये झूठी हंसी हँसना बंद कर दो अब तो .
कब तक बच्चे
रिषभ : झूठी हंसी बच्चे हंसते हैं क्या ?
Me:बने रहोगे ...
रिषभ : वेट ...
Me: कहाँ चल दिए ?
आया होगा उसका फ़ोन...
लंगडा लंगडा के उसे उठाने गए होगे ...
...अच्छा डॉक्टर क्या कहते हैं ?
कब तक ?
[Rishabh को आपकी ये चेट नहीं मिली]





गुरुवार, 8 जुलाई 2010

योगक्षेमं वहाम्यहम (डायरी)

मुख पृष्ठ :
१९८५
एल. आई. सी.
 योगक्षेमं वहाम्यहम

प्रथम पृष्ठ:
होम एड्रेस :
एस.एस. द्विवेदी
ऍफ़ २ - ११८ , पॉकेट आर
दिलशाद गार्डन
न्यू दिल्ली -९६

ऑफिस एड्रेस:
सी. ई. ओ.-रुचिता गारमेंट्स
५१२ ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज़ - ३
नियर मोदी मिल
न्यू दिल्ली-२०

दूरभाष : २१४४८ ऑफिस : २२१११


०१.०१.१९८५
दशमी, शुक्ल पक्ष, पौष, मंगलवार
३१ स्ट होने के कारण कल की रात ज़्यादा ही पी ली. हैंगोवर अब तक है. ३-४ दिन पहले ही मेरे एल आई सी एजेंट ने मुझे ये डायरी गिफ्ट की है, आज तक तो कभी नहीं लिखी पर अब सोचता हूँ कि इसको रेगुलरली भरूँगा...
राजेश और उसकी माँ मंदिर गए हैं.
दो बातें समझ से परे हैं...
पहली, यदि ज्योतिष विज्ञान हिन्दू पंचांग पर आधारित है तो इसका प्रभाव किस प्रकार अंग्रेजी कैलंडर के मंगल से शुरू होने पर होगा?
और दूसरी, राजेश की माँ को इतना समझ क्यूँ नहीं आता कि राजेश का उसके साथ मंदिर जाने का कारण ईश्वर को नहीं बल्कि 'उसे' मक्खन लगाना है.
गए आज ५०० रुपये और. मेरे मेनेजर की १० दिन की तनख्वाह...
बहरहाल आज ऑफिस जाने का मन नहीं है. शीला भी, लगता है, कॉलेज चली गयी. वैसे भी उससे एक मोर्निंग टी एक्स्पेक्ट करना बेईमानी ही होगी. देखूं फ्रिज में कुछ ज्यूस - सोडा वगैरा...
उफ्फ्फ ये माईग्रेन !

०२.१.१९८५
ऑफिस आज भी नहीं गया, सर का दर्द और बढ़ गया. सुबह डायरी भी नहीं लिख पाया, चाहता हूँ कि रोज़ कुछ न कुछ लिखूं, नया मुल्ला जो ठहरा...
शीला और राजेश की लड़ाई से नींद  खुल गयी थी. पर मन और सर दोनों भारी रहे, सो लेटा रहा. बांग्लादेश वाली पार्टी से क्न्साइनमेंट फ़ाइनल करने के लिए कल ऑफिस जाना ज़रूरी है. सोचता हूँ आज शाम रुचिता को लेकर एस. आर. सी. हो आऊं . 'जिन ल्होर नि वेख्या.'
कल कुछ लिखा था टाइपरायटर में ४-५ पन्ने बर्बाद करके भी मन माफिक नहीं बन पाया. और न ही सर दर्द ठीक हुआ...
"मंजिल इसको तो मिलती गयी,पर इसका ठिकाना कोई नहीं.
ये जानता सबको है लेकिन, इसका पहचाना कोई नहीं,
अब इसको जो पहचान सके, ये वो अनजाना ढूंढता है, ढूंढता है...
एक अकेला इस शहर में..."

०३.०१.१९८५
आज पूरा एक महीना बीत गया भोपाल की त्रासदी को, लेकिन अभी तक अखबार के पन्ने भरे पड़े हैं, हाँ बेशक खबरें अन्दर के पन्नों में चली गयी हैं और धीरे -धीरे छोटी होती जा रही हैं. लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि हिरोशिमा-नागासाकी कि मानिंद ही न केवल इसका प्रभाव दशकों तक रहेगा बल्कि वो लोग पूरी तरह से इसके दूरगामी परिणाम को नापने में अक्षम हैं. परिणाम? वो हमेशा सोच से भयावह ही होते हैं.

०६.०१.१९८५
ठण्ड बढ़ गयी है. दिल्ली में अन्य रसद की तरह ही मौसम भी आयातित है, गर्मी जयपुर की, सर्दी शिमला की.
डायरी में रविवार के लिए इतना कम स्पेस क्यूँ है? तब जबकि सबसे ज़्यादा 'क्वालिटी टाइम' रविवार को ही बीतता है. फुरसतें, तन्हाई, करने को कुछ नहीं...
अखबार में तक तो कितने ढेर सारे सप्लीमेंट आते हैं.
अगले साल जब 'रुचिता गारमेंट्स' की डायरी छपवाऊँगा तो सबसे ज़्यादा स्पेस शनिवार, रविवार और ज़िन्दगी को दूंगा.
पूरा एक पन्ना...

१४.०१ .१९८५
बीते रविवार, सपरिवार मूवी देखने जाना चाहता था पर लगता है मैं और रुचिता अब इतने बूढ़े हो गए हैं कि बच्चों को शर्म आती हो हमारे साथ. वैसे अच्छा ही हुआ बुढौती का प्रेम-प्रदर्शन और उससे होने वाली शर्म... रुचिता के शब्दों में कहूं तो...
"हाय राम ! कुछ तो आगे पीछे की सोचा करें आप...".
...............................
...............................
..............मुस्कुरा रहा हूँ.
उसके हाथों में हाथ डाल के मूवी देखना मेरी ज़िन्दगी को ईश्वर द्वारा दिए कुछ अच्छे वरदानों में से एक है.
...एनी टाइम !
सोचता हूँ कि ऑफिस और काम की वजह से मैंने उसे जितना समय देना चाहिए था नहीं दे पाया. राजेश को कभी अपने अनुभव के आधार पर वैवाहिक जीवन के सफलता-असफलता के सूत्र ज़रूर बताऊंगा. पर...
पर, वो सुने तब ना...
अ पेसेज़ टू इंडिया अच्छी मूवी है, गोलचा वैसे बहुत स्पेशियस थियेटर नहीं है, पर चूंकि रीगल में अब तक शराबी लगी थी. तो दोबारा देखने से अच्छा सोचा अंग्रेजी मूवी ही सही. वैसे रुचिता को अंग्रेजी मूवी पसंद नहीं. खुश होने का कारण यही है कि रुचिता ने मेरा हमेशा साथ दिया. यहाँ भी.
गोलचा के बाहर पान वाला गुम्चा पिछले साल हटा दिया था, पता नहीं हटा दिया था या दुकानदार गाँव चला गया ?
राजेश बोलता है "पापा फिल्टर वाली सिगरेट पिया करो ". पर मुझे तो बस पनामा चाहिए.
आते आते 'मासूम' का रिकॉर्ड उठा लाया, पार साल देखी थी. नैनीताल जाने का प्रोग्राम इसी को देख के बनाया था...
तब भी सपरिवार...
बट ऐज़ यूज्वल डेट आल्सो टर्न्ड ऐज़ प्लानिंग डिज़ास्टर.
पता नहीं जो इंसान पोर्फेशनली इतना सफल है वो पारिवारिक स्तर पर इतना नाकामयाब क्यूँ? शायद दोनों का कारण एक ही हो या दोनों एक दूसरे के कारण...
"तुझसे नाराज़ नहीं" मेल वर्जन कम्प्रेटिवली ज़्यादा अच्छा लगा.
उठूँ अब...
सोमवार इसलिए ही अच्छा नहीं लगता.बट... यू गोट्टा डू वट यू गोट्टा डू !एंड आई ऍम डूइंग इट सिंस...
...डोंट ईवन रिमेम्बर सिंस व्हेन ?

०७.०३.१९८५
होली के दिन बस इतना अंतर आता है कि सुबह से ही शुरू हो जाता हूँ, रंग-अबीर-गुलाल से तो एलर्जी सी है. इसलिए रुचिता ही हर आने जाने वालों से मिल लेती है.
"तुम्हें तो बिल्कुल भी चिता नहीं. असामाजिक प्राणी !! हुंह..." सुबह से तीसरी या चौथी बार चाय बनाते बनाते चिल्लाती है.
काम वाली होली के दिन आये ये एक्स्पेक्ट करना भी बेईमानी होगी. शीला, घर में नहीं है. होती भी तो माँ का हाथ तो क्या ही बटाती?...
...उसे अपने को लड़का समझने और परिणामतः वैसा ही व्यवहार करने का फितूर है.
"पोप्स यू टेल मी व्हय ओनली बोयज़ शुल्ड हव दी फन? आंट दी गर्ल्स ह्यूमन बींग एज वैल?"


१०.०३.१९८५
गाईड की वी सी पी लेकर आया हूँ. जब पहली बार देखी थी तब भी अंत ने बहुत प्रभावित किया. इतनी रूमानी सी मूवी का इतना दार्शनिक अन्त? रोज़ी (वहीदा) की सेक्सुअल डिजायर को बिना मूवी को अश्लील बनाये दिखाने में विजय आनंद पूर्णतया सफल रहे हैं. बेशक इसका उपन्यास नहीं पढ़ पाया आज तक, पर मेरी 'टू डू' लिस्ट में हमेशा से ही है. मि. मल्होत्रा कहते है,
"यू मस्ट रीड इट. इट'स अ जेनुइन इंडियन क्लासिक. मूवी में वो बात कहाँ?".

१५.०३.१९८५
राजेश की चिंता लगी रहती है. मेरे मेनेजर ने बताया की नशा उन्मूलन केंद्र इतने सफल नहीं हो पाते. तब तो और भी जबकी आदमी खुद दृढ संकल्प ना हो जाये. और फ़िर ड्रग्स के राक्षस ने तो कितने अच्छे अच्छे खाते पीते घर लील लिए.


०१.०४.१९८५
दी गाडफादर पहले ही पढ़ चुका था आज द सिसिलियन उठा लाया. १०-१२ पन्ने पढने के बाद आगे पढने का मन नहीं हुआ.
राजेश के कमरे से रिकॉर्ड की आवाज़ आ रही है, पर्पल रेन का गाना होंट करता है, व्हेन डव्ज़ क्राय...
"तुम मुझे ऐसे अकेले कैसे छोड़ सकती हो,
तब जबकि ये दुनियाँ इतनी निस्सार है?
शायद मैं तुमसे कुछ ज़्यादा ही आशाएं रखता हूँ,
शायद मैं अपने पिताजी की तरह ही कुछ ज़्यादा ही धृष्ट हूँ,
और शायद तुम मेरी माँ की तरह,
...हमेशा असंतुष्ट."
क्या राजेश भी मेरी तरह ही धृष्ट.....

०२.०४.१९८५
आज फिर टी. वी. देखते वक्त रुचिता के रोने की बहुत मज़ाक बनाई गयी. कई बार तो वो सब्जी जल गई कहकर रसोई में भाग जाती है.
राजेश बोलता है, "आज फिर सब्जी में नमक और पानी डालने की ज़रूरत नहीं है. रि-साईक्लिंग यू सी."
शीला ठहाका लगा के राजेश की बात में हामी भारती है...
"ममा इज वैरी इक्नोमिकल ओन देट पार्ट."
"एंड वैरी इमोशनल ओन रेस्ट."-राजेश
बेशक मैं भी शीला और राजेश की तरह ही 'हम लोग' के परिवार को अपने और अपने परिवार से रिलेट नहीं कर पाता पर इससे प्रभावित नहीं हूँ ये कहना बेईमानी होगी. लगता है कि मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों कि ज़्यादातर दिक्कतें आर्थिक ही हैं, पैसों को लेकर. मैंने शायद इसका हर एपिसोड देखा है और लुत्फ़ उठाया है. पता चला है कि दूरदर्शन इसे १ साल से भी  आगे बढ़ाने के मूड में है.
इट'स ऑल बाउट डिमांड एंड सप्लाई.

१२.०४.१९८५
पहली बार डायरी लिख रहा हूँ इसलिए नहीं जानता कि क्या लिखना चाहिए क्या नहीं. फ़िर भी ये एक ओब्सेशन सा बनता जा रहा है.सोच रहा हूँ जब डायरी इतनी निजी सम्पदा है तो इसको लिखा ही क्यूँ जाता है?
शायद अपने पढने के लिए...
...कभी बाद में.
हो सकता है हिसाब किताब रखने के लिए या कोई चीज़ याद रखने के लिए. पर मुझे याद नहीं आता की मैंने कभी इसमें कोई 'ऑफिशियल' या 'रिमाइन्डर' जैसी कोई चीज़ लिखी हो. ठीक ही तो है...
...निजी सम्पदा... आफ्टर ऑल !!

२०.०४.१९८५
अखबार की एक  खबर को पढ़ कर बचपन का किस्सा याद आता है, धुंधला सा...
कक्षा ६-७ की बात होगी, इतना बड़ा नहीं था कि 'प्रेम-अनुभूति' को समझ सकूँ, पर इतना बड़ा तो हो ही गया था कि किसी लड़की के साथ बात करना, बैठना सिलेबस डिस्कस करना और ढेर सारा समय बिताना बहुत भाता था.
तीन लड़कियों में सबसे बड़ी लड़की...
गीतिका... या गीतू...
सोचता हूँ कि तब थोड़ा बड़ा होता तो क्या कहता उसे? गीत... शायद !!

गीतू के पिताजी को ३ बच्चे पैदा करने के बाद संन्यास की याद आई. जब उसके घर गया २ महीने बाद तो उसकी  माँ ने बताया कि गीतिका को आगे पढाना मुश्किल होगा...
ऐसी कौन सी महाखोज थी जिसकी कीमत घर को त्याग के चुकानी पड़ी? कौन सा महाप्रकाश पाने के लिए ३ बच्चों की ज़िन्दगी में अँधेरा कर दिया? क्या ख्याल आया होगा बच्चों को सोते छोड़ घर से रात को चुपके से जाते वक्त? ये सब बातें मैं तब नहीं सोच पाया था. बस इतना जानता  था कि अब गीतू मेरे साथ स्कूल में नहीं होगी. उसके साथ के लिए मैंने उसकी माँ से उसकी फीस देने की बात कब और कैसे की ये भी याद नहीं.
मेरी जेबखर्ची बहुत थी उसके लिए.
मेरी इस कोशिश के बावजूद गीतू मेरे साथ बस एक साल ही स्कूल में रही.  
अब सोचता हूँ उसके बाप के बारे में...

पहला प्यार भूला नहीं जाता, पहली नफरत भूलनी नहीं चाहिए.

२३.०४.१९८५
सोचता हूँ बूढ़ा हो रहा हूँ तेज़ी से, पर राजेश को आवारागर्दी से फुर्सत मिले तो न वो फेक्ट्री का काम समझे. कल वो तीसरी बार 'सैसेशन सेंटर' से भाग आया. लगता नहीं कि उसकी आदत ज़ल्द ही सुधरने वाली है.
गर्मियां बढ़ गयी हैं, असहनीय...
आज शाम को ऑफिस से आने के बाद रुचिता के साथ टहलने निकल गया था...
और आज ही पता चला कि इस शहर में खासकर दिलशाद गार्डन में ढेर सारे बूढ़े और उससे भी ज़्यादा पालतू कुत्ते हैं,
दिलशाद गार्डन शायद दिल्ली के उन चुनिन्दा पॉश इलाकों में से एक है जहाँ पे अल्सिसियन या पोमिरियन नैतिकता गले में पट्टा डाले शाम ढले ए.सी. की हवा से बाहर निकलती है.शायद मल विसर्जन करने को या दूसरी नैतिकताओं का पिछवाड़ा सूंघ के उनकी जेनुइन होने की पुष्टि करने. इन नैतिकताओं का अपनी जमीन (जो कि महज़ इनकी चारदीवारी तक सीमित है) के अलावा पूरी दुनिया के बारे में 'कोऊ नृप होऊ' की भावना है और 'टांग उठाने' तक का सम्बन्ध है. ये नैतिकताएं कभी कभी अपने मालिक को भी दूर तक दौड़ा देती हैं. अगर नैतिकताओं का मालिक 'विचार', बूढा, बीमार या दोनों हों तो इसकी सम्भावना अधिक है. और अपने घर पहुँच के यही नैतिकताएं उन बूढ़े मालिकों से मार खा के 'कूँ कूँ' करके सो जाती हैं.

२४.०४.१९८५
कल शीला बड़ी देर से घर आई.
मैं तो उससे कुछ कहता नहीं, हक़ ही खो दिया शायद, पर रुचिता का कहना भी बेकार ही गया मानो. या तो बच्चे डांट से सुधर जाते हैं (शायद). या और धृष्ट (ज़्यादातर).
पर राजेश को जाने क्या होता जा रहा है, उसे तो कभी डांठा भी नहीं ?
लगता है कि कहीं कुछ छूटता जा रहा है....
मन निर्वात की ओर बढ़ रहा है. और रफ़्तार बहुत तेज़ है...
कुछ बुरे की आशंका हमेशा ही रहती है. हमेशा...

१६.०६.१९८५
पता नहीं क्यूँ मेरा फेवरेट संडे-आउटिंग-आईडिया 'मूवीज' और 'पब' से हटकर 'थिएटर' होता जा रहा है?
...शायद उम्र का तकाजा है.
नाट्य-मंचन के बाद दर्शकों और निर्देशक के इजलास से पता चला कि 'पैर तले कि ज़मीन' मोहन राकेश के मरणोपरांत उनके मित्र कमलेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया था.
सोचता हूँ अगर मोहन राकेश ने खुद इसका अंत लिखा होता तो वो क्या होता...
...शायद इसी लिए हम 'पैर तले की ज़मीन' के मानिंद न ज़िन्दगी को अपने मायने दे पाते हैं न औरों को उनकी के, देने देते हैं. सबसे बड़ा हस्तक्षेप यही तो है...
...और फ़िर जो न हुआ हो उसे सोचना अच्छा तो लगता ही है. क्यूंकि वो, लगता है कि, हमारे बस में था. बस वही तो हमारे बस में था जो नहीं हुआ...
बहरहाल पैर तले की ज़मीन एक विपदा (बाढ़) से उपजे मनोविज्ञान की कहानी है. और मैं खुद को, अभी, इन बातों को समझने के लिए बहुत इम-मच्योर मानता हूँ (५५ साल और इम-मच्योर !!) .अगले हफ्ते विजय तेंदुलकर आ रहे हैं 'सखाराम बाइंडर' और 'खामोश, अदालत जारी है' दोनों का ही मंचन एन. एस. डी. में होना है. और यहाँ पर 'अ सोलज़र'स प्ले'.
वैसे अपने अनुभव, जो कि बहुत कम है, के आधार पर कह सकता हूँ कि श्री राम सेंटर के बनिस्पत एन. एस. डी. ज़्यादा डिवोटेड लगता है इसलिए वहां ज़्यादा मज़ा आता है. एंड बिसाइड डेट, वहाँ की दर्शक दीर्घा भी अच्छी खासी स्पेशियस है.

१७ .०६.१९८५
आज कुछ लिखने का मन हुआ, कविता सा कुछ, या कोई विचार...
देर से डायरी पड़ी हुई है, डेस्क में, मुंह चिढाती हुई..
योगक्षेमं वहाम्यहम यानी आपका लाभ और सुरक्षा मैं सुनिश्चित करता हूँ...
सच ! उम्र के इस दौर में सोचता हूँ, क्या मैं बच्चों और रुचिता के लिए लाभ और सुरक्षा सुनिश्चित कर पाया ? और क्या यही दो चीज़ें आवश्यक हैं बस ?
योगक्षेमं वहाम्यहम !
नहीं... नहीं...
ये वास्तव में किसी वित्तीय संस्था की ही टैग लाइन हो सकती है...

२५.०६.१९८५
कल बी बी सी से सुना की ३२९ में से कोई भी नहीं बचा, सोचता हूँ, ३१००० फीट की ऊंचाई में मरना कैसा लगता होगा, और विस्फोट से मरना? क्या विस्फोट के बाद भी उन लोगों की सासें चलती रही होंगी? शायद कुछ देर तक? दर्द भरी सासें. सासें कहो या सिसकियाँ कहो? भगवान उन सबकी आत्मा को शांति दे. शायद ठीक उसके बाद नरेटा एअरपोर्ट में भी ऐसा ही कोई हादसा हुआ है.
न जाने कब ये वैश्विक आतंकवाद समाप्त होगा? शायद ज़ल्दी ही....
...आमीन !
खैर, मरने वालों में अपना कोई नहीं था.


२५.०७.१९८५
नेशनल ज्योग्राफिक का लेटेस्ट एडिशन हाथ लगा है, मुख पृष्ठ में छपी 'शरबत गुला' की तस्वीर पूरे संसार में धूम मचा रही है. शरबत गुला एक अफगानी लड़की है जो अफगानिस्तान में हुए गृह युद्ध में अनाथ हो गयी थी. ये गृह युद्ध सोवियत संघ द्वारा पोषित है. अमेरिका की सहायता से शरबत गुला को ढूँढने में सफलता हाथ लगी. लगता है अमेरिका की सहायता से ही कभी अफगानिस्तान में चैन - ओ - अमन कायम होगा.बढ़िया बात है कि अमेरिका की वजह से ही, धीरे धीरे ही सही अफगानिस्तान के हालात उत्तरोतर सुधर रहे हैं.


२७.०७.१९८५.
बेक टू दी फ्यूचर...
वैसे था ये मज़बूरी का सौदा ही. रुचिता नाराज़ है वो कहती थी कि 'राम तेरी गंगा मैली' के टिकट अडवांस में ही खरीद लेने थे. रुचिता तो आधी मूवी में ही सो गयी थी, फिर घर आकर उसे पूरी कहानी सुनाई. किसी बोरिंग रिवीजन की तरह.

और मज़े की बात कहानी सुनते सुनते उसे फिर नींद आ गयी है, मैं टेबल लेम्प जला के डायरी लिख रहा हूँ, नींद नहीं आ रही, पर सोने की कोशिश करता हूँ...
कितना क्रिएटिव नाम है...
...बेक टू दी फ्यूचर !

१८.०८.१९८५
शीला फिर देर से घर आई है, उसके कमरे से उसकी और उसकी माँ की चिल्लाने की आवाज़ें आ रही हैं...
"...इफ यूअर एंड पापा'ज़ ओनली मोटो बिहाएंड सेक्स वज़ प्लेज़र, देन व्हय डिड यू गेव बर्थ टू अस? आए ऍम प्रिटी मच श्योर डेट कंडोम्स एंड अदर रिसोर्सेस वर रेडिली अवेलेबल एट योर टाइम एज वेल.
दे वर ! राईट? देन व्हाय वी ममा? व्हाय वी? क्यूँ ममा क्यूँ?"
आवाजें बंद हो गयी. डायरी भी बंद करके रख देता हूँ , शायद रुचिता इधर ही आ रही है.



२०.०९.१९८५ 
भागते फिरते,
शहरी सभ्यता से.
गंवार खेतों से होते हुए...
...गुलमोहर के झुरमटों में,
किसी पहाड़ी पे चढ़ते चढ़ते,
साथ साथ गहरे होते गड्डों से डरते...
अपनी ही आवाज़ की गूँज सुनके...
खिलखिलाते !


किसी तह किये कागज़ की सिलवटों में पड़े,
छत के किसी कोने में ...
...उंघते पीपल जैसे.
कुछ उड़ती धूल की नींव में रखे गये...
कभी ,
'गृहों की मनोदशा' की भेंट चढ़े.

या,
किसी शिलालेख के पत्थर जा हुए ...
...
...
बिखरते रहे....
...कागजों से उतरकर,
..ये सपने.


२०.१०.१९८५.
कितनी अजीब बात है कि आज फ़िर रविवार है लिखने को बहुत कुछ...
और स्पेस?
ये नहीं कहूँगा कि मुझे इस बात का अंदेशा ही नहीं था, पर जिस तरह से मैंने सोचा था वो थोड़ी मोडरेट... थोड़ी कम चुभन वाला था.
परिणाम? वो हमेशा सोच से भयावह ही होते हैं.
मुझे अब भी यकीन नहीं होता कि ऐसा मेरे साथ हुआ. और उससे ज़्यादा इस यकीन उस बात पे नहीं हो रहा जो मैं करने जा रहा हूँ....
...एक ओर अपने भविष्य (?) को लेकर उठाये कदम को पूर्णतया गुप्त रखना चाहता हूँ, दूसरी ओर ये डायरी लिख रहा हूँ, जिसको कभी न कभी किसी न किसी के द्वारा पढ़ा ही जाना है, इसको अपने साथ ले जान अपने साथ बेईमानी होगी और इसे नष्ट कर देना मेरे लास्ट ओबसेशन की हत्या.
एक, मुझे याद नहीं आता कि मैंने कब अपने होश-ओ-हवास या नशे-पत्ते में भी राजेश पर हाथ उठाया ?
दूसरा, मुझे ऐसा कोई घर भी नहीं जान पड़ता जहाँ बेटे ने अपने बाप को...
शायद ये दो बातें संयोगवश एक साथ लिख दी गयी हैं इसलिए इनके सम्बन्ध पर अब गौर कर पा रहा हूँ....
इसीलिए शायद मैं, जब इस घटना को अपने पूर्व के कार्यों से जोड़ के देखता हूँ, और उसके बाद के परिणाम, तो सच कहूँ,तो राजेश के किये पर नहीं... अपने न किये पर घृणा होती है.
चोट तो कल रुचिता को भी लगी थी, बातों की...
तब शायद रुचिता ने बात बढाई होती तो...
तो शीला भी उसके साथ...
...मुझे मालूम है,रुचिता आज भी नहीं सोयी होगी.वो इतनी मजबूत नहीं है कि इस सब को बार बार सह सके.उसका कहना अच्छा एक्सक्यूज़ था बहलाने को...
"नशे में हो जाता है. बच्चे अब बड़े हो रहे हैं. उन्हें उनका स्पेस दो.वैसे आपने भी तो इस उम्र तक कोई एब नहीं छोड़ा था."
"हाँ पर बाप को थप्पड़?"
ऐसा कुछ तीसरी बार न हो इसके लिए मुझे ही कुछ करना होगा...
..पहले शायद वक्त रहते में बहुत कुछ कर सकता था, पर अब विकल्प कम हैं, या शायद एक ही विकल्प है...
मुझे ही सुनिश्चित करना होगा...
...योगक्षेमं वहाम्यहम !

दायें पन्ने में बड़ा सा क्रॉस किया हुआ है.निशान कई बाद के पन्नों में भी है.शायद आज तक के पन्नों में.