सोमवार, 13 सितंबर 2010

एक चिट्ठी जो कल मिली

जितनी भी कॉल आती हैं यू. एस. से उनमें कम से कम नब्बे प्रतिशत कॉल स्त्रियों की होती हैं .
लगता है कि उत्तरी अमेरिका में पुरुषों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और ये समस्या मेरे लिए किसी भी 'माओवादी' , 'जैसिका मर्डर मिस्ट्री ' , 'ग्लोबल वार्मिंग' , 'महंगाई', 'पाकिस्तान' , 'लुप्त होती संस्कृत और संस्कृति' से ज़्यादा मायने रखती है, और इसके लिए (मतलब इस समस्या से अमेरिका को निजात दिलाने के लिए) अपना योगदान करना चाहता हूँ, कुछ भी जो भी मुझसे बन पड़े. ठीक एक पुरुष के बराबर योगदान.
(उपर्युक्त कथन कल देखी गयी डॉक्युमेंट्री 'एन इनकनविनियेंट ट्रुथ' से प्रेरित नहीं है. )


ठीक इसी तरह जब यू. के. के कॉल सेंटर में था तो ऐसा लगता था कि सब जवान गायब हो गए हैं, साले सब बूढ़े ही कॉल करते थे. (ठरकी, चाटू...)
मैं ये ही मानता आया था कि यू. के. और उत्तरी अमेरिका में भी रूस की तरह क्रांति हुई होगी जिसमें सारे युवा, पुरुष और युवा-पुरुष मारे जा चुके होंगे.
बाद में पता चली कि इंग्लॅण्ड में वहाँ की सरकार ने लोगों को बूढ़े होने के लिए इतनी ढेर सारी सुविधाएं दी हुई है, जितनी यहाँ, मेरे देश में, मरने के लिए. तो वहाँ लोग बूढ़ा होना उतना ही पसंद करते हैं जितना भारत में मरना .


उन आंग्ल-कन्याओं के लिए आम बात होती होगी 'हनी' , 'लव' , 'स्वीट हार्ट' से बात शुरू करना और 'ओह ! यू आर माय डार्लिंग', 'कम फॉर डिनर' पे बात ख़त्म करना , पर मुझ जैसे 'आम-काम-कुंठित-भारतीय' का तो....
BTW: तो उनके लिए क्या क्या आम बात होती होगी? या ये आम बातें किस हद तक जा सकती हैं?
मुझे याद है, सबसे पहली वाली 'पहली तारीख' को तो मेनेजर से पूछ भी बैठा था...
"अरे वाह ! सैलरी भी मिलेगी?"



पर सच बताऊँ...
आजकल मेरी इस ड्रीम कंट्री की ही एक कॉल ने परेशान कर रखा है.
नाम ? दीप्ती.(हाँ हाँ इडियट... इंडियन !!)
एक तो बिच (मायने डाइल्युट हुए ? असल  में गुलज़ार सा'ब  ने कहा था "अंग्रेजी में अश्लीलता के मायने डाइल्युट हो जाते हैं." या ऐसा कुछ. ) रोज़ कॉल कर के दो दो घंटे पकाती है और उसपर कुछ खरीदती नहीं ( क्रोसीन वो भी नीट ओल्ड मोंक चढ़ी ).


मेरी सीट के बगल में बैठने वाली...
नाम ?
(रुको ! रुको !! शर्माने लजाने वाला मुखोटा कहाँ गया?)
आँचल.
कट ! फ़िर से....
हाँ तो आँचल, जो मेरे बगल में, (जाहिर है बगल की सीट में) बैठती है और संयोग से शादी भी करने वाली है.
संयोग उसके होने वाले पति का नाम है. (आप लोग भी ना !!) मेरी तो बस प्रेयसी है वो.
कट !! फ़िर से....
हाँ तो आँचल को भी शक होने लग गया कि मेरे और इस बिच के बीच
कट !!! फ़िर से...
हाँ तो आँचल को भी शक होने लग गया कि मेरे और दीप्ती के बीच 'कुछ' चल रहा है.
मैं 'कुछ' शब्द भी शिष्टाचार (शिष्टाचार... और मैं ? वैरी फनी !) और इस शब्द के प्रचलन के मारे उपयोग कर रहा हूँ. नहीं तो आँचल को तो मुझपे श़क....
नहीं नहीं श़क नहीं वो तो कुछ से ज़्यादा कुछ होने पे यकीन करती है. उसने कहा भी था मैं तुमपे पूरा यकीन करती हूँ.
कट !!!! फ़ाइनल टेक:
आँचल को पूरा यकीन है की मेरे और दीप्ती के बीच ' बहुत कुछ' हो चुका है.
"अरे बेवकूफ" (नहीं आपसे नहीं आँचल से )
"सारे कॉल रिकॉर्ड होते हैं, नहीं तो उस दीप्ती से तो नहीं पर किसी अन्य आंग्ल-कन्या से उन लोगों की 'आम बात' और भारतियों की 'वो वाली बात' कितनी बार कर चुका होता. तुम जानती हो आँचल? तुम, दीप्ती और कुछ पुरुष कॉलर तो टॉम एंड जेरी के बीच के बोरिंग विज्ञापन हो मेरे लिए. अच्छा अच्छा सॉरी !! तुम वोडाफोन का जू जू वाला विज्ञापन हो ! खुश !!"



तो फ़िर दीप्ति का का फ़ोन आया है...
अब उसे मुझे ये बताने कि क्या ज़रूरत कि उसका पति उसे बहुत मारता है पर प्यार भी उतना ही करता है? भाई अपना फ्लाईट का टिकट खरीदो और चलते बनो. थैंक्स फॉर कालिंग बस !!
वैसे ये सोच के ही कुछ कुछ होता है कि यू. एस. के कांच वाले घरों में एक हाथ से बियर को गले से पकड़कर और दूसरे हाथ से बीवी को गले से पकड़कर 'अवतार' या एन.आर. आइ. घरों में माय नेम इज खान की डी वी डी (जो मूवी नहीं देखते उन्हें बताते चलें कि उद्धरण सही दिए हैं. अवतार अंग्रेजी मूवी है और माय नेम इज खान हिंदी) देखते देखते मारने में क्या फील आती होगी . उस पत्नी को भी मार कितना कुछ याद दिलाती होगी. "हाय ! अगर ये हिन्दुस्तान में होते किस तरह से मारते.विदेशी मार में वो बात कहाँ?"
'थाउजेंड स्पेल्नडिड सन्स' और 'सारा आकाश' जैसी ना जाने कितनी किताबों की सारी मारें उसके आँखों में पानी भर जाती होंगी. और पति महाशय सोचते होंगे की मेरी मार से रो रही है. और मन ही मन अपने पुरुषत्व पे गौरवान्वित होते होंगे .
नई दुल्हन अपने बिछुड़े प्रेमी के बाहुपाश के लिए रो रही है या बाबुल के लिए कैसे पता चले?


दीप्ति आगे बोलती है...
"मैं गुजरात से हूँ, मेरा नाम दीप्ती शाह है". ( अच्छा तो ये बात है आँचल को नहीं बताऊंगा. बाकी बातें कौनसा बताता हूँ?)
"मेरी शादी को १० साल ११ महीने हो गए." (वैसे दिन घंटा और सेकेण्ड भी बताये थे.पर वो बिलबोर्ड टॉप ट्वेंटी के गानों की तरह बड़ी ज़ल्दी बदल जाते हैं इसलिए उल्लेख नहीं किया.)
"मैं गायनेकोलोजिस्ट हूँ ."
(मैं नहीं बाबा दीप्ती... क्या... आप लोग भी !! मैं गायनेकोलोजिस्ट ? वॉऊ )
"जब इनसे शादी हुई थी मेरी तो ये जॉब करते थे. बड़े अच्छे थे ये तब. अब भी अच्छे हैं. पर मुझे इन्होंने जॉब नहीं करने दी." (ताकि आप दर्पण साह को ना करने दें. )

...अब तो अगर किसी और के पास भी उसकी कॉल आती है तो वो एक्सटेंशन १४३ ही मांगती है. और ये एक्सटेंशन किसका है  (नो मार्क्स फॉर गेसिंग) ?
अपने मेनेजर की "नो ! नो !! फ़ोन एटिकेट्स 'भूल गए' क्या?" को 'भूल के' मैंने उसे बीच में टोकते हुए पूछा था...

"हाँ तो मैडम लॉस वेगास नेवाडा से कहाँ का टिकट बुक करूँ?" (भावार्थ: साले टुच्चे इंडीयंस ! बकवास ज़्यादा करेंगे ! अभी तक कोई 'लिसा', 'जूडी', 'एलिजाबेथ' होती तो क्रेडिट कार्ड डिटेल दे रही होती, या जाते जाते कह रही होती " ओ माय डार्लिंग !! यू मेड माय डे !!")


जितना विपक्ष के लिए महंगाई और मेरी कहानियों के लिए ढेर सारे कोष्ठक अपरिहार्य हैं वैसे ही बी. पी. ओ. के लिए म्यूट का बटन.
सारी कुंठाएं कहाँ जाती नहीं तो? जैसा आप लोग सोचते हैं वैसा कुछ (भी) नहीं होता अब यहाँ. आखिर हमने देखा है तजरुबा (नहीं) करके. (क़ाश... बी. पी. ओ. के बारे में मेरे द्वारा सुनी गयीं 'वो' सब दन्त कथाएँ सच होतीं)

आँचल (म्यूट में ): कौन है?
मैं (म्यूट में):कोई नहीं.
"झूठ मत बोलो"
"दीप्ति"
"झूठ मत बोलो"
"अच्छा वो नहीं है"
"झूठ मत बोलो"
"मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ"
"झूठ मत बोलो"
"तुम बहुत खूबसूरत हो"
"सच्ची?"
"तुम्हारी कसम."
कितनी अनुचित बात है...
एक ये कि आपको अपराध करने का सुख भी नहीं मिल रहा और दूसरी ये कि आपके पास अपनी प्रेमिका को बताने के लिए सब सच (उफ्फ्फ्फ़ !!) बातें हैं. वो तो प्रेमिका ही है जो आपकी बातों पे विश्वास ना करके प्रेम को एक्साइटिंग बनाये हुए है. और आप कम से कम इतने खुश तो हो ही जाते हैं कि आप भी श़क करे जाने लायक हैं.
बहरहाल दीप्ती म्यूट में है और बोली जा रही है. उसे कोई सुनने वाला चाहिए...
"मैं चोर नहीं हूँ ! मुझे चोरी से नफरत है !!"
खैर छोड़ो, उसने कितनी बकवास की और क्या क्या कहा जब मुझे ही नहीं मालूम तो आपको क्या बताऊँ?




आपको ये भी बता दूं कि ये सब बातें आपको क्यूँ बता रहा हूँ...
उसका कारण है ये लैटर है जो कल यू. एस. की जानिब से आया है (दीप्ती के बदले यू. एस. कहना अच्छा लगता है और फ़िर आँचल के हाथे लग गयी ये बकवास तो?)
और हाँ ये पत्र मैंने नहीं लिखा है इसलिए यदि मेरी कहानी सा अद्भुत शिल्प, अद्भुत कथ्य, और अविस्मरणिय रस निम्न पत्र में ना मिले तो मेरे पास दीप्ती का एड्रेस है, और वो खूबसूरत भी है ! ना ना उसकी फोटो नहीं है मेरे पास. सिद्धांततः कह रहा हूँ (सिद्धांत : विश्व में ९० प्रतिशत लड़कियां खूबसूरत होती हैं, बाकी? ...बाकी १० प्रतिशत बहुत खूबसूरत).



"प्रिय दर्पण ,
जानती हूँ कि तुम मुझसे बहुत छोटे हो. वैसे भी एक औरत की उम्र बड़ी तेज़ी से बढती है, वो बड़ी तेज़ जवान होती है और उतनी ही तेज़ बूढी. तो अगर तुम मेरी उम्र के भी हो तो भी तुम मुझसे छोटे हो . और इसी विश्वास के साथ तुम्हें अपना छोटा भाई बनाने वाली थी, पर पता नहीं क्या सोच कर...
...वैसे भी कहीं पढ़ा था कि कई बार हम अनजाने लोगों को बातें आसानी से बता देते हैं.
कारण?
हमें तो अपनों ने लूटा टाइप.
तुम्हें भाई भी एक रिश्ते को झूठा नाम देना ही तो था...
कहीं किसी तरह ये चिट्ठी 'राकेश' को पहुँच गयी तो मैं अपने बचाव में कुछ कह सकूँ बस इसलिए. और उनसे टूटते रिश्ते को कम से कम अपनी तरफ से तो बचा दूं . अभी तक मैं ही तो बचाती आई हूँ . कई बार बच्चों के सिवा कोई और कारण नहीं रह जाता दोनों के साथ रहने के.
तुम वैसे मेरे लिए सिर्फ टोल फ्री नंबर ही तो थे, जहाँ पे फ्री कॉल करके ढेर सारी बातें कर सकती थी. जबकि मुझे पता था कि तुम मुझसे बात करना पसंद नहीं करते. और ना ही तुम्हें मेरी बातों में कोई दिलचस्पी है. यकीन करो मुझे पहली ही कॉल में ये पता चल गया था. पर फ़िर भी तुम्हारा कोई विकल्प ना तलाश किया ना तलाशने की कोशिश , शनिवार रविवार को जब तुम्हारा ऑफ होता था, मैं तुमसे बात करने के लिए तरस जाती थी. तुम्हें तो पता ही है कि 'ये' भी घर में ही रहते हैं, मैं ही जानती हूँ मैं कैसे मेनेज़ करती थी तुमसे बात करना . ठीक जैसे वो 3 डॉलर मेनेज़ किये थे. (आज जब मैं तुम्हें ये 3 डॉलर वाली बात लिख रही हूँ तो मुस्कुरा रही हूँ.)
हाँ अब भी ये घर में ही रहते हैं और मेरी वो हेयर डाई बालों से उतरने लगी है जिसके लिए ३ डॉलर चुराए थे. मैं तुम्हारे सामने कितनी ही बड़ी कितनी ही समझदार बनने की कोशिश करूँ, मैं एक आम औरत हूँ और मुझसे भी वो सब बहुत पसंद था इन्फेक्ट है.
बात बस इतनी सी है कि उम्र कैद और एक निश्चित समय की सजा में 'उम्मीद' का फर्क होता है.
और हाँ इस बार तुम्हें ये लैटर लिखने के लिए कोई चोरी नहीं की. ( मैं भी कैसे तुम्हें अपना सब कुछ बताती चली गयी ना?)
वैसे मैंने बालों को डाई करना बंद कर दिया है, और रुपये चोरना भी. हाँ मगर अपने बचाव में कुछ कहूं?
मैंने चोरी की ही कब थी ? उन पैसों पे जितना हक़ उनका था उतना ही मेरा. तो मैं डर क्यूँ रही थी? और आज भी जबकि ...
जबकि जानती हूँ बातों और चिट्ठियों से शारीरिक इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती हैं...
फ़िर भी मैं यकीनन कह सकती हूँ कि इस लैटर को पोस्ट करने में मैं पसीने-पसीने हो जाऊँगी. या शायद पोस्ट ही ना कर पाऊं. हाँ अपने मेनेजर से कह के अपने फ़ोन के म्यूट का और होल्ड का बटन ठीक करवा लेना. क्यूंकि मैं शायद पागल थी जो उन शब्दों को सुनने के बाद भी तुम्हें कॉल करती थी . बल्कि सच तो ये है कि शायद उन्हीं शब्दों कि वजह से तुम्हें बार बार फ़ोन करती थी. कोई और शायद पसंद ना करे.
पढने और सुनने के लिए धन्यावाद.
'बिच' दीप्ती."



यकीन करें ये चिट्ठी मुझे बिल्कुल समझ नहीं आई. नहीं तो एक कहानी ही लिख देता इसपे. बहरहाल...

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

मुक्ति

पिछले आधे घंटे से बिस्तर से उठने वाली उमस से आप यूँ ही जद्दोज़हद कर रहे होते हैं. देर से उठके दिन को बदला नहीं जा सकता और सपने अपनी मर्ज़ी के नहीं देखे जा सकते इसलिए लगभग दौ सौ अस्सी "उठ गए", ठंडी चाय, स्नूज़ अलार्म और १२ मिस कॉल आपको जगाने में सफल हो ही जाती हैं.
बाथरूम से कई सारी  आवाज़ें आ रही है...
शावर के पानी के बीच....
"सजना है मुझे सजना के लिए... उठे? कि...  नहीं?"
आपकी 'कुंठाओं की कल्पनाशीलता' बड़ी दूर तक जाके रूकती है.आखिर कोई आपके लिए, बस आपके लिए सजता है.
सहसा आपको याद आता है कि आपकी  जेब में १७ रुपये ही हैं. तो आप उसका पर्स खोलते हैं. वो नहा के आते हुए आपको देख लेती है. आप अपने बचाव में उसके होठों में एक चुम्बन अंकित कर देते हैं. वो प्रभावित होकर भी नहीं होने का झूठा नाटक करती है.वो अपना पर्स आपसे छीनती है और ५० रूपये आपके बिस्तर के ऊपर फैंक देती है. आप ठंडी चाय उठाते हैं और ग्लास ठीक उसके पैरों में फैंक देते हैं.
"तुम मेरे ऊपर ये एहसान करना बंद क्यूँ नहीं करती?"
आप उसकी कलाइयों को पकड़ के पीछे कि तरफ मोड़ देते हैं. वो गर्दन ऊपर उठा के सिसकियाँ लेती है बोलती कुछ नहीं. जब आप देखते हैं कि उसकी कलाइयाँ लाल हो गयी हैं और वो "ओह ! मम्मा..." कह के हाथ छुड़ाना चाह रही है तब आप उसकी कलाई छोड़कर उसपर एक और दया करते हैं.
वो अब भी कुछ नहीं कहती तो आपको खीज होना लाज़मी है.
"अच्छा लगता है ना तुम्हें मुझसे बड़ा बनकर."
...आप लगातार बडबडा रहे हैं...
"ये दया है जो तुम मुझ पे करती हो.और तुम अच्छी तरह से जानती हो."
वो किचन की चाबी आपके हाथों में पकड़ा के आपके माथे को चूम के, रात की सूजी हुई आँखों से घर से बाहर निकलती है.
आप इग्नोर्ड महसूस करते हैं. और उसके घर से बाहर निकलते ही उसे फ़ोन करते हैं.
२५-३० कॉल के बाद वो फ़ोन उठाती है
"मैं मीटिंग में हूँ."
आप उसका फैंका हुआ ५० का नोट उठाते हैं और नीचे के खोमचे में सिगरेट लेने के लिए निकल पड़ते हैं. आपकी नज़र उसके अन्तः वस्त्रों में पड़ती है और आपकी आँख बदले की भावना से चमक उठती हैं.
"आने दो आज उसे ! चाहे कितना ही ऊपर उड़े आना तो उसे नीचे ही है."
आपको पता ही नहीं चलता की पिछले ४ सालों में रूम शेयरिंग कब लिव इन रिलेशन में लिव इन रिलेशन कब प्रेम में प्रेम कब सेक्स में और सेक्स कब युद्ध में बदलता गया?
(कम से कम आपकी तरफ से.)
आप नीचे खोमचे में सिगरेट के लम्बे लम्बे कश खींच के जैसे ही वापिस रूम में आते है देखते हैं ३ मिस कॉल, कॉल बैक करते हैं.
"मेरा फोन क्यूँ नहीं उठाया."
उधर से कोई आवाज़ नहीं आती. तो आप ही...
"ठीक है मीटिंग में थीं पर मैं तो तुम्हारे घर से निकलते ही फ़ोन कर रहा था."
"शाम को ऑफिस से आते वक्त कुछ लाना है?"
"मेरा फ़ोन क्यूँ नहीं उठाया?"
"साएलेंट मैं था ! कुछ लाना है आते वक्त?"
"एक और एहसान" आप उसे सुनाते हैं कहते नहीं.
फ़ोन डिस्कनेक्ट हो जाता है.
रीडायल...
"सुनो"
"हम्म.."
"एक क्वार्टर ले आना सस्ता वाला ही सही ! और कुछ स्नेक्स."
आप एक्स्पेक्ट करते हैं कि वो पिछली के पिछली बार की तरह कहेगी
"मैं कैसे वाइन शॉप ?"
पर वो कुछ नहीं कहती. तो आप पूछते हैं...
"तुम कैसे ?"
आप एक्स्पेक्ट करते हैं की वो पिछली बार की तरह कहेगी...
"ऑफिस में बहुत हैं जो तुम जैसा शौक रखते हैं."
पर वो कुछ नहीं कहती . अब आप उसे सुनाते हैं कहते नहीं....
"हाँ तुम्हारे तो ढेर सारे पुरुष मित्र हैं हीं. वैसे तुम भी कोई कसर  तो नहीं ही छोडती होगी. गलत भी क्या है. आदमी को अपनी कमजोरियां ना भी पता हों पर स्ट्रेंथ तो पता होनी ही चाहिए. आगे बढ़ने में बड़ा काम आती हैं. ठीक ही तो है."
फ़ोन फ़िर डिस्कनेक्ट हो जाता है.
"साली ! बिच !!"
XXX

अब आप अकेले हैं, खुद से भी लड़ लिए उससे भी. खाना खाने का मन नहीं है. गुनाहों का देवता....
आप पढ़ते पढ़ते याद करते हैं कैसे रात भर बैठ के उसने आपको ये किताब पूरी सुनाई थी. आप याद करते हैं कब कब और कितनी कितनी बार वो रोई थी और आप हर बार उसके रोने पर मुस्कुराये थे. वो मुंह टेढ़ा करके कैसे आपक चिढाते हुए और अपने आंसुओं को छुपाते हुए... आगे पढना शुरू करती थी? एक एक डिटेल याद है आपको. एक एक !!
और हाँ , वो...
कैसे किताब के पूरा ख़त्म होने पर उसने आपके बगल में बैठकर आपकी एक  बाँह में अपनी बाँहों का घेरा डाल दिया था. आपके कन्धों में अपना सर रखा था.
और... और...
कैसे उसके नमकीन आंसू आपने होठों से चखे थे. तब, उसकी वो हिचकियों के बीच हंसी !
"पागल हो तुम ! एक दम! "
ठीक ठीक याद नहीं ऐसा कुछ ही कहा था. या बस चुप होके वो आपकी आँखों में देख रही थी...
लेकिन उसकी आँखों ने क्या कहा था याद है न?
"क्या है? जानते भी हो... कितना प्यार करतीं हूँ तुम्हें. "
"क्या देख रही हो?"
"ऐसे ही. बस... ऐसे ही."
तब भी वो कम ही बोलती थी.
लेकिन मौन का भी पैराडाईम शिफ्ट होता है...
आप याद करते हैं कैसे उसे कुछ पन्ने और कुछ लाइंस दोबारा पढने को कह था.
"अगर पुरुषों के होंठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो, तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि संबंधों में दूरी आती जा रही है। संबंधों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुंबन का तीखापन।"
और इस तरह जब आप अभी किताब पढ़ रहे हैं...
...पढ़ते पढ़ते वक्त की गति धीमी हो जाती है... थोड़ी 'वक्त' के बाद 'वक्त' रुक जाता है. और फ़िर एक वक्त ऐसा भी आता है की 'वक्त' पीछे की ओर...
वक्त में कुछ शब्दों के बाँध बन जाते हैं. फिर बनता है समय का भंवर और आप गोल गोल घूमने लगता हैं...

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"तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा."
मानो उसके ये कहने भर से सब ठीक हो जायेगा. उसकी आँखों में आपकी परेशानियों के आँसू हैं और फ़िर आप कहते हैं...
"तुम चिंता मत करो. सब..."
आज वो आपको व्हिस्की पीने से नहीं रोकती. बस नज़रें नीचे झुका के किसी भी चीज़ को अपने नाखुनो से कुरेदते हुए कहती है "आज के दिन मेरी खातिर मत पियो."
और आप बोट्म्स अप यूँ करते हैं मानो आप प्याला फैंक के कह रहे हों
"लो जानां ! तुम्हारे लिए कुछ भी."
और फ़िर...
वो एहसास अच्छा होता है या बुरा पता नहीं. जब कल का दिन सौ परेशानियाँ लेकर आने वाला है तब लगता है कि उसकी कमर का तीखा वक्र मानो आपके पकड़ने के लिए ही बना है. इतना ज़्यादा भींच लेते हैं आप उसे कि...
...और वो आपकी बाहों में अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार. पूर्ण समर्पण !
'ग्यारह मिनट' बाद, आपको अपने से अलग करके वो सौ नम्बर डायल करती है...
"हेलो डॉक्टर सा'अब."
"जी ये पुलिस स्टेशन हैं मैडम."
"कोई नहीं जी आप ही आ जाइये"
तसल्ली से सारी बात 'डाक्टर सा'अब' को बता के, अपना मोबाइल चिहुँकते हुए बेड पर फैंकती है.
"आज फ़िर जीने की तमन्ना है."
थोड़ी देर आपको बड़े प्यार से देखती है. आपके ठन्डे माथे का चुम्बन लेती है.
"बास्टर्ड."

...अब तक आप 'पूरी तरह से' मर चुके होते हैं.