मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन...

कई तो ऐसे ही चले गए थे, बिना इस दिन का इंतज़ार किये. वो भाग्यशाली रहे थे कि उनको अपमान के ये कड़वे घूंट जो नहीं पीने पड़े. वे जो अब तक जा चुके थे, वे सब, एक एक कर कभी, या कभी दो-तीन के झुण्ड में रुख्सत हुए. शायद उन्हें अंदेशा था कि एक ऐसी रात आएगी ही.

सब यहाँ मजबूरी के मारे ही तो आये थे, कुछ तो ऐसे थे जो खुद नहीं आ सकते थे यहाँ, इसलिए लाये गए थे या पहुंचा दिए गए थे. हममें से कुछ मेरे जैसे भी थे, जो यहाँ किसी को पहुँचाने आये थे और फिर खुद भी यहीं रह गए थे.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे. ऐसा नहीं था कि उन जाने वालों के पास बहुत से विकल्प हों. पर शायद, जैसा कि आप जानते हैं, उनको ‘ऐसा कुछ होने वाला है यहाँ’ इसका अंदेशा हो गया था.
और उन्होंने यही सोचा कि बाहर निकल कर कोई न कोई सहारा तो मिल ही जाएगा.

बूढ़े के व्यवहार में परिवर्तन तो अचनाक ही आया, बस हुआ ये कि  उसकी तासीर धीरे धीरे ही शबाब चढ़ी. नहीं तो आज से कुछ रोज पहले कोई बाहर का उसके बारे में हममें से किसी से पूछता, तो बताने वाला चाहे कितना ही धूर्त, एहसान-फरामोश या जालिम क्यूँ न होता वो इस बूढ़े के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द कभी न निकालता...
...’माननीय’ या ‘श्री’ के बिना तो उस बूढ़े का नाम हम उसकी अनुपस्थिति में भी नहीं लेते थे कल तक. किन्तु परिस्थितयां...


आज जब वो धक्के मार कर हम बचे हुए लोगों को बाहर निकाल रहा था, जब लगभग सभी लोग उसे भद्दी भद्दी गालियाँ और उलहाने देने में लगे हुए थे चिल्ला चिल्ला कर...

...और जब हमारा, हम कुछ बच गए लोगों का, समूह इस बूढ़े से अपमानित हो रहा था, तभी किसी धूर्त बुद्धिजीवी ने अपना चमकता हुआ चाकू दिखाते हुए राय दी,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
कोई दूसरी डरपोक स्त्री कहती, “मरने दो बूढ़े को अपने आप. कोई नहीं पूछने आएगा अब इसे. कीड़े पडेंगे इसे, कीड़े.” और जब वो ये सब कह रही थी तब भी उसके मन में आशा थी कि ये बूढ़ा जब पागलपन के इस दौर से गुजर चुका होगा फिर हमें वापिस बुला लेगा, और तब हम उसे क्षमा कर देंगे.
कुछ लोग जो थोड़ी सदाचारी थे, या बूढ़े के पिछले परोपकारों के कारण सदाचारी हो गए थे, उन्होंने मेरी तरह इस अपमान को मौन रहकर स्वीकार किया.
“कुछ ही रोज में अपना सारा पुण्य मटियामेट कर दिया इसने.” उन सदाचारियों में से किसी को ये फुसफुसाते सुना था मैंने. (सदचारी चिल्लाते नहीं, या जो चिल्लाते या गरियाते नहीं वही सदाचारी कहलाते हैं ऐसा मुझे आज पता लगा था.)
कोई मुश्किल नहीं था, उस बूढ़े का आज हममें से कोई भी क़त्ल कर सकता था, बस थोड़ी सी उस बूढ़े के लिए घृणा के भाव का संचार होना शेष था. पर पता नहीं क्यूँ उसके इस कृत्य से हममें उस बूढ़े के लिए घृणा नहीं दया का भाव उत्पन्न हो रहा था.
उसके हमारे पीछे-पीछे चलते हडबडाते कांपते पैर, उसका हमें धक्का देते वक्त देर तक हमारे कन्धों से हाथ न हटाना, और चिल्लाते वक्त उसके थूक में सने हुए अनर्थक शब्द समूह....

कक्क... दद्द... घघ्घ....

....ये सभी कुछ स्थिति भयावह नहीं दयनीय बना रहे थे. नहीं तो आप तो जानते ही हैं खून करना इतना मुश्किल भी नहीं है.
...ठीक उस वक्त मैंने मन ही मन कामना की कि उस बूढ़े कि आँखों में एक बूँद आंसू देख सकूँ, जिससे कि मेरे मन में बाद में भी उसके लिए थोड़ी बहुत श्रद्धा रहे, और जिससे कि कभी अपने को समझा सकूँ “वो ऐसा नहीं था, कोई मज़बूरी रही होगी उसकी.”
और तब मैंने उससे आँखों आँखों में पूछ लिया कि वो ऐसा क्यूँ कर रहा है ? नहीं उसपे अब इतना हक था हमारा (ऐसा हमें तो लगता ही था कम से कम) कि मेरी आँखों ने, जो अब तक इतने सारे अपमान को सहने के कारण बाकियों की तरह ही नम हो चुकी थीं, उससे एक दूसरा ही सवाल पूछा,
“वो ऐसा कैसे कर सकता है?”
इस सवाल का ज़वाब उसकी पथराई आँखों ने बड़ी निष्ठुरता से दिया, “मेरी मर्ज़ी ! आखिर ये घर मेरा है, तुम्हें रख सकता हूँ अगर तो तुम्हें निकाल भी सकता हूँ. खुद से नहीं निकलोगे तो ऐसे ही निकाले जाओगे, धक्के मार कर.”


और जब हम पूरी तरह से बाहर निकाले जा चुके थे हमने देखा कि पिछले दिनों जो घर से खुद-ब-खुद गए थे, उनमें से कई बाहर बैठ के, सो के या खड़े होकर किसी चीज़ के हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे. आप तो जानते ही हैं मजबूरी का दूसरा नाम आशा होता है.
उन्हें भी हमारी तरह ऐसा भान था कि बेशक वो घर से बाहर गए हैं, पर परिस्थितियां अभी भी घर के अंदर ही हैं.
उन्हें दुःख था हमारे बाहर निकलने का, कि उनकी आशाएं हम कुछ अंदर रह गए लोगों को लेकर ही थी.
उन्हें खुशी भी थी हमारे बाहर निकलने की, क्यूँ ? ये तो आप बताने की आवश्यकता ही नहीं है.

और जब हम सब लोग समूह में बाहर निकल रहे थे हम सब मौन थे, सबके मन में बूढ़े के लिए अलग अलग विचार थे, जो एक दूसरे के विचारों से अलग ही रहे होंगे. ये आप समझ सकते है कि मुझे नहीं पता था बाकी सब बूढ़े के बारे में क्या सोच रहे हैं. पर क्या आप नहीं जानते कि सबके मन में एक ही प्रश्न था बस, कि उसने ऐसा क्यूँ किया आखिर?
हम निरुद्देश्य और बिना किसी मंजिल के हो चले थे और हम कहीं को भी जा सकते थे. और तब हमने पश्चिम की ही ओर चलना तय किया, तय भी क्या किया बस चल पड़े. भीड़ ज्यादा होने के कारण हमारा आत्मविश्वास लौट रहा था. और तब जबकि हम केवल उस बूढ़े के बारे में सोच रहे थे, हम मौसम, व्यापार और लजीज पकवानों के विषय में बात करना शुरू कर चुके थे. अच्छा था कि हम सब उस ‘अपमान’ को भुला देना ‘चाहते’ थे.
तभी कुछ ऐसा घटा कि उस ‘डिवाइन-अपमान’ की याद ताज़ा हो आई हमारे ज़हन में.
दूर से आते हुए उस आदमी को ये कहते हुए सुना हमने कि
“अरे सुनो तुम्हारा वो कथित इश्वर, वो बूढ़ा, सनकी हो चला है सुना?”
वो दरअसल यही पूछने या बताने हमारे पास आया था...
क्या आप जानते हैं तब मैंने क्या किया? वही जो बाकी के सहयात्री करना चाहते थे और निम्न क्रम में...
१) सबसे पहले मैंने बूढ़े द्वारा अपमानित होने को याद किया.
२) फिर अपनी मुट्ठी भींची.
३) फिर उस धूर्त की ये बात याद की कि,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
४) वो खंजर धूर्त से माँगा, आग्रह-पूर्वक, क्यूंकि मैं कोई हड़बड़ी करके इसे जोश में आकार किया हुआ कृत्य नहीं सिद्ध करना चाहता था.
५) और चूंकि में इसे कोल्ड ब्लडेड मर्डर सिद्ध करना चाहता था इसलिए मैंने ‘आव’ और ‘ताव’ दोनों देखा और वो खंजर बहुत धीरे धीरे सवाल पूछने वाले के पेट में चुभा दिया.

इस घटना ने हमें पिछली घटना भुलाने में बड़ा योगदान दिया. और हम खुशी के मारे नाचने गाने लगे. हमको खुश होने के, बल्कि यूँ कहिये उन्माद में रहने के कई कारण अब मिल गए थे. हमें पता था कि इस सवाल पूछने वाले का घर आस पास ही कहीं है, और वहाँ भी हमारी तरह ही ‘नाउम्मीद’ लोगों का बसेरा है.
तो, जी हाँ आपने सही अनुमान लगाया, अगली अल-सुबह हमने उस घर को भी तोड़ दिया, वो ऐसा ही कोई दिसम्बर का सर्द दिन था.
और उसकी अगली रात शहर भर में दंगे अपने शबाब पर थे, हमारे पास और कोई काम नहीं बचा था और कोई हमें रोक नहीं रहा था. लेकिन हम लोग केवल मारने वाले ही नहीं थे मरने वालों में भी हमारा शुमार था.

और जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ, हमारा बूढ़ा, उसने हमसे मुंह फेर लिया था. नहीं तो क्या था, बिना हिम्मत, बिना ताकत के भी अगर वो बूढ़ा हमें रोक लेता तो क्या हम नहीं रुकते?


...कई साल बीत गए हम अब भी उस बूढ़े के बुलावे का इंतज़ार कर रहे है. आज भी हमारी उस बूढ़े के प्रति वो श्रद्धा रह रह कर हिलोरे मार ही लेती है.

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