tag:blogger.com,1999:blog-74798920218085390832024-03-19T16:00:33.517-07:00पैलागदर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-44755295982383165702012-01-04T06:16:00.001-08:002012-01-04T06:16:38.723-08:00पापा क्या हो पा ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><strong><em>("पापा क्या हो पा" </em></strong><br />
<strong><em>ये वाक्यांश किसी भी भाषा में नहीं है, पर ये अपने आप गढ़ा हुआ भी नहीं. बस इतना जान लीजिये कि इसका अर्थ "पापा क्या होते हैं? बोलो तो ज़रा?" होता है. या हो सकता है. दरअसल शब्द और मौन की सत्ता से ठीक ऊपर एक सत्ता है जिसे अपने को व्यक्त करने के लिए अगर शब्दों की आवश्यकता पड़े तो...</em></strong><br />
<strong><em>...और ये बात मेरे पिताजी जानते हैं !</em></strong>)<br />
<br />
<br />
चाहता हूँ कि उनके जूते के फीते खोल के धीरे से उनके जूते उतार दूँ, इससे ज़्यादा आसान काम और क्या हो सकता है दुनियाँ में?<br />
यकीन कीजिये इससे ज़्यादा मुश्किल काम और कुछ हो ही नहीं सकता... <br />
...इस वक्त !<br />
तीन बजे उनका एम. आर. आई. टेस्ट है. लेकिन वो साढ़े ग्यारह बजे ही तैयार हो चुके हैं. दिल्ली के ट्रैफिक में उनको यकीन नहीं है. वो चारपाई में लेटे लेटे मेरा कन्फर्मेशन लैटर शायद तीसरी या चौथी बार पढ़ रहे हैं. जब आपके लाडले ने ज़्यादा कुछ अपनी ज़िन्दगी में एचिव नहीं किया हो तो आप उसकी 'कन्फर्मेशन लैटर' जैसी तुच्छ वस्तु को भी माइक्रोस्कोपिक नज़रों से देखते हैं. अपनी नज़रों में उसके सो कॉल्ड एचीवमेंट बड़े बनाने के लिए. <br />
जब ज़्यादा कुछ ढूँढने पर भी नहीं मिला उनको तो उन्होंने मेरा चार पन्ने का 'कन्फर्मेशन लैटर' सिरहाने में रखी साईड टेबल में रख दिया. वो जूते पहने हुए पाँव चारपाई से नीचे लटकाकर सो गए हैं. ऊँघते ऊँघते. फाइनली !<br />
चाहता हूँ छोटा बच्चा बन जाऊं. <br />
स्साला ये शेव बनाने कि जरूरत ही ना पड़े, ना ऑफिस जाने की. एम. आर. आई. जैसे बड़े बड़े डरावने टेस्ट ही ना हों, ना सर्वाइकल स्पोंडलाईटिस जैसी सोफेसटीकैटेड बीमारियाँ. <br />
सिम्पल यूरिन टेस्ट हो, वो भी पापा का नहीं मेरा. सिम्पल सर्दी - ज़ुकाम या लूज़ मोशन हों, वो भी पापा के नहीं मेरे.<br />
शेव पापा बना रहे हों, मुझे होस्पिटल ले जाने के लिए. मैं दो तीन बार वोमिट-आउट कर के स्कूल से घर भेज दिया गया होऊं. और घर आते ही स्कूल ड्रेस में ही बिस्तर में लेट गया होऊं. <br />
जूते पहने हुए...<br />
पैरों को नीचे लटकाकर... <br />
...या बिमारी की कोई बात ही क्यूँ हो? कोई शाम पापा ताश के पत्तों से कोई जादू दिखा रहे हों, मैं और मेरी बहन सोफे पे, बिस्तर पे या नीचे ज़मीन पर उछल उछल के मज़े ले रहे हों. क्यूंकि पापा कभी कभी मूड में होते हैं, और जब ताश हाथों में हो तो मतलब कि वो सबसे ज़्यादा मूड में हैं. हर जादू कर चुकने के बाद हम हतप्रभ होकर उन्हें देख रहे हों. हर जादू के बाद उनका वही सवाल, <br />
"पापा क्या हो पा?" <br />
और हमारा वही उत्तर, "भगवान."<br />
"ये देखो चारों इक्के एक साथ आ गए."<br />
"वाऊ"<br />
"पापा क्या हो पा?"<br />
"भगवान."<br />
...या मम्मी से मार खाकर हम दोनों भाई बहन उनके ऑफिस से आने का इंतज़ार जब कर रहे हों, तो वो आते ही हमें उदास देख कर मम्मी को झूठ -मूठ डांठना शुरू कर दें. "उन्हें कैसे पता लगा आज मम्मी को डांठा जाना चाहिए?" इस बात पे हमें आश्चर्यचकित होने का मौका देने से पहले ही वो हमसे पूछ बैठें,"पापा क्या हो पा?"<br />
हम मम्मी को माफ़ करते हुए कहें, "भगवान !" <br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: large;">xxx</span></strong></div><br />
अल्मोड़ा में कराए गए इलाजों से संतुष्ट ना होकर उन्हें दिल्ली ले आया हूँ. दिल्ली से अल्मोड़ा के भी पूरे रास्ते भर हमारी इतनी बात नहीं हुई जितनी दो अनजान लोगों की हो सकती थी उन परिस्थितियों में. <br />
हम दोनों के बीच कोई अलगाव फिलवक्त तो नहीं है, कोई ऐसी बात या मुद्दा भी नहीं जिस पर हम खुलकर बात ना कर सकें या कभी की ना हो. हम एक दूसरे से कुछ एक्सपेक्ट भी नहीं करते. <br />
पता नहीं ये सब कुछ जान लेने का मौन है एक दूसरे के विषय में, या ना जान सकने का, या ना जानने का. मानो हम वो सब कुछ कहना ही ना चाहते हों, जो बातें अन्यथा संजोकर रखी जा सकती हैं. बिना कहे. <br />
अनजान लोग सफ़र की परेशानियों के विषय में बात कर सकते हैं. या बदलते मौसम के, पर हम दोनों ने सफ़र और मौसम में से कुछ भी नहीं चुना. क्यूंकि दो लोग एक ही समय में झूठा बर्ताव नहीं कर सकते, ये जानते हुए कि दोनों को एक दूसरे का झूठ पता है. <br />
मौन एक सच्चाई है, और दोनों ही उसे तोड़ने का प्रयास नहीं करते, बस किसी स्टॉप में रुके तो एक दूसरे की खाने की चिंता, और अपने सामान की चिंता भी एक दूसरे से नज़र बचाकर कनखियों से गोया,"हो गया फ़िर तू नहीं खायेगा पकोड़ीयाँ तो मैंने खाकर क्या करना. तेरी माँ ने आलू-पुड़ियाँ बाँधी ही हैं." <br />
मेरे होते हुए मम्मी कभी उनकी पत्नी नहीं रही. हमेशा मेरी माँ बनी रहीं. उनकी पत्नी और मेरी माँ के बीच में मेरी रेखा थी, और जब भी वो 'तेरी माँ' कहकर पुकारते हैं तो रिश्ते से अपने को अलग हटा रहे हों माना. हम पकोड़ीयाँ खाते हुए भी उतने ही मौन थे जितना पुड़ियाँ खाते हुए होते. <br />
बात करने के लिए किसी विषय की ज़रूरत नहीं पड़ती. और इच्छा से लिया हुए मौन को कोई भी विषय मुश्किल से तोड़ सकता है. <br />
पहले नहीं पर आजकल डर लगता है कि धीरे धीरे दूरियाँ आयीं है. सामने से देखने में ये दूरियाँ अच्छी लगती हैं कि कम से कम हम झगड़ते नहीं, वो मुझे नहीं डांटते, पर जब ताश खेलते हुए या दुकानदार से लड़ते हुए हमारे बीच सामंजस्य का अभाव दिखता है, ये दूरियाँ मुखरित हो जाती है. 'सीप' का खेल हम जीत भी जाएं मिलकर तो भी हम जीत अलग अलग इंजॉय करते हैं. <br />
...मिलकर करना चाहते हैं, पर करते अलग अलग हैं. <br />
<br />
चिंता दोनों को एक दूसरे की है, गर्व(अकारण) दोनों को एक दूसरे पर है, एक दूसरे का कहा (जो कभी-कभी ही होता है आजकल) हमारे लिए पत्थर की लकीर भी है. <br />
पहले उनका कहा भी उनका आदेश सरीखा होता था, फ़िर उनका आदेश भी बस कहा सरीखा रह गया था, अब दोनों ही नहीं हैं. उनके कहने का मैं कोई भी मायने निकाल सकता हूँ और इसके लिए मैं उनकी ओर से स्वतंत्रत हूँ. <br />
यही बात अच्छी लगती है शुरुआत में पर है सबसे बुरी. क्यूंकि जब तक अगले को पता नहीं है कि आप उसकी बातों का अर्थ अपने हिसाब से निकाल रहे हो (जबकि आप हमेशा ऐसा करते हो) तब तक ठीक है. लेकिन एक दिन कहने वाला जान लेता है कि बातें वो नहीं है जो उसने कही बल्कि वो हैं जो दूसरे ने सुनी. तब एक वाक्य आखिर में और जुड़ जाता है, "बाकी तेरी मर्ज़ी." <br />
<br />
पिताजी से रिश्ता भावनात्मक कम होता है. <br />
कम से कम मेरे मामले में तो ऐसा ही है. और मैं उसे खींच के उस स्तर लाना भी नहीं चाहता...<br />
जैसा माँ के केस मैं है, माँ के केस में आप आँख मूँद के काम करते हो, क्यूंकि उन्होंने आपको ऐसा सिखाया है, क्यूंकि उन्होंने आपके साथ ऐसा किया है, पिताजी से आप प्रश्न करते हो, कारण उसका भी समान है. <br />
अगर कोई आपसे कहे कि इस उंचाई से कूद जा और आप कूद जाते हैं तो यकीन करिए वो आपके पिता या माता ही हो सकते हैं. <br />
माता इसलिए कि आप उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं, <br />
और पिताजी ?<br />
इसलिए नहीं कि आप उनके लिए अपनी जान दे सकते हैं...<br />
...अपितु इसलिए कि आप निश्चित हैं कि उन्होंने कहा होगा तो निश्चित ही इसमें आपका कोई हित निहित होगा. <br />
<br />
...नहीं तो क्या था मौन तो मौसम और सफ़र कि बात करके भी तोड़ा जा सकता है !<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: large;">क्सक्सक्स</span></strong></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><br />
अपनी प्रेमिका को प्रथम बार आई लव यू कहने में कितना वक्त लगता है और वो 'दौर' कितना कठिन होता होगा, मुझे इसका एक्सपीरिएंस नहीं है. क्यूंकि मेरी पूर्व प्रेमिकाओं ने इसका मौका ही नहीं दिय कभी. वो खुद ही आई लव यू कहकर चलती बनीं और फ़िर चलती बनीं. <br />
मुझे करना बस इतना है कि उनके जूते के फीते खोलने हैं और कहना है "पापा आराम से सो जाइए. अभी बहुत वक्त है." आज तक कभी इतनी तीक्ष्ण इच्छा नहीं हुई ऐसा करने की. <br />
मैं इतना ज़्यादा ऑबसेसड इतना ज़्यादा कंसर्नड हो गया हूँ इस चीज़ को लेकर अभी अभी की मानो मेरे पिछले सारे पापों का प्रायश्चित है 'सफलतापूर्वक' उनके जूते के फीते खोलना. <br />
<br />
<br />
मुझे दरअसल शेव बनामे में काफी समय लगता है, मुझे आज भी याद है, (और ये याद करते हुए गालों में कहीं कुछ नहीं छिलता, मेक थ्री से शेव बनाने का यही फ़ायदा है की कितना ही बेतकल्लुफ होकर शेव बना लो, छिलता कहीं और है, अंतस में कहीं.)<br />
उनका कहना "तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है?"<br />
उस वक्त भी मुझे अपने घर से भाग जाने पर और हरिद्वार के किसी फ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन करने पर गर्व ही हुआ था अपने ऊपर कि देखो, मैं कैसे परेशान कर सकता हूँ इन्हें.<br />
बड़ी देर में जाना कि ये सबसे आसान काम है. अपनों को परेशान करना, बस आप खुद को थोड़ा कष्ट पहुंचा दो वो परेशान. <br />
"तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है?"<br />
क्यूंकि जब तक उनके लाडले का बाप जिन्दा है उसे किसी भी बात की चिंता करने कि ज़रूरत नहीं सिवा जिन्दा रहने के.<br />
"तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है? तेरे बाप को तुझसे कोई एक्सपेकटेशन नहीं सिवाय इसके कि तू उनसे अधिक जिये. एक दिन ही सही पर उनसे अधिक !" <br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><strong><span style="font-size: large;">xxx</span></strong></div><br />
<br />
"दर्शन"<br />
पापा ने पीछे से आवाज़ लगाई,<br />
"ज़रा जूते के फीते खोल दे यार ! धोफरी-झूम (दोपहर की नींद) जैसी क्या लग रही ठहरी फ़िर कहा मुझे ?" <br />
</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-1245010331924701292012-01-04T06:13:00.001-08:002012-01-04T06:13:39.296-08:00...एक दिन हम भी कहानी हो जायेंगे.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">चलो बात करते हैं, इश्वर की. आप क्या समझते हैं? क्या है इश्वर ? एक कहानीकार ? क्या वो भी पड़ा रहता होगा यूनिक कहानियों के चक्कर में? और तब कहीं जाकर एक जीवन बनता होगा? क्या होता अगर सच में कोई व्यक्ति हो और इश्वर ने उसके कर्म, उसका भवितव्य अभी लिखना हो?<br />
बुरा लगता है न सोचकर की इश्वर कहानी का लेखक! और उसने जो कहानी लिखी है, हमने जी है, जी रहे हैं. बुरा लगता है न सोचकर की उसको कहानी का प्रारब्ध और अंत ज्यादा से ज्यादा 'प्रभावित भर' ही करता होगा बस ! और कुछ नहीं. <br />
'इश्वर मस्ट बी प्लेइंग डाइस विद अस.'<br />
उस इश्वर की खातिर उसे उदार सिद्ध करने की खातिर मैं भी कहानी से जुडकर कोई कहानी लिखना चाहूँगा. मुझे पता है इश्वर भी ऐसा ही करता होगा...<br />
वो भी हमारे दुखों को महसूसता होगा...<br />
..फिर हम तो इंसान हैं. माया मोह से ग्रस्त ! कितना ही फिक्शन मान के पढ़ें कहानी, कितना ही बड़ा आर्ट वर्क मान लें सिनेमा अगर कहानी डिजर्व करती है तो दो बूँद आसूं तो ओविय्स हैं यार ! और कमला, रीटा, राजेश जैसे किसी भी काल्पनिक कैरेक्टर की खुशियाँ हमें होंट करेंगी ही. 'अद्वेत' हो जाने तक !<br />
या फिर खुद एक कहानी हो जाने तक ! वो कहते हैं ना....<br />
...एक दिन हम भी कहानी हो जायेंगे.<br />
<br />
________________________________________________<br />
<br />
पर मैं वो लड़की नहीं हो सकता, सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, आप लाख कहानियाँ पढ़ लो, लाख मूवीज से अपने को रिलेट कर लो, किसी अपने (या बेगाने के भी) गम में उदास हो जाओ, उनकी खुशी में 'जेन्युइन्ली' खुश हो जाओ. पर एट द एंड ऑव द डे आप 'आप' ही रहते हो.<br />
<br />
सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, कि आपके ऊपर कितने ही कॉन्सेप्ट प्रक्षेपित किये जायें, कितनी ही चीज़ें आप पर फैंकी जायें, आप तक वो ही और उसी तरह से ये पहुंचेंगी जैसे और जिस तरह से आप उन्हें स्वीकार करते हो.<br />
प्रकाश में सभी रंग हैं, पर हरा रंग हरा और गुलाबी रंग गुलाबी है क्यूंकि उसने बाकी सारे रंग अवशोषित कर लिए हैं. <br />
<br />
सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, एक जिंदगी का मतलब 'एक और केवल एक' जिंदगी हो सकता है.'एक' इसलिए की जब तक वो है तब तक आपको उसे जीना ही पड़ेगा. और 'केवल एक' इसलिए आप दूसरी नहीं जी सकते. इसलिए वो कोई और को जीने की चाह आपमें एक 'रिक्तता' 'भर' देती है...<br />
"कितना अच्छा होता न अगर..."<br />
<br />
ऐसी ही कितनी बातें सोचने पर मुझे मजबूर करती हैं उस लड़की की आँखें...<br />
<br />
______________________________________<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg9bs1N-gxT6OqoEnRXgI_muWDu1T6DVHHlDPoREWqAYQbVW5kiBIubMi61lW1x4bScj-ayWx82jcdshCf8AEfh01WVkT0nPjppLHRYyqw148b3ywcw4bfxvmE6av9hq5qQocdig9hxWxw/s1600/sona.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="239px" rea="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg9bs1N-gxT6OqoEnRXgI_muWDu1T6DVHHlDPoREWqAYQbVW5kiBIubMi61lW1x4bScj-ayWx82jcdshCf8AEfh01WVkT0nPjppLHRYyqw148b3ywcw4bfxvmE6av9hq5qQocdig9hxWxw/s320/sona.png" width="320px" /></a></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #666666; font-size: x-small;"><strong>इस दिसम्बर आठ साल की हो गयी सोना</strong></span></div><br />
<br />
उस लड़की की उदास कैनेडियन आँखें.....<br />
काश कि मैं लिखते वक्त उसके दर्द को जी सकता, पर लिखना मैंने है और जीना उसने...<br />
..और मैं क्यूँकर औरों को भी बाध्य करूँ उसके दर्द को समझने को? <br />
ये कहानी कहूँ ही क्यूँ ? <br />
वो आठ नौ साल की लड़की हमेशा झगडती रहती है, हर एक से, छोटी से छोटी बात भी उसे ठेस पहुंचा देती है, आंसुओं का उसकी आँखों से वही सम्बन्ध है जो नमक का आसुओं से होता है. मैं जानता हूँ , उसका ये रोना भावनाओं का एक्सट्रीम है, बुझने वाले दिए की आखरी लौ ! फीलिंग खत्म होने से पहले के इमोशन !<br />
<br />
यक़ीनन कुछ सालों बाद उसका स्त्रीत्व मर चुकेगा. वो प्रोफेशनली बड़ी तरक्की करेगी टच वुड ! पति से कोई वैमनस्य नहीं ! बच्चों को अच्छे संस्कार और पैसा दोनों दे पाएगी वो ! यानी ऊपर से देखने पर सब नोर्मल इन्फेक्ट, परफेक्ट ! <br />
...वो मुस्कुराएगी वही सोफेस्टीकेटेड ढंग से, पर खिलखिलाएगी नहीं. वो डान्ठेगी, पर लड़ेगी नहीं. वो सुनेगी और पोजेटेवली लेगी, वो रोएगी नहीं ! <br />
<br />
...ये अभी का रोना उसका, ज़ार-ज़ार 'स्टेप टू बी स्ट्रोंग गर्ल एंड कौन्सिक्वैन्टली अ स्ट्रोंग लेडी' है.<br />
<br />
उस लड़की की उदास आँखों के इर्द गिर्द कई झूठी सच्ची कहानियां बन सकती हैं.पर आप या मैं वो लड़की नहीं हैं. ये कहानियाँ भी वो लड़की नहीं है...<br />
पिता कैनेडा गए उसके तो किसी कैनेडियन से शादी कर ली. पर देशभक्ति नामक भावना का हस्तक्षेप हुआ तो भारत वापिस हो लिए. लड़की की माँ भी अन्फोर्च्युनेटली देशभक्त निकली. वहीँ रह गयी. देश दूर था तो वो सुहाना ढोल था, पत्नी दूर हुई तो वो सुहाना ढोल हुई...<br />
..अच्छी बात थी कि पत्नियां स्वदेश की तरह केवल एक होना आवश्यक नहीं था. लड़की के लिए एक गुजराती आया रख ली. शादी बहरहाल अभी नहीं की....<br />
...पिता कहते हैं कि पुरानी वाली को भूल जाओ. और नयी वाली को माँ कहो. <br />
...लड़की अब भी नयी वाली को 'मिस' कहती है,<br />
और पुरानी वाली को 'मिस' करती हैं...<br />
...उस लड़की की उदास कैनेडियन आँखें.</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-57170537054182602432011-10-27T01:14:00.001-07:002011-10-27T01:14:31.663-07:00...यही जुनूँ यही वहशत हो, और तू आए !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://gallery.photo.net/photo/6028333-md.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="211" oda="true" src="http://gallery.photo.net/photo/6028333-md.jpg" width="320" /></a></div><br />
कि मैं बहुत ऊँची मंजिल से गिरा हूँ, पर गिरने के रास्ते में कहीं भी 'हार्ट अटैक' नहीं हुआ. क्या कह सकता हूँ, कि मुझे फर्श के साथ संपर्क होने पर होश आया ! <br />
डर है कि मैं कितना ही पोजिटिव सोचूं पर नहीं ! ये दूसरी बार मिलना पहली-पहली बार मिलने की तरह कतई नहीं होगा, क्यूंकि मेरे पास तुम्हें प्रेम करने के, तुम्हें साथ जोड़े रखने और शायद वक्त के साथ साथ तुम्हें अपना विश्वास दिला सकने के तो कई मौके, कई कारण होंगे, पर कोई कारण ऐसा नहीं होगा कि तुमको भुलवा सकूँ पुरानी चीज़ें. और इसलिए... <br />
...और इसलिए, तुमको कोशिशें करनी होंगी, मुझे मालूम है, तुमको बहुत कोशिशें करनी होंगी उन सारी चीजों को भुलाने के लिए, उससे भी कहीं कहीं ज़्यादा जितनी की मुझे भुलाने के लिए कर रही थीं तुम कुछ दिनों से.<br />
यकीनन अगर पहली कोशिश सफल हुई तो ये भी होगी. और अगर पहली कोशिश असफल हुई है तो फ़िर क्वाईट ओविय्सली ये कोशिश तो बिना ज़्यादा कोशिश के सफल होगी !<br />
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<br />
आँखों में आंसू हैं, जिनका कोई मोल नहीं खुद की आँखों से भी देखूं तो भी. <br />
देखो ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अच्छी हो, कि अगर होती तो मुझे बताती कब तुम्हें मेरी जरूरत है, जैसे तुमने तब बताया था जब मेरे दूर के चाचा को 'शायद' मेरी जरूरत थी. कि तुम्हारे पास कई ऐसे सबूत हैं कि जब भी मैं प्रोवोक हुआ हूँ मेरी परफोर्मेंस बेस्ट रही है, 'युवी' यू सी ! 'राहुल द्रविड़' मैं नहीं हूँ. <br />
पर, फ़िर सोचता हूँ, तुम सही हो कि कोई बताता नहीं कि उसे तुम्हारी जरूरत है...<br />
<br />
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<br />
कि जब मैं जाना हूँ कि मैं दोषी हूँ ठीक उस वक्त तुम नहीं हो. नहीं ये तो मेरी एक्सक्यूज़ है... <br />
सही बात तो ये है कि तुम नहीं हो इसलिए जान गया हूँ... <br />
....सही बात तो ये है दरअसल ! <br />
अकेले होना भी दो तरह का होता है, एक वो जब आपके पास कोई भी नहीं होता, दूसरा जब सब होते हैं (या नहीं भीं हो कोई फर्क नहीं पड़ता, इट्ज़ बैटर इन्फेक्ट ) पर 'वो कोई एक' नहीं होता. <br />
कि जब आप पहले तरीके के अकेले होते है तब कोई भी आकर आपको खुश कर सकता है, पर दूसरी दशा में, नथिंग एल्स विल डू. टू बी मोर स्पेसिफिक, पहली स्थिति में आप बहाने ढूंढते हैं, व्यस्त रहने के, भीड़ में रहने के, टू गेट इनडल्ज़ विद... <br />
...दूसरी में आप बहाने ढूंढते हैं तन्हा रहने के, काम से बच निकलने के और बस अपने को कोसने के, कि या तो 'कुछ भी नहीं' या... या... स्साला... <br />
'कुछ भी नहीं'....<br />
<br />
मुझे इसलिए परेशान मत छोड़ो कि तुम भी तो इन चीजों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो. <br />
पर, फ़िर...<br />
मुझे इसलिए माफ़ मत करो कि तुम इन सब चीज़ों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो. <br />
_____________________________________________<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6l5ZDYbkqC8pCjtG0OTB5s5-5syG-RnXudobO_FyhNWaxzDkNjEKly2cXUYr3PtoEycy1xgp5GUQGUbOAcSqBUUh59RpXiPzdZbzfsse5ZFnMU3C9nzVpi_jrQyblMYoWREDLYROupUmZ/s1600/darpan.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" oda="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6l5ZDYbkqC8pCjtG0OTB5s5-5syG-RnXudobO_FyhNWaxzDkNjEKly2cXUYr3PtoEycy1xgp5GUQGUbOAcSqBUUh59RpXiPzdZbzfsse5ZFnMU3C9nzVpi_jrQyblMYoWREDLYROupUmZ/s200/darpan.png" width="163" /></a></div>_______________________________________________<br />
क्या किसी इंसान को केवल इसलिए छोड़ा जा सकता है कि उसने ढेर सारी गल्तियाँ की हैं और उसको कोई और इस तरह प्रेम नहीं कर सकता? फ़िर तो वो इन्सान यकीनन प्रेम किये जाने योग्य है ! <br />
...या तुम बस नाराज़ हो ? <br />
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<br />
ठीक है मैंने ही एक दिन कहा था "कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहती, नथिंग इज़ फोरेवर, एहसास भी नहीं, और प्रेम भी तो एक एहसास है." और तुमने कहा था कि ऐसा नहीं है, चित्रलेखा लिखने वाला भी कोई भगवान नहीं. मैं भी अब कहता हूँ कि दो इंसानों के ना चाहते हुए कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, दो इंसानों के रहते-रहते कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, उसके बाद भी नहीं. मेरे पास इसका कोई सबूत या इसका कोई लोजिक नहीं है पर तुम्हारी बातों पे अटूट विश्वास है, कि जो कभी तुमने प्रेम में रहते हुए कही थीं. मुझे तुम्हारे प्रेम पे विश्वास है.<br />
(उफ्फ कि, मैं माँ-बेटे या भाई-बहन के प्रेम का सबूत नहीं दे सकता.) <br />
<br />
____________________________________________<br />
<br />
एक बात जो मैं अपने लिए भी कहना चाहता हूँ, कम से कम एक बात कि मेरी नज़रों में तुम्हारे लिए प्रेम ख़त्म नहीं हुआ कभी, और यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कभी नहीं होगा. कभी नहीं... कभी नहीं...<br />
...तुम्हारी कसम ! (कि मैं अब झूठी कसम नहीं खाता तुम्हारी जो मेरे लिए मजाक थीं पर तुम्हारे लिए इनके मायने थे.)<br />
...तब भी नहीं जब मैं तुमसे नाराज़ था, तब भी नहीं जब मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाया. तब भी नहीं होता, कि अगर जो मैंने किया वो तुम करती. <br />
सबूत: अभी भी नहीं हो रहा देखो ! <br />
लेकिन दुःख तो यही है कि तुम कभी नहीं करती वो सब कुछ जो मैंने किया, तुम नहीं कहती वो सब कुछ जो मैंने कहा, तुम करती वो सब कुछ जो मैं नहीं कर पाया, तुम कहती वो सब कुछ जो मैं कभी कभी नहीं कह पाया...<br />
<br />
"मैं डरपोक हूँ, मतलबी हूँ, दोगला भी हूँ, उन सब लोगों की तरह हूँ जिनसे कभी तुमने नफ़रत** की थी."<br />
...ये तुमने कभी नहीं कहा ! किसी को भी नहीं कह सकती तुम ऐसी बातें दरअसल. **और किसी से नफ़रत कर भी नहीं सकती. <br />
पर क़ाश कहती !! पर क़ाश करती !! <br />
<br />
"मैं बहुत अच्छा हूँ, कि मैं सपना हूँ या सच, कि जैसे तुमने मुझे प्यार किया है वैसे अब तुम किसी को नहीं करोगी."<br />
क़ाश ना कहती !! क़ाश ना करती !!<br />
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<br />
बुरा था कि तुम रोती थी, बुरा है कि तुम रोती नहीं ! <br />
बुरा ये है कि, तुम अच्छी हो. बुरा ये है कि मैंने बहुत बहुत सारी गल्तियाँ करी ! अच्छा ये है कि तुम अब भी अच्छी हो, अच्छा ये है कि मैं जानता हूँ कि मैंने बहुत सारी गल्तियाँ करी ! सबसे अच्छा ये है कि तुम अब भी दूर नहीं हो, चाहे इससे पास आने की संभावना कम है. <br />
<br />
तुमने कहा था कि जब मैं तुमसे जुदा हो जाऊँगा तब मैं शायद एक अच्छा राइटर हो जाऊँगा.<br />
तुमने कहा था कि अच्छा लिखने से ज़्यादा अच्छा है खुश रहना. <br />
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<br />
तुम हमेशा-हमेशा खुश रहो ये मेरी दूसरी - प्राथमिकता है और हमेशा रहेगी, मेरे साथ खुश रहो ये मेरी प्रथम प्राथमिकता है, <br />
कि मेरी सेल्फ रिस्पेक्ट तुम हो तुम.<br />
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<br />
पर फ़िर भी जानती हो मुझे अपना लिखा सब कुछ जाया क्यूँ लग रहा है, <br />
क्यूंकि, जब बहुत कुछ करने की बारी आई थी तो ज़्यादा कुछ किया भी तो नहीं ! कारण कुछ भी रहे हों, <br />
क्यूंकि इन सब शब्दों में वो आ ही नहीं पा रहा, इन सब बातों में...<br />
आखिर एक बात, ज़्यादा से ज़्यादा कितना प्रेम, कितना अवसाद, कितनी शिद्दत, कितनी याचना अपने अन्दर ले सकती है, कोई एक बात जो कह दूं तुम्हें तो रो ही पड़ें दोनों फूट फूट कर. कोई एक बात जिससे सब बातें भुलाई जा सकें ? कोई एक बात जो बन जाए, इश्वर करे कहते कहते ही...<br />
...वो बात जिसमें 'मौन रहने' से भी ज़्यादा अभिव्यक्ति हो ?</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-67615750271802870102011-10-27T01:13:00.000-07:002011-10-27T01:13:36.882-07:00गेट कन्फ्यूज्ड टू गेट रिड ऑफ़ इट.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://images.fineartamerica.com/images-medium/the-confused-man-arianne-lequay.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320px" rda="true" src="http://images.fineartamerica.com/images-medium/the-confused-man-arianne-lequay.jpg" width="237px" /></a></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><span style="color: #444444; font-size: x-small;"><strong>Confused Man By :</strong></span><a href="http://fineartamerica.com/profiles/arianne-lequay.html"><span style="color: #444444; font-size: x-small;"><strong>Arianne Lequay</strong></span></a> </div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><br />
</div>हर एहसास, हर सोच, इतनी तात्कालिक/क्षणिक हैं कि उनके आगे (पीछे और उनसे अलग) हो जाना निश्चित ही नहीं तीव्र भी है. <br />
...खुद इन एहसासों से भी.<br />
किन्तु इस तात्कालिकता में 'अनिश्चितता' अथवा 'शंका' कहीं नहीं है. <br />
<div style="text-align: left;">ये अच्छा है या बुरा इसका विश्लेषण नहीं करना चाहता, लेकिन परस्पर विरोधी एहसास, सोच, विचार भी अपने-अपने सोचे जाने के समय में अपने प्योरेस्ट फॉर्म में होते हैं. </div>यानी जब कोई विचार होते/आते हैं तो उनके विषय में 'अंतरद्वन्द' नहीं होता, और यदि किंचित भी हुआ तो एहसास परिवर्तित हो जाते हैं और अपने नए रूप में भी शुद्ध रहते हैं.<br />
इस तरह से सोचने पर प्रत्येक 'नहीं' प्रत्येक 'शायद' एक नए विचार नई सोच को जन्म देता है. और किसी भी विचार को लेकर 'नहीं' रह ही नहीं जाता. <br />
मन कहाँ होता है नहीं जानता पर शायद इसको ही मन से सोचना कहते हैं. मन से सोचने की स्थिति मुझे 'नैसर्गिक' स्थिति लगती है, समर्पण की, हर उस विचार को उसकी तीव्रता के समय में 'एज़-इट-इज़' स्वीकार कर लेने की स्थिति. <br />
विरोध नहीं करते आप ! बहाव में रहते हो ! बाँध नहीं बनाते ! <br />
ये दरअसल उसी तरह है जैसे पहला आस्तिक इश्वर के विषय में बुरे/अन्यथा विचारों को अपने दिमाग/मन में आने ही नहीं देगा. ये 'नहीं आने देना' दरअसल नए विचारों की 'भ्रूण-हत्या' है, तालाब है पुराने विचारों का, कितना ही डिवाइन हो पर दुर्गन्ध युक्त. <br />
...ये शंका है अपने विचारों के प्रति और कौनसीक्वेंटली इश्वर के प्रति. <br />
वहीँ एक दूसरा आस्तिक, हो सकता है किसी एक क्षण में इश्वर की सत्ता को नकार ही दे, पर ये नकार देना वापसी का माध्यम होगा. उसे सदैव ज्ञात रहेगा की यदि वो विचार अस्थाई थे, तो ये भी अस्थाई होंगे. <br />
पहली तरह से सोचने पर एक ही समय में दो विचार द्वन्द करते हैं. एक वो मेक्रो विचार जिसपर हमारी 'आस्था' है (मैं इसे इम्पोज्ड आस्था कहूँगा, वो सेल्फ इम्पोज्ड भी हो सकती है.) और दूसरा वो माइक्रो विचार जो उसका विरोध कर रही है. पर दूसरी तरह से सोचने पर दो विचार आ ही नहीं सकते. और किसी निश्चित समय में, या एक निश्चित समय-अंतराल में एक और केवल एक विचार पर अटूट आस्था होती है. <br />
विचार ख़त्म, आस्था ख़त्म... <br />
या <br />
...आस्था ख़त्म विचार ख़त्म. <br />
गिव मी सेकंड थॉट नाऊ ! <br />
मेरे अनुसार विचारों में स्थायित्व ना होना पूर्ण स्थायित्व का ही प्रथम सोपान है. जिस चीज़ और जिस विचार को आप पूर्व में सोच के नकार चुके हो उसके पुनः आने का कोई प्रश्न ही नहीं, आप उससे आगे बढ़ चुके हो दरअसल या उससे अलग हो चुके हो कम से कम. और यदि वो बिसरा विचार पुनः आता है भी तो या तो वो आता है उसपे हंस सकने के लिए या वो आता है अपने नए आयामों नए प्रश्नों के साथ. <br />
जैसे आप वैकल्पिक प्रश्न में निश्चित हैं कि बाकी के ३ उत्तर तो ग़लत ही हैं, आपको सही उत्तर नहीं पता होने के बावजूद आपने उसका पता लगा लिया ग़लत उत्तरों का विश्लेषण करके. <br />
टू डिनाई समथिंग रोंग, यू नीड टू अंडरस्टैंड दी रोंगनैस इनसाइड आउट.<br />
केवल प्रेमिका के विषय में ही नहीं विचारों के विषय में भी यही सत्य है, 'लेट हर फ्री, इफ शी इज़ यौर्ज़ (शी) विल कम बैक."<br />
दरअसल मन में प्रश्न आना एक ऑविय्स प्रोसेस है, और उनके उत्तर ढूंढना एक 'आवश्यक प्रोसेस'.<br />
<br />
किसी व्यक्ति, संस्था, विचार अथवा कॉन्सेप्ट को लेकर मेरे विरोध सदैव ही समर्थन के हेतु रहे हैं. या तो मैं नए/आपके विचारों से सहमत हो जाऊँगा, या फ़िर मेरे खुद के विचार और पुष्ट होंगे. (वैसे 'पुष्ट' होना भी एक ग़लत शब्द है, 'अगले विरोध तक पुष्ट होंगे' टू बी मोर स्पेसिफिक. ) <br />
यही एप्रोच मेरी अंतर्द्वंद को लेकर, अपने विचारों को लेकर भी रही है. इट'ज़ नॉट पोसिबल वाली नहीं लेट'स सी व्हट कम नेक्स्ट वाली. तो यदि दो अलग समय में दो अलग/परस्पर विरोधी विचारों का समर्थन करता पाऊं अपने आप को तो इसे पुराने विचारों के साथ 'बेवफाई' नहीं नए विचारों के साथ 'टूटकर प्रेम किया जाना' कहूँगा. <br />
<br />
पुनःश्च : जो कुछ भी मैं लिख गया कल उसको पढ़ते हुए मैं मुस्कुरा सकता हूँ, पर अफ़सोस नहीं करूँगा कि मैंने ये लिखा. क्यूंकि इसे लिखे का एक्सक्यूज़ भी इसी में है. <br />
<br />
</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-4611495234274806722011-10-18T19:37:00.000-07:002012-01-04T06:08:06.851-08:00हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कई तो ऐसे ही चले गए थे, बिना इस दिन का इंतज़ार किये. वो भाग्यशाली रहे थे कि उनको अपमान के ये कड़वे घूंट जो नहीं पीने पड़े. वे जो अब तक जा चुके थे, वे सब, एक एक कर कभी, या कभी दो-तीन के झुण्ड में रुख्सत हुए. शायद उन्हें अंदेशा था कि एक ऐसी रात आएगी ही. <br />
<br />
सब यहाँ मजबूरी के मारे ही तो आये थे, कुछ तो ऐसे थे जो खुद नहीं आ सकते थे यहाँ, इसलिए लाये गए थे या पहुंचा दिए गए थे. हममें से कुछ मेरे जैसे भी थे, जो यहाँ किसी को पहुँचाने आये थे और फिर खुद भी यहीं रह गए थे. <br />
लेकिन पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे. ऐसा नहीं था कि उन जाने वालों के पास बहुत से विकल्प हों. पर शायद, जैसा कि आप जानते हैं, उनको ‘ऐसा कुछ होने वाला है यहाँ’ इसका अंदेशा हो गया था.<br />
और उन्होंने यही सोचा कि बाहर निकल कर कोई न कोई सहारा तो मिल ही जाएगा. <br />
<br />
बूढ़े के व्यवहार में परिवर्तन तो अचनाक ही आया, बस हुआ ये कि उसकी तासीर धीरे धीरे ही शबाब चढ़ी. नहीं तो आज से कुछ रोज पहले कोई बाहर का उसके बारे में हममें से किसी से पूछता, तो बताने वाला चाहे कितना ही धूर्त, एहसान-फरामोश या जालिम क्यूँ न होता वो इस बूढ़े के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द कभी न निकालता...<br />
...’माननीय’ या ‘श्री’ के बिना तो उस बूढ़े का नाम हम उसकी अनुपस्थिति में भी नहीं लेते थे कल तक. किन्तु परिस्थितयां... <br />
<br />
<br />
आज जब वो धक्के मार कर हम बचे हुए लोगों को बाहर निकाल रहा था, जब लगभग सभी लोग उसे भद्दी भद्दी गालियाँ और उलहाने देने में लगे हुए थे चिल्ला चिल्ला कर...<br />
<br />
...और जब हमारा, हम कुछ बच गए लोगों का, समूह इस बूढ़े से अपमानित हो रहा था, तभी किसी धूर्त बुद्धिजीवी ने अपना चमकता हुआ चाकू दिखाते हुए राय दी,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”<br />
कोई दूसरी डरपोक स्त्री कहती, “मरने दो बूढ़े को अपने आप. कोई नहीं पूछने आएगा अब इसे. कीड़े पडेंगे इसे, कीड़े.” और जब वो ये सब कह रही थी तब भी उसके मन में आशा थी कि ये बूढ़ा जब पागलपन के इस दौर से गुजर चुका होगा फिर हमें वापिस बुला लेगा, और तब हम उसे क्षमा कर देंगे.<br />
कुछ लोग जो थोड़ी सदाचारी थे, या बूढ़े के पिछले परोपकारों के कारण सदाचारी हो गए थे, उन्होंने मेरी तरह इस अपमान को मौन रहकर स्वीकार किया.<br />
“कुछ ही रोज में अपना सारा पुण्य मटियामेट कर दिया इसने.” उन सदाचारियों में से किसी को ये फुसफुसाते सुना था मैंने. (सदचारी चिल्लाते नहीं, या जो चिल्लाते या गरियाते नहीं वही सदाचारी कहलाते हैं ऐसा मुझे आज पता लगा था.)<br />
कोई मुश्किल नहीं था, उस बूढ़े का आज हममें से कोई भी क़त्ल कर सकता था, बस थोड़ी सी उस बूढ़े के लिए घृणा के भाव का संचार होना शेष था. पर पता नहीं क्यूँ उसके इस कृत्य से हममें उस बूढ़े के लिए घृणा नहीं दया का भाव उत्पन्न हो रहा था.<br />
उसके हमारे पीछे-पीछे चलते हडबडाते कांपते पैर, उसका हमें धक्का देते वक्त देर तक हमारे कन्धों से हाथ न हटाना, और चिल्लाते वक्त उसके थूक में सने हुए अनर्थक शब्द समूह....<br />
<br />
कक्क... दद्द... घघ्घ.... <br />
<br />
....ये सभी कुछ स्थिति भयावह नहीं दयनीय बना रहे थे. नहीं तो आप तो जानते ही हैं खून करना इतना मुश्किल भी नहीं है.<br />
...ठीक उस वक्त मैंने मन ही मन कामना की कि उस बूढ़े कि आँखों में एक बूँद आंसू देख सकूँ, जिससे कि मेरे मन में बाद में भी उसके लिए थोड़ी बहुत श्रद्धा रहे, और जिससे कि कभी अपने को समझा सकूँ “वो ऐसा नहीं था, कोई मज़बूरी रही होगी उसकी.” <br />
और तब मैंने उससे आँखों आँखों में पूछ लिया कि वो ऐसा क्यूँ कर रहा है ? नहीं उसपे अब इतना हक था हमारा (ऐसा हमें तो लगता ही था कम से कम) कि मेरी आँखों ने, जो अब तक इतने सारे अपमान को सहने के कारण बाकियों की तरह ही नम हो चुकी थीं, उससे एक दूसरा ही सवाल पूछा, <br />
“वो ऐसा कैसे कर सकता है?” <br />
इस सवाल का ज़वाब उसकी पथराई आँखों ने बड़ी निष्ठुरता से दिया, “मेरी मर्ज़ी ! आखिर ये घर मेरा है, तुम्हें रख सकता हूँ अगर तो तुम्हें निकाल भी सकता हूँ. खुद से नहीं निकलोगे तो ऐसे ही निकाले जाओगे, धक्के मार कर.”<br />
<br />
<br />
और जब हम पूरी तरह से बाहर निकाले जा चुके थे हमने देखा कि पिछले दिनों जो घर से खुद-ब-खुद गए थे, उनमें से कई बाहर बैठ के, सो के या खड़े होकर किसी चीज़ के हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे. आप तो जानते ही हैं मजबूरी का दूसरा नाम आशा होता है. <br />
उन्हें भी हमारी तरह ऐसा भान था कि बेशक वो घर से बाहर गए हैं, पर परिस्थितियां अभी भी घर के अंदर ही हैं. <br />
उन्हें दुःख था हमारे बाहर निकलने का, कि उनकी आशाएं हम कुछ अंदर रह गए लोगों को लेकर ही थी. <br />
उन्हें खुशी भी थी हमारे बाहर निकलने की, क्यूँ ? ये तो आप बताने की आवश्यकता ही नहीं है. <br />
<br />
और जब हम सब लोग समूह में बाहर निकल रहे थे हम सब मौन थे, सबके मन में बूढ़े के लिए अलग अलग विचार थे, जो एक दूसरे के विचारों से अलग ही रहे होंगे. ये आप समझ सकते है कि मुझे नहीं पता था बाकी सब बूढ़े के बारे में क्या सोच रहे हैं. पर क्या आप नहीं जानते कि सबके मन में एक ही प्रश्न था बस, कि उसने ऐसा क्यूँ किया आखिर? <br />
हम निरुद्देश्य और बिना किसी मंजिल के हो चले थे और हम कहीं को भी जा सकते थे. और तब हमने पश्चिम की ही ओर चलना तय किया, तय भी क्या किया बस चल पड़े. भीड़ ज्यादा होने के कारण हमारा आत्मविश्वास लौट रहा था. और तब जबकि हम केवल उस बूढ़े के बारे में सोच रहे थे, हम मौसम, व्यापार और लजीज पकवानों के विषय में बात करना शुरू कर चुके थे. अच्छा था कि हम सब उस ‘अपमान’ को भुला देना ‘चाहते’ थे.<br />
तभी कुछ ऐसा घटा कि उस ‘डिवाइन-अपमान’ की याद ताज़ा हो आई हमारे ज़हन में.<br />
दूर से आते हुए उस आदमी को ये कहते हुए सुना हमने कि <br />
“अरे सुनो तुम्हारा वो कथित इश्वर, वो बूढ़ा, सनकी हो चला है सुना?”<br />
वो दरअसल यही पूछने या बताने हमारे पास आया था...<br />
क्या आप जानते हैं तब मैंने क्या किया? वही जो बाकी के सहयात्री करना चाहते थे और निम्न क्रम में...<br />
१) सबसे पहले मैंने बूढ़े द्वारा अपमानित होने को याद किया.<br />
२) फिर अपनी मुट्ठी भींची. <br />
३) फिर उस धूर्त की ये बात याद की कि,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.” <br />
४) वो खंजर धूर्त से माँगा, आग्रह-पूर्वक, क्यूंकि मैं कोई हड़बड़ी करके इसे जोश में आकार किया हुआ कृत्य नहीं सिद्ध करना चाहता था. <br />
५) और चूंकि में इसे कोल्ड ब्लडेड मर्डर सिद्ध करना चाहता था इसलिए मैंने ‘आव’ और ‘ताव’ दोनों देखा और वो खंजर बहुत धीरे धीरे सवाल पूछने वाले के पेट में चुभा दिया.<br />
<br />
इस घटना ने हमें पिछली घटना भुलाने में बड़ा योगदान दिया. और हम खुशी के मारे नाचने गाने लगे. हमको खुश होने के, बल्कि यूँ कहिये उन्माद में रहने के कई कारण अब मिल गए थे. हमें पता था कि इस सवाल पूछने वाले का घर आस पास ही कहीं है, और वहाँ भी हमारी तरह ही ‘नाउम्मीद’ लोगों का बसेरा है. <br />
तो, जी हाँ आपने सही अनुमान लगाया, अगली अल-सुबह हमने उस घर को भी तोड़ दिया, वो ऐसा ही कोई दिसम्बर का सर्द दिन था. <br />
और उसकी अगली रात शहर भर में दंगे अपने शबाब पर थे, हमारे पास और कोई काम नहीं बचा था और कोई हमें रोक नहीं रहा था. लेकिन हम लोग केवल मारने वाले ही नहीं थे मरने वालों में भी हमारा शुमार था. <br />
<br />
और जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ, हमारा बूढ़ा, उसने हमसे मुंह फेर लिया था. नहीं तो क्या था, बिना हिम्मत, बिना ताकत के भी अगर वो बूढ़ा हमें रोक लेता तो क्या हम नहीं रुकते? <br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
...<b><i>कई साल बीत गए हम अब भी उस बूढ़े के बुलावे का इंतज़ार कर रहे है. आज भी हमारी उस बूढ़े के प्रति वो श्रद्धा रह रह कर हिलोरे मार ही लेती है.</i></b> </div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-82945551764118388772011-06-23T00:05:00.001-07:002011-06-23T00:07:37.263-07:00क़र्ज़ में डूबे लोगों के लिए आत्महत्या एक ऐसा इंश्योरेन्स है जिसका प्रीमियम भरने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">हुआ यों होगा कि आपने मार्केट से दो लाख रुपये उठाये होंगे और उसको शराब जुएँ या और अय्याशियों में खर्च दिया होगा. रुपये खर्च करना सांस लेने से भी ज़्यादा आसान बना दिया गया है अब. चुकता करना मौत से भी मुश्किल. </div>सबूत : आत्महत्या ! <br />
तो आपने झूठ ही लिखा होगा कि आपका पैसा मार्केट में डूब गया. भला मार्केट का पैसा मार्केट में डूब सकता है? <br />
-गणितीय आधार पर नहीं. 2-2=0 <br />
-अर्थशास्त्र के आधार पर भी नहीं. उसके आधार पर तो पैसा डूबता नहीं घूमता है. जितना घूमता है उतना बढ़ता है. <br />
-दर्शन-शास्त्र के आधार पर भी नहीं (तुम क्या लेकर आये थे...) <br />
तो फिर आपको झूठ लिखने की ज़रूरत क्या पड़ी? मौत के बाद किस चीज़ का डर? बदनामी का? प्री डेथ स्टेटमेंट (सुसाइड नोट भी) एक अकाट्य साक्ष्य माना जाता रहा है. इसलिए नहीं कि मरने वला आदमी झूठ नहीं बोल सकता. (जो ज़िन्दगी को झूठा साबित कर दे वो क्या कुछ झूठ नहीं कह/कर सकता. और "बदले की भावना से हत्या ही नहीं आत्महत्या भी तो की जा सकती है" ये ?) बल्कि इसलिए कि 'ऐसा भी तो हो सकता है' का पता लगाना मुश्किल है. क्यूंकि आत्महत्या डूबे हुए जहाज में सभी 'जीवित' लोगों के मर जाने सरीखा है. "उसकी मौत के साथ उसके राज़ भी दफन हो गए". <br />
<br />
हाँ तो आपने एक 'देशी कट्टा' की नली भेजे में रखी.अपने भेजे में. आँखें बंद की. भींच के. मानो आप शोर 'देखना' न चाहते हों.ट्रिगर में बीच वाली ऊँगली रखी. उस हाथ की जो रॉक-सौलिड हो गया है इस वक्त. ये वही हाथ था न जो तस्करी का कट्टा खरीदते वक्त काँप रहा था. हाथ क्या? तब तो आपका पूरा शरीर ही काँप रहा था.<br />
...जब पहली बार आपने इस भारी सी चीज़ को अपने हाथ में लिया था. गंदे कपड़े से लिपटी हुई, बिना यूजर मैनुअल के.बाहर ही से उसके सारे कोण, सारे आयाम नाप लिए थे अविश्वास के स्पर्श से. "मेरे हाथ में भी कभी ये चीज़ आ सकती थी ?" आपने ना उसके इस्तेमाल का तरीका पूछा ना ये पूछा कि वो भरी हुई है या खाली? "आदमी घड़ा भी खरीदता है तो ठोक बजाकर." और फ़िर ये चीज़? इसे तो आप ज़िन्दगी में पहली बार खरीद रहे थे. और शायद अंतिम बार भी. आप तो शायद कुल जमा किसी भी चीज़ का सौदा अपनी ज़िन्दगी में अंतिम बार कर रहे थे. इससे पहले आपने क्या ख़रीदा आपको याद है? <br />
<br />
हाँ ! अपने बेटे के लिए लिलिपुट से सिक्स पॉकेट जींस (साला इतने से कम में कहाँ मानता है वो?) और अपनी वाईफ के लिए स्टोन वाली पायल (बेचारी वो तो इतने में ही खुश ). बहरहाल फ़िर भी ये घड़ा जैसा कोई सौदा तो था नहीं, जिसको आप ठोक बजाकर, जांच परख कर लें. ये 'चीज़' तो इन्फेक्ट 'आपको' जांच परख रही थी. वेदर यू डिजर्व इट ऑर नॉट !<br />
<br />
बाई द वे...<br />
वो हाथ ! जो उसे खरीदते वक्त काँप रहे थे....<br />
...क्यूँ? <br />
कोई देख ना ले? पुलिस? मुखबिर? जान पहचान वाला? "मरना ही है तो साला बदनामी का क्या डर?" नहीं भाई सा'ब ऐसी बात नहीं है अगर आपको बदनामी का डर ना होता तो आप अपने सुसाइड नोट में अपनी अय्याशियों कि बात ना करते ? लेकिन आप तो कहते हैं कि मार्केट में डूब गया आपका पैसा. आपको मौत का डर नहीं रहा बेशक, पर बदनामी का डर नहीं ये मत कहिये. 'आत्महत्या' और बात है 'बदनामी का डर' और. <br />
...हाँ ! ये ! आप तसल्ली से मरना चाहते थे. सुकून की मौत. कम से कम अपने शर्तों पे. आपने ज़िन्दगी जब अपनी शर्तों से गुज़ारी है (तभी तो ये सब हो रहा है आपके साथ. तभी... ) तो मौत भी अपनी शर्तों से ही आनी चाहिए. <br />
<br />
हाँ तो वो हाथ...<br />
अभी बिल्कुल नहीं कांपते ! अगर कांपते होते तो आप आत्महत्या थोड़ी ना कर पाते. क़त्ल करना और क़त्ल हो जाना दोनों एक साथ? जिगरा चाहिए भाई सा'अब जिगरा. येएए... बड़ा ! ये सब कुछ और इससे भी कहीं कुछ ज़्यादा तो आप पहले से ही सोच चुके हैं. दो तीन दिन से सोच ही क्या रहे हैं और आप? <br />
<br />
बस बहुत हो चुका बहुत टाल चुके, कहीं वॉश रूम की सफाई करते वक्त आपकी वाईफ (आप वाइफ ही कहते हैं उसे. है ना ?) को पता चल गया तो ? वैसे भी घर की सफाई किये हुए कई दिन हो चुके हैं. कर्जे वाले घरों कि सफाई आमतौर पे 'डेली बेसिस' पे होती भी नहीं. <br />
<br />
नहीं ! अब और नहीं टाला जा सकता. बेटे को जींस दे दी. और, एक महीने का राशन आ गया है.और, बीवी की नौकरी लग ही गयी, और, उसके लिए स्टोन वाली पायल ले ही दी.और और...<br />
...हाँ !सुसाइड नोट... <br />
नहीं... उसे लिखे की जरूरत कहाँ है? क्यूँ इतना समय ले रहे हैं आप? जितनी देर करेंगे उतना मन कच्चा होगा आपका .साढ़े सात सौ रुपये कम नहीं होते इस... इस... बकवास चीज़ के लिए. जो ज़्यादा दिनों तक घर में रह भी नहीं सकती. <br />
<br />
फ़िर भी एक सुसाइड नोट तो जरूरी ही है. जिससे आपके परिवार वालों पर कोई आंच(?) ना आए... <br />
...इट्स अ सिम्पल केस ऑव सुसाइड.<br />
<br />
क्या लिखेंगे आप? "मैं अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी कर रहा हूँ?" हद्द है ! 'ख़ुदकुशी' भी भला कोई दूसरों की मर्ज़ी से करता है? आपने ठीक ही किया इस लाइन को काट दिया. मैं तो कहता हूँ कि दूसरा पन्ना ले लीजिये . लोग क्या कहेंगे ? मरते वक्त भी कन्फ्यूज्ड था साला. ना ना 'साला' नहीं कहेंगे. मरने वाले की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं. मरने वाले की ही तो लोग इज्ज़त करते हैं. <br />
हाँ ये ठीक रहेगा... <br />
"मेरी मौत का कोई दोषी नहीं." <br />
कैसे कोई दोषी नहीं? <br />
वो पब का मालिक. वो ऑफिस का बॉस. वो बैंक की कस्टमर केयर अधिकारी (हरामजादी), मकान मालिक, सब्जी वाला, शेयर मार्केट,राजेश, सुरेश, पेप्सी, कोक, ब्लैक बैरी, मेट्रो, ब्लू लाइन, रेड लाईट, ट्रैफिक ज़ाम, ऐश्वर्या, शीला की ज़वानी, भ्रष्टाचार, संसद, इंडिया टी. वी. , गूगल, ट्विटर...<br />
..सब ! इनमें से सब थोड़े थोड़े दोषी हैं. एक भी चीज़ , एक भी चीज़ कम होती इनमें से , हालात ऐसे ना होते आपके !<br />
...ये सुसाइड नोट लिखना तो वरदान ही साबित हुआ आपके लिए (मौत का वरदान. हा !) सब से बदला ले लें. सब से... <br />
सुसाइड नोट के नीचे दस्तखत करना जरूरी है क्या? कर दीजिये . टू बी ऑन अ सेफर साईड. <br />
<br />
ये लो अभी तक आपने कपडा भी नहीं हटाया था? साली इसकी जांच भी तो नहीं कर सकते ना आप? क्या कहा था उस दल्ले ने? एक बार 'फाईर' करने के बाद दूसरा 'फाईर' आधे घंटे बाद. क्यूंकि हाथ में फटने कि कोई 'गारमटी' नहीं. लेकिन पहले फाईर की 'फुल्ल गारमटी'.<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><strong><span style="color: #660000;">-XXX-</span></strong></div><br />
<br />
आप अब भी यकीं नहीं कर पा रहे ना ये सब जो आप करने वाले हैं? अच्छा ही है आपके लिए. सच 'रॉकेट साइंस' सरीखा है और भ्रम के लिए 'रॉकेट' की आपको क्या ज़रूरत. चाहो चाँद में पहुँच जाओ ! मुगलते में ही रहो, मरने के लिए बड़ा काम आता है.<br />
...और क्या नहीं तो इतना आसान होता ट्रिगर दबाना? वो एक पल, वो एक अंतिम पल...<br />
ज़िन्दगी और मौत के 'ठीक' बीच का. जब आपको पता है की ये पल 'अमुक' पल है. इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...<br />
(आपको अपनी बीवी की एक पुरानी बात पे भी हँसी आती है: देख लेना जब में नहीं होउंगी तब मेरी वकत पता चलेगी. जान, वकत तो पता बेशक लगेगी लेकिन तुमको ये बात कैसे पता लगेगी? ) <br />
<br />
इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...<br />
ये ज़िन्दगी जो आपने जी है... (क्या फर्क पड़ता अगर पैदा होते ही मर जाते. या पैदा ही ना होते? क्यूंकि जो जिया वो तो साला एनीवे बीत चुका. टू फिलोस्फिकल हाँ? हो जाता है आदमी, मरते वक्त फिलोस्फिकल भी हो जाता है. )<br />
<br />
ये कपड़े जो आपने पहने हैं...<br />
<br />
वो बहसें... राजनीती से लेकर मोबाइल हेडसेट तक. (क्या फर्क पड़ता है 'सिम्बियन' हो या 'एंडरोइड'? नहीं ! फिलोसफी कि बात नहीं. एक दो फीचर ही तो कम ज़्यादा होने थे...) <br />
<br />
वो मूवीज़... (आप सुनिश्चित नहीं कर पा रहे कि रिवाल्वर सीने से लगायें या भेजे से ? ज्यादातर मूवीज़ में तो भेजे से ही लगाते हैं... ) <br />
<br />
वो शहर जो आपने घूमे हैं... (आउट ऑव स्टेशन जाना भी मौत ही है, एक शहर के लिए. आप एक वक्त में दो जगह नहीं हो सकते. और एक वक्त में एक और केवल एक ही जगह कि घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं. अब होगा इतना कि आप किसी भी जगह कि घटनाओं को प्रभावित नहीं कर पाइयेगा. इस घटना को छोड़कर ऑफ़ कोर्स... ) <br />
<br />
वो मॉल जहाँ से आपने अपने पाँच साल के बेटे और चार साल की वाईफ के लिए शॉपिंग कि है... (साले हैं तो शैतान ही दोनों चाहे कुछ भी कहो... पर पिछले चार पाँच दिनों से दोनों गुमसुम रहते हैं, मार भी तो बहुत खाता है बड़ा वाला आजकल...)<br />
<br />
ना ना मत सोचिये बेड़ियाँ है ये सब. माया ! बंधन !! मोह !!! मानव की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं ये...<br />
<br />
वो शादी की पहली सालगिरह, वो दो हज़ार सात की दिवाली... <br />
याद भी साली, कितनी ही बुकमार्क करके रख लो, कितना ही उनके ऊपर 'मोस्ट इम्पोर्टेंट' लिख लो आयेंगी बेतरतीब ही, शादी याद नहीं आ रही आपको, पर पहली सालगिरह ज़रूर याद है, और दिवाली भी देखो 'दो हज़ार सात की', ऐसी क्या ख़ास बातें थीं इन दिनों में? यकीनी तौर पर नहीं कह सकते ना आप, <br />
<br />
आप महत्वपूर्ण लम्हे रिकॉल करना चाहते हैं, और याद क्या आता है आपको? काम वाली के साथ आपकी बीवी की साधारण सी (बहुत साधारण सी) नोक झोंक, बेटे का बैट हाथ में लेकर किसी शाम अन्दर घुसना, वो अचार के मर्तबान जिनको आपकी वाईफ बार बार ऊपर नीचे करती है. एक धुन सी सवार है उसे भी... पिकलो-मिनिया???<br />
<br />
वो 'आलस' के 'जोश' में आकर एक दिन यूँ ही ऑफिस ना जाना...<br />
..और? ...और? <br />
हाँ... अब मिला सिरा... उसके अगले दिन से कभी ऑफिस ना जाना. बिजनेस के लिए रात दिन प्लान आउट करना. अपने बिजनेस के लिए ! वो आत्मविश्वास (आप तो अब भी उसे ओवर कॉन्फिडेंस नहीं मानते ना?), वो शुरुआत की छोटी छोटी असफलताएं, वो बाद की बड़ी बड़ी सफलताएं, वो शुरुआत के छोटे छोटे क़र्ज़, वो बाद के बड़े बड़े (क्वाईट ऑव्यस) क़र्ज़....<br />
....<br />
....<br />
....आप ये क्यूँ भूल गए की एक गोली चलने के बाद दूसरी गोली आधे घंटे बाद ही चलानी थी? वो तो कट्टा ही अच्छा था, हाथ में नहीं फटा आपके. <br />
<div style="text-align: left;">...बहरहाल कॉग्रेट्स !</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: center;"></div></div></div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-44717168355785211052011-05-18T06:54:00.001-07:002011-05-18T06:54:42.361-07:00म्माज़ बॉय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">लोगों के लाख कहने के बाद भी मैं नहीं मानती कि उस दिन मैं पागल हो गयी थी. क्यूंकि यही लोग साथ साथ इसे मेरा बचपना भी ठहराते हैं. और मैं मानती हूँ कि बचपन में पागल नहीं हुआ जा सकता. </div>घर से कौन लड़की नहीं भागना चाहती भला? पापा बेशक तुममें (चाहे तुम लाख कहो) इतनी हिम्मत नहीं थी की बचपन में पैदा होते ही मुझे मार सकते पर वो बड़ा हिम्मत वाला निकला और जैसा मैंने सोचा था, उस वक्त अचानक मुझे अपने घर में देखकर भी वो डरा नहीं. <br />
...तब जबकि उसे मुझे लेकर कहीं भाग खड़ा होना चाहिए था.<br />
मुझसे उलट एक बहुत अच्छा इन्सान था वो, अपने माँ बाप का आज्ञाकारी ! ख़ास तौर पर अपनी माँ का... <br />
'म्माज़ बॉय' <br />
<br />
पापा तुममें मुझे रोक सकने की ताकत नहीं थी. पर उसमें मुझे खींच के घर तक लाने की ताकत थी. 'सकुशल' . <br />
अगर मेरा रोना चिल्लाना गिड़गिड़ाना मेरे जिन्दा होने का सबूत था तो यक़ीनन 'सकुशल'. <br />
जैसे बिना कुछ बोले अपने घर से चली आई थी वैसे ही चुपचाप उस वक्त मैं उसके घर से चली आई थी उसके साथ... <br />
...बिना विरोध किये. <br />
मुस्कुरा रही थी... <br />
...मन ही मन.<br />
....कितना बड़ा नौटंकी है, अभी देखो बाहर जाकर मुझे गले लगा लेगा. जैसे पहले कभी लगाया था. और किसी रोमांटिक मूवी के अन्त की तरह क्रेडिट्स शुरू होने से पहले, ठीक द बिगनिंग के नीचे अपनी बाइक के पीछे से जस्ट मैरिड का बोर्ड लगाकर किसी अनजान शहर में मुझे पीछे बैठकर घूमेगा. जहाँ मुझे स्कार्फ से मुंह ढकने की जरूरत नहीं होगी.फ़िर मैं सलवार-कमीज़ वालियों की तरह दोनों पांव एक तरफ़ करके बैठा करुँगी. करने दो नाटक अपनी माँ के सामने. ऐसे नाटकों को खूब जानती हूँ मैं उसके. कितनी ही तो लडकियों से करता था वो ऐसे कितने ही तो नाटक...<br />
'प्रैंक्स'.<br />
<div style="text-align: left;">और हाँ ! मैं ये भी जानती हूँ कि मैं उन कितनी ही में से नहीं थी. मैं 'समवन स्पेशल' थी और सब 'टाईम पास'. मैं 'रेड रोज़' वाला रिश्ता थी. बाकी सब 'यल्लो'. </div>मैं उसके थप्पड़ों से नहीं रो रही थी न ही अपनी होने वाली सास की जली कटी सुनकर. मैं तो उसके निर्देशित नाटक में एक अदना का रोल प्ले कर रही थी. हाँ पर उसके थप्पड़ों से जो आँसूं ढुलके उससे मेरा अभिनय जीवंत हो उठा था. एंड द बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड गोज़ टू.... <br />
...सच का रोना गिड़गिड़ाना तो तब शुरू हुआ जब वही सारे मोड़ फ़िर से घूमे जा रहे थे...<br />
...वो मोड़ जिनको मैं हमेशा के लिए छोड़ आई.<br />
...सच बताऊँ पापा? उस वक्त मुझे तुम लोगों से ज़्यादा अपनी चिंता हो रही थी. बस मैं घर वापिस आना ही नहीं चाहती थी, और उस दिन पता चला कि लडकियाँ इतनी असहाय इसलिए होती हैं क्यूंकि उनके पास विकल्पों की कमी होती है. और मेरा एक विकल्प जो कि मेरा खुद का घर था ख़त्म हो चुका था पर कहाँ पता था कि वही एक विकल्प तो है बस इसके बाद. <br />
जो एक मात्र विकल्प सोचा था वो तो हमेशा के लिए ख़त्म !<br />
और जहाँ जितने कम विकल्प होते हैं उतनी ही उम्मीदें ज़्यादा. <br />
लगता था अब भी 'प्रेंक्स' खेल रहा है. अभी... ठीक अभी... कोई एक अनजाना मोड़ लेगा. और फ़िर... और फ़िर...<br />
...फुर्र्र ! <br />
उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए अपने गीले चेहरे को उसकी पीठ में रख लिया था मैंने. उसकी गालियाँ भी बड़ी मीठी लग रही थी मुझे.<br />
जैसे उसके किसी सरप्राइज़ देने से पहले आँख बंद कर लेती थी मैं वैसे ही आँख बंद कर ली थी. मुझे पता था वो मुझे डरा रहा है... <br />
..ठीक ठीक कहाँ और किस मोड़ पर अपने पर दया आई और ज़ोर का रोना ? याद नहीं. <br />
शायद मोड़ यक़लखत आए और रोना आहिस्ता आहिस्ता. <br />
मैं बाइक से कूद जाती पर अभी मैं सलवार कमीज़ वाली लड़कियों की तरह नहीं बैठी थी...<br />
<div style="text-align: left;">..सच बताऊँ पापा उन मोड़ों से गुज़रते हुए, तब जबकि मौका भी था और दस्तूर भी , मुझे मोड़-मंजिल-सफर से जुड़ा हुआ कोई फलसफा याद ही नहीं आ रहा था. </div>मुंझे पता लग चुका था कि अंतिम बार उसके साथ बाइक में बैठ रही थी मैं . और ये पहली बार था जब उसके साथ बाईक मैं बैठने पर डर नहीं लगा. क्यूंकि अबकी बार वो रियर मिरर में मुझे नहीं घूर रहा था. उसका ध्यान ट्रैफिक में और अपने होर्न में था. वो सच में मुझे लेकर बहुत परेशान था. <br />
... अभी आप पूछोगे भी तो याद नहीं कर पाऊं मैं 'तब' क्या कह रही थी पापा ? हाँ ! घुटी घुटी आवाज़ में तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो ये तो पूछा ही था मैंने या शायद यही पूछते पूछते रास्ते भर आई थी वापिस उसके साथ. <br />
ख़ुशी, दुःख डर और अनहोनी में से कौन से आंसू रो रही थी नहीं बता पाउंगी मैं. सच, एक पल में चारो विपरीत चीज़ें सोची जा सकती हैं.<br />
<br />
माँ मैंने तुझे नहीं मारा जैसा की पिताजी कहते हैं.मेरे आने से ठीक ५ मिनट पहले तेरा गुज़र जाना बस एक को-इंसिडेंट भी तो हो सकता है. नहीं मम्मा ? और मरता कौन नहीं है? मुझे यहाँ पे देखने से तो तेरा मर जाना ही अच्छा था.<br />
यहाँ इस महिला वार्ड में. जहाँ ना मौका है ना दस्तूर फ़िर भी सोच रही हूँ...<br />
...नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः <br />
हाँ तूने सही ही सोचा माँ ! तब जबकि मुझे इस दुधमुहें के साथ मेटरनिटी वार्ड में होना था मैं तिहाड़ के महिला वार्ड में हूँ. <br />
माँ, मैं न अपने को तेरी मौत का दोषी मानती हूँ न उसकी. एक जिन्दा आदमी सर में दो दो मौत का पाप लेकर नहीं जी सकता. मैं असल में दोषी हूँ उन लड़कियों की जिन्हें मुझसे पहले आसमान नीला और फूल खुशबूदार लगते थे. <br />
क्षमा ! </div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-17256459133591315292011-05-18T06:53:00.001-07:002011-05-18T06:53:52.051-07:00थकेली विदिशा की पिटेली इस्टोरी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">विदिशा लड़की थी, विदिशा नदी सी बहती थी. विदिशा के भाई का नाम राजेश था राजेश को पढ़ाने की बड़ी कोशिश हुई. राजेश इंटर तक ही पढ़ पाया. विदिशा को नहीं पढ़ाने की बहुत कोशिश हुई विदिशा इंटर तक ही पढ़ पायी.</div>विदिशा खूबसूरत थी. विदिशा बहुत खूबसूरत नहीं थी. अपने से खूबसूरत लड़कियों से चिढ़कर और अपने से बदसूरत लडकियों को चिढाने के लिए विदिशा ने ज़ल्दी ज़ल्दी प्रेम किया, ज़ल्दी ज़ल्दी कौमार्य खोया और ज़ल्दी ज़ल्दी बदनाम हुई.<br />
विदिशा की बदनामी उसके घर तक पहुंची.विदिशा का घर से बाहर निकलना बंद कर दिया गया. राजेश खुश हुआ. पर राजेश के खुश होने से भी विदिशा की इज्जत वापिस नहीं आई. विदिशा की शादी काफी छोटी उम्र में काफी बड़े उम्र के आदमी से कर दी गयी. राजेश और खुश हुआ. पर राजेश के और खुश होने से भी विदिशा की शादी धूम धाम से नहीं हुई.<br />
विदिशा का पति शराब पीता था. विदिशा का बाप भी तो शराब पीता था. विदिशा के घर में मर्दों को शराब की आदत थी. विदिशा के घर में औरतों को शराबियों की आदत थी. विदिशा का बाप एक दिन मर गया. दूसरे दिन विदिशा का भाई मर गया और तीसरे दिन उसका पति चल बसा. विदिशा के पति की एक बच्ची थी. और उस बच्ची को पति के मरने के बाद भी विदिशा ने ही पाला.<br />
<div style="text-align: left;">विदिशा की बदनामी एक दिन मायके से ससुराल आई. इसलिए विदिशा के ससुर के मन में लड्डू फूटे. विदिशा के ससुर ने विदिशा को खरी खोटी सुनाना शुरू किया. इसलिए विदिशा ने अपने ससुर को अपनी इज्जत लूटने से मना नहीं किया और तब ससुर ने भी उसे काम पे जाने से मना करना उचित नहीं समझा .</div>गलत ! विदिशा काम पे नहीं जाती थी. लोग काम से घर पे आते थे. किसी चौथे दिन विदिशा का ससुर भी चल बसा. अब घर में कोई आदमी नहीं था. इसलिए घर में आदमियों का तांता लगा रहता था. विदिशा के ग्राहकों में उसके पुराने आशिक भी थे. विदिशा के आशिकों में उसके पुराने ग्राहक भी थे.विदिशा अपनी बेटी को बहुत चाहती थी. इसलिए चिमटे और चप्पल से मारती थी.<br />
<div style="text-align: left;"><div style="text-align: left;">विदिशा की लड़की पड़ोस की विम्मो की तरह ही बड़ी हो रही थी. विदिशा की लड़की को बड़े होने से पहले ही ताने सुनने की आदत थी. और इसलिए विदिशा के न चाहते हुए भी विदिशा की लड़की खूबसूरत हो गयी थी , विदिशा की लड़की पढने में तेज़ भी थी. इसलिए जब इस बार विदिशा की लड़की के मैथ्स में कम नम्बर आये तो विदिशा को शक हुआ.</div></div><div style="text-align: left;">विदिशा की लड़की ने उसे बताया की उसका 'वो' ऐसा नहीं है. तब विदिशा ने अपनी लड़की को समझाया कि सब मर्द एक से होते हैं. विदिशा की लड़की ने विदिशा से कहा कि विदिशा एक ही तरह के मर्दों से मिली है. विदिशा ने अपनी लड़की झापड़ मारा और पूछा कि क्या उसकी अपने पिता के बारे में भी यही राय है ? विदिशा ने दादाजी के बारे में राय नहीं पूछी.</div>विदिशा बस इतना चाहती थी कि उसकी बेटी का भविष्य उसके अपने वर्तमान सा न हो. विदिशा ने पूछा कि उस लडके का नाम क्या है. और ये जानने के बाद कि उसका राम विक्रांत है उसने पूछा कि विक्रांत ने उसके साथ कुछ ऐसा वैसा तो नहीं किया?<br />
उसकी बेटी ने बताया कि दुनियाँ केवल स्त्री पुरुष सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं.<br />
<div style="text-align: left;">विदिशा ने राय दी कि उसने दुनिया देखी है और औरत के लिए इतनी ही है. या फिर इससे बच के निकलने भर तक की.</div>बेटी ने कहा कि दुर्योग से विदिशा ने वही दुनियाँ देखी है . जहाँ पर...<br />
विदिशा ने बात बीच में काटकर अपनी बेटी को लड़की होने के लिए कोसा. उसकी बेटी ने बात बीच में काटकर विदिशा को रंडी होने पर.<br />
विदिशा ने पूछा कि क्या विक्रांत को विदिशा के बारे में पता है. विदिशा की लड़की ने विदिशा को फिर याद दिलाया कि विक्रांत वैसा नहीं है.<br />
विदिशा ने चावल में से कंकड़ बीनते हुए कहा कि हो न हो विक्रांत के बाप को विदिशा बारे में ज़रूर पता होगा.<br />
विदिशा की बेटी सवाल हल करते हुए मुस्कराहट न रोक सकी. विदिशा चावल बीनते हुए मुस्कराहट न रोक सकी.<br />
<div style="text-align: left;"><div style="text-align: left;">विदिशा की बेटी ने एक दिन अपना कौमार्य खोते खोते विक्रांत को अपनी माँ के बारे सब कुछ बता दिया. विक्रांत ने विदिशा की बेटी से शादी का वादा किया. विदिशा की बेटी खुश हुई और इसलिए फिर से मैथ्स में कम नम्बर लायी. और इसलिए फिर से विदिशा से ताने सुने. विदिशा ने अपनी बेटी से विक्रांत को घर बुलाने को कहा. </div></div><div style="text-align: left;">विदिशा ने विक्रांत के बाप को घर बुलाने को नहीं कहा. लेकिन फिर भी विदिशा की बेटी ने बताया कि विक्रांत का पिछले २२ सालों से कोई नहीं था. और पिछले दो सालों से भी उसकी 'विदिशा की बेटी' भर है बस. </div>विदिशा मानती थी कि जैसे प्रगाढ़ प्रेम होने के लिए पहले नफरत होना ज़रूरी है. वैसे ही पूर्ण विश्वास होने से पहले अविश्वास.<br />
इसलिए ढेर सारे अविश्वास के बाद ही विदिशा ने विक्रांत को भला लड़का मानना शुरू किया. ढेर सारे लड़कों के बाद ही विदिशा ने विक्रांत को अपना दामाद मानना .<br />
<div style="text-align: left;">विदिशा की लड़की ख़ुशी से फूली नहीं समाती और सोची समझी रणनीति के तहत अपनी पढाई छोड़ देती है. इस तरह विक्रांत की पढाई बिना पैसों की दिक्कत के पूरी हो जाती है. विदिशा काम करना बंद कर देती है क्यूंकि वो मानती है कि क्रिकेट की तरह इस काम में भी पीक में संन्यास लेना शुभ माना जाता है. विदिशा विक्रांत से सीधे पैसे नहीं मांगती पर अबकी बातों से विक्रांत को समझ आता है कि विदिशा के घर में पैसों की कमी है. विक्रांत अगले ही दिन विदिशा के हाथ में पैसे रख देता है. विदिशा खुश होती है और झूठ मूठ कहती है कि वो इसे चुका नहीं पाएगी. विक्रांत कहता है कि ये तो विदिशा के ही पैसे है जो वो विदिशा को लौटा रहा है. विदिशा और खुश होती है. विक्रांत कहता है कि विदिशा के चौबीस हज़ार सात सौ रुपये चुकाने में तो उसे सालों लग जायेंगे. विक्रांत आगे बोलता है कि अगर कभी उसने पैसा चुका भी दिया तो भी विदिशा को चिता करने कि जरूरत नहीं. अब विदिशा अपनी ज़िंदगी में सबसे ज्यादा खुश होती है. वो सोचती है कि खुशियों का मायने हो न हो विक्रांत होता है.विक्रांत अब भी बोलता रहता है, जब विदिशा के रेट पांच सौ हैं तो उसकी बेटी के ज्यादा न सही तीन सौ तो बनते ही हैं. हर बार के. इस तरह विदिशा की ज़िन्दगी आराम से कट जाने के बारे में विक्रांत कई तर्क देता है. पर विदिशा की बेटी की ज़िन्दगी के बारे विक्रांत कोई बात नहीं कर पाता.</div>विदिशा खुश होती है कि इस वक्त उसकी बेटी कहीं और गयी है. और आज रात जब वो अपने और अपनी बेटी के खाने में कुछ मिलाएगी तो उसे शक नहीं होगा.<br />
विदिशा खुश होती है कि अच्छा हुआ जैसा उसकी बेटी ने कहा था उसने उतनी ही दुनिया देखी. और विदिशा सबसे ज्यादा इस बात से खुश होती है कि उसकी बेटी कोई और दुनिया देखने से पहले ही मर जायेगी.<br />
<div style="text-align: left;">लेकिन इतनी ख़ुशी होने के बाद भी वो विक्रांत को ख़ुशी ख़ुशी विदा तो करती है पर विक्रांत की उसके साथ भी एक रात सोने कि इच्छा पूरी नहीं करती.</div><br />
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</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-32950713137924368092011-04-29T04:21:00.000-07:002011-04-29T04:21:18.726-07:00पूर्ण भ्यास<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><i><b>मानने में बेशक ना हो पर कहने में बड़ी द्विविधा है कि इसे लिखते वक्त मैं मनोहर श्याम जोशी जी से इंस्पायर्ड हूँ. कारण, यदि मैं कहता हूँ तो साहित्य की बहती गंगा में हाथ धोना कहा जाएगा. ना कहता हूँ तो ड्यू क्रेडिट्स ना दिए जाने का दोषी ठहराया जाऊँगा. हाँ पर ये ज़रूर है कि भाषा जोशी जी से पुरानी और घटनाएं उनसे नयी होने के बावजूद भी, 'कसप', 'कुरु कुरु स्वाह' और 'क्याप' पढ़े बिना इसको लिखना और इस तरह से लिखना असंभव था. बाकी पाठकों का सोल डिसक्रीशन...</b></i></div><br />
<br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">-x-</span></div><br />
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<u><i><b>भ्यास (bhyaas) noun, adjective</b></i> : </u>Bhyaas is a two syllabic (2-1) word originating from (and residing in as well) kumaon which literally means 'Dumb' . Bhyaas, though, generally is used in negative terms /meaning, however women, girls use this word for expressing love by giving stress to the first syllable <i><b>(i.e. भ्याआआस).</b></i><br />
<br />
<i><b>Verb: भ्यास-योली</b></i><br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">-x-</span></div><br />
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"गोलू द्याप्ता (देवता ) की ही मर्ज़ी ठहरी. आज ही राकेश दा कह रहे थे कि तुझे तेरा वो मिलेगा. उनके अंग भी तो गोलू द्याप्ता आने वाले हुए. छिः मैं तो कहाँ मानने वाली हुई ये सब. पर, फ़िर, हर इन्सान के चौबीस घंटे मैं एक बार तो सरसती आती ही है. मैं जो उनकी बात मजाक में टाल गयी. दौ राज दा ! तुम भी कैसी कैसी बात कर देने वाले हुए कहा. यहाँ नैनीताल में जौन मिल रहा होगा? फ़िर मुझे क्या पता तुम्हें मिलना है मुझसे. जैसे तैसों को में मुंह नहीं लगाने वाली हुई और मिला कौन मुझे तुम जैसा भ्यास !"<br />
<br />
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किसी भी प्रेम कहानी या किसी भी कहानी कि शुरुआत बड़े सामन्य ढंग से होती है. फ़िर घटनाओं के ताने बाने से होकर, चरम से होकर, अपनी परिणिती तक पहुँचती है. लेकिन उफ्फ ! ये वास्तविकता !! कहानी के रचनाशिल्प के सारे नियमों को बारी बारी से तोड़ते हुए आगे बढती है. इतनी सामन्य सी स्थिति में समाप्त होती है कि यदि उसके बाद कोई चीज़ जोड़ी या घटी जाए तो भी कहानी के कथन में, भाव में कोई अंतर नहीं आना. हाँ लेकिन इसका प्रारब्ध बड़े ही अविस्मरणीय ढंग से हुआ.<br />
<br />
मैं कहाँ जानता था कि तुम मेरी बहन सबसे अच्छी सहेली हो ?और जानता भी तो डरपोक भी तो हद दर्जे का था. इतना कि कोई लड़की अगर फ्रेंडशिप का कार्ड दे दे तो तुरंत पढ़े बगैर फाड़ के फैंक दूं. ऐसी जगह जहाँ रवि तो क्या कोई कवि (इन्क्लुडिंग <a href="http://www.blogger.com/profile/13742050198890044426">साग़र</a> ) भी ना पहुंच सके. वो तो अपने शहर से इतने दूर नैनीताल आया हुआ था तो थोड़ी डर कम थी. यहाँ हम अल्मोडियों को कौन जानता है. इसलिए उस शादी में बने कुछ दोस्तों के साथ मॉल रोड घूमते घूमते तुम्हें छेड़ दिया था. क्या पता था कि उसी दिन तुम्हारे राज दा ने, जिनके अंग द्याप्ता आते हैं, तुमसे कहा था कि कोई मिलने वाला है तुम्हें. मुझे क्या पता था कि तुम भी मेरी तरह अल्मोडिया हो. मुझे क्या पता था कि १२-१३ साल बाद तुम्हें इस तरह याद करूँगा. मुझे क्या पता था कि प्रेम बस....<br />
<br />
...हुआ चाहता है !<br />
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<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">-x-</span></div><br />
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किसी कहानी के लिए बेहतरीन प्लॉट था हमारा तुम्हारा प्रेम. लेकिन किसी प्रेम कहानी के लिए नहीं, किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी कहानी के लिए. जहाँ नायिका 'दलित' है नायक 'सवर्ण' सारे बन्धनों को तोड़कर सारे जहाँ को दुत्कार कर सारे सड़े-गले रिश्तों को धता बतलाकर नायक नायिका को अपनाता है और सारे ज़माने से लड़कर नायिका को जीतता या हारता है...<br />
..अपने दम पे.<br />
...नायिका उसकी एक मात्र संबल और एक मात्र कमजोरी.<br />
और अन्त में...<br />
..दे लिव हेपिली एवर आफ्टर, या दे डाइड हेपिली टू लिव एवर आफ्टर.<br />
मग़र जानती हो? हम मूलतः बड़े डरपोक लोग हैं. जब हमें नायिकाओं को लेकर घर से भागना होता है तो हम अकेले घर से भागते हैं. और जब हमें कभी भी वापिस नहीं आना चाहिए हम अगले दिन ही घर वापिस आ जाते हैं. और फ़िर भागने के प्रयास भी तो आत्महत्या सरीखे होते हैं. एक बार असफल हुए तो दूसरी बार कम ही प्रयास होता है इनका .<br />
वैसे भी मैं बचपन से लकर आज तक अपने को किसी कहानी या मूवी के नायक से कभी रिलेट नहीं कर पाया . हमेशा पीछे नाचने वालों या नायक के दोस्तों मैं ही ढूंढा अपने को जो अधिकतर लूज़र्ज़ ही होते हैं, क्रमशः शाहीद कपूर और करण जौहर को छोड़कर. मग़र दुनिया में नायकों को नायक कहने वालों की भी आवश्यकता होती है. टाईम जैसी विश्व - प्रतिष्ठित पत्रिका भी इस कम्युलेटिव 'यू' को <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/You_%28Time_Person_of_the_Year%29">पर्सन ऑव दी एयर</a> बताती है. तो जब मैं तुम्हें अपनाकर इस कहानी को 'सामाजिक सरोकारों की कहानी' बना सकता था, मैं इसे घिसी पिटी प्रेम कहानी बनाने में ही सफल (?) रहा बस. जब मैं एक इंडिविजुएल नायक बन सकता था, मैं कम्युलेटिव 'यू' का एक हिस्सा बन के रह गया बस.<br />
सही तो कहती थी तुम मुझे...<br />
..भ्यास !<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">-x-</span></div><br />
<br />
कितना अज़ीब सा प्रेम था ना?<br />
..किस्से कहानियों में पढ़ा गया जैसा. फ़िर भी नया सा. बेवकूफी भरा दरअसल...<br />
भला दो पन्नों के ऊल-ज़लूल ख़त को 'कहो ना... प्यार है' नहीं नहीं 'से ना.. ..लव है' पे समाप्त करना बेवकूफी नहीं तो और क्या है ? और तुम्हारा तीन पन्नों का ज़वाब? 'कहा ना.. ..प्यार है' पे ख़त्म होता ख़त. पर अज़ीब सी बात एक और भी है, क्यूँ याद नहीं मुझे उस ख़त का मज़मून? क्यूँ बस अपनी और तुम्हारी बेवकूफियां ही याद हैं मुझे? हाँ बेवकूफियों भरा ही तो था हमारा प्रेम. तभी एक चुम्बन तक सिमट कर रह गया.<br />
जानती हो उस प्रेम की सबसे बड़ी बेवकूफी क्या थी? तुम कैसे जानोगी? करता तो मैं था...<br />
<br />
...जब, तुम कहती थी शायद हम दोनों को अलग हो जाना चाहिए, या क्या हम दोस्त बनकर नहीं रह सकते? या मुझे जाना है... और हर बात पे मेरा हाँ कहना थी सबसे बड़ी बेवकूफी. <br />
अगले ही दिन तुम कहने वाली हुई... ".ऊजा (ओ ईजा ! ओ माँ !) ऐसा भी कहाँ हो सकने वाला हुआ? हम दोनों दोस्त ? मैं भी कितनी वैसी हुई ना? और तुम भी ना मेरी हाँ मैं हाँ जैसे मिला देते होगे? भ्यास जैसे जो होगे तुम कहा."<br />
ठहरा तो मैं भ्यास ही वैसे. उन दिनों में भी जब तुम्हारे लिए नाइंथ क्लास के नए सिलेबस के 'मॉडल पेपर्स' काट के सहेजता था. दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों में से.<br />
गणित और विज्ञान के भी. आर्ट साईड के लिए ! तुमको पता है जान बूझ के किया था मैंने ऐसा. जिससे वो बंडल मोटा हो जाए. (देखा मैं भ्यास नहीं चंट था बहुत.) हद्द है ! मॉडल पेपर की मोटाई से भी कहीं प्यार नापा जाने वाला हुआ भला? अब बताओ जहाँ कहीं भी सोचकर बताओ क्या ये बेवकूफी नहीं?<br />
और वो? कितना फ़िल्मी कितना सुना सुना सा लगता है ना ? बैडमिनटन खेलते वक्त जब सब बच्चे अपनी बारी का इंतज़ार करते थे मैं तुम्हारे साथ अपना खेल जमाता था. सब बच्चों ने चिढना ही था, और ऊपर खड़ी हमारी माओं को श़क होना ही था. "चेली ! बोर्ड के इग्जाम हैं. पढ़ना लिखना सब हराण. खेल में ही लगे रहो तुम लोग दिनमान भर." <br />
कैसे रैकेट पटककर जाती थी तुम बच्चों को घूरकर. "सालों तुम्हारी ही नज़र लगी होगी फ़िर. कितना अच्छा खेल जो जम रहा था हमारा."<br />
कितना अच्छा प्रेम चल रहा था हमारा इसको किसकी नज़र लगी होगी फ़िर?<br />
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जब बेवकूफियों को याद कर रहा हूँ तो वो दिन कैसे भूल सकता हूँ? याद है? जून का महीना था...<br />
...चितई मन्दिर के नीचे बैठे थे हम. तब तुम्हें छूने कि हिम्मत ही कहाँ थी? वैसे ऐसे एहसास भी कहाँ जगे थे तब? लगता था प्रेम के मायने देर तक एक दूसरे के साथ बैठे रहना है बस. और यकीन करो यहाँ देर के मायने केवल 'ज़िन्दगी भर' ही हो सकता है. क्यूंकि उससे कम समय...<br />
...कम, बहुत कम ही लगता हमें. तुम्हीं देख लो ! अगर अब तक भी बैठे रहते हम दोनों साथ साथ और ठीक इस वक्त उठ के जाना होता...<br />
... तेरह साल बाद भी. क्या नहीं लगता बहुत थोड़े समय हम साथ बैठे?<br />
<br />
हाँ तो चितई मंदिर...<br />
...कहाँ पता था हमें कि उस 'पुलिस-मिलट्री' या 'जंगल-पुलिस' या जो कोई भी...<br />
...उसके बस का कुछ नहीं. कैसे अलग अलग ले जाकर हमारे बयाने लिए थे हमारे. कहता था कि उसने हमें एक दूसरे को देखते हुए रंगे हाथों देख लिया है. फिल्मों का उन दिनों मुझपे ऐसा असर था कि सोच रहा था हमें ब्लैकमेल करके तुम्हारे साथ कुछ कर ही ना दे वो. हंस रही हो ना तुम? अब तो मैं भी हंस रहा हूँ ख़ैर. क्यूंकि अब मैं होमगार्ड का मतलब जानता हूँ. उस दिन कैसे दहाड़ मार मार के रो रही थी तुम. क्या कहती थी? हाँ... " अब तो हम बदनाम हुए ही समझो. अल्मोड़ा कोई बहुत बड़ा थोड़ी ना हुआ. कल तक औरी-बात हो जानी है पूरे शहर में. चलो इससे बढ़िया आज ही आत्महत्या कर लेते हैं. हमारे मरने के बाद किसको क्या पता?" <br />
शायद पहली बार मैंने तुम्हें भ्यास कहा था "ओ भ्यास ! तब भी सबको पता चल जाएगा."<br />
"पर हमको क्या पता.तो चलो आत्महत्या कर ही लेते हैं."<br />
पर हमारे प्रेम को शायद अमर होना लिखा ही ना था. वहाँ जंगल में आत्महत्या करने का कोई जुगाड़ ही ना हुआ. और हमें अगली सुबह अखबार का इंतज़ार करना ही पड़ा. पिछले २०-२५ दिनों में शायद पहला मौका था जब तुम्हारे लिए मॉडल पेपर्स काटना भूलकर सारी खबरें पढ़ डाली थीं. 'दुःख' से विपरीत 'डर' समय के साथ साथ बढ़ता चला जाता है. तभी तो 'होमगार्डों की भर्ती' वाले विज्ञापन में भी होमगार्ड पढ़ते ही पसीना चूने लगा मुझे. और वो खबर...<br />
...'खाई से कूदकर औरत ने आत्महत्या की.' पूरी पढ़ी थी मैंने. ये भी नहीं ध्यान दिया कि औरत तो तुम इस बात को लिखते वक्त होवोगी ! १३ साल बाद.... <br />
..ख़ैर ! हम बच गए. जुदा होने के लिए. तुमने कभी इस बात को बाद में याद करके कहा भी था. "कितना अच्छा जैसा होता ना हम बदनाम ही हो जाते साला. हमारे इजा-बोज्युओं होरों को हमारा ब्याह करना ही पड़ता.कैसे ना कैसे करके. नहीं फ़िर?"<br />
वैसे तो उसके बाद भी आत्महत्या के कितने ही मौके आए, रोज़ ही आते हैं. पर यकीन करो आत्महत्या करना मुझे 'उतना' अच्छा फ़िर कभी ना लगा.<br />
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एक तो जब तुसे प्रेम हुआ था तभी बोर्ड के इग्जाम ! यू. पी. बोर्ड ! जहाँ पिताजी का नाम और अपनी जन्म तिथि भी सही सही लिखने के २००-३०० पन्नों का फ्लो चार्ट होता था, उसी से तो प्रेरित होकर एयरक्राफ्ट उड़ाने का मैनुएल बना बाद में. और तिस पर कल्याण सिंह की सरकार.<br />
लोग कहते हैं, प्रेम करने की 'कोई; उम्र नहीं होती. ना ना ग़लत ! प्रेम करने की 'कोई भी' उम्र नहीं होती साली !! तीनों उम्रों में प्रेम की कोई उम्र नहीं. चारों आश्रमों में प्रेम का कोई आश्रय नहीं. पाँचों सब्जेक्ट में प्रेम का कोई सब्जेक्ट नहीं.<br />
जब प्रेम हो तो युगल को २-३ साल का ब्रेक मिलना ही चाहिए मेरा ये मानना है. कम से कम जो लेना चाहें उनके लिए तो. मन लगाकर पढ़ाई, मन लगाकर नौकरी और मन लगाकर जीने के बीच में मन लगाकर प्रेम करने के लिए एक ब्रेक तो बनता ही है.<br />
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यकीनन प्रेम एक कला है. प्रेम करना और प्रेम होना भी. सिंस इट कम्स विदइन एंड इट हैपन्स बाई दी ग्रेस ऑव गॉड रिस्पेकटिवली. तो इसलिए साइंस के रसायनों से उसर हुई ज़मीन में भी प्रेम प्रस्फुटित हुआ ! इस तरह की 'शून्य की महिमा' गणित की बजाय 'फिजिक्स' बखान करती थी मेरी मार्क शीट (या आई नो माई मार्क-शीट वज अ पेपर ऑव शिट.)<br />
अरे हाँ बतान भूल गया, ये वो उम्र भी थी जब एक तीसरी ही परेशानी से दो चार हो रहा था. कासे कहूँ? बताने में भी शर्म आती है. पर जैसा की बड़े बड़े हकीम कह गए है और आज भी गाहे बगाहे कहते रहते हैं कि 'उन' गलतियों के लिए शर्मिंदा ना हों...<br />
...पर यकीन करो 'उन' दिनों में भी प्रीटी जिंटाओं, एश्वर्याओं और तुम्हारी सहेलियों के सहारे सोच में भी तुम्हारा कौमार्य बचा लिया था मैंने. बट यू नो इट वज़ वैरी नेरो इस्केप ! तो अब भी तुम्हें जब भी सोचता हूँ वर्जिन ही.<br />
हाँ तो, बेशक धन (पिताजी का ) पढ़ाई में खर्च हो रहा था, तन प्रीटी जिंटाओं में पर मन सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा था. (फ़िल्मी !वैरी फ़िल्मी )<br />
...आई विश ऊधो 'मन' ना भये दस बीस !<br />
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हुआ दरअसल यूँ था की हमार प्रेम कोई बहुत बड़ी तोप चीज़ नहीं था. किसी का भी नहीं होता वैसे. पर हम यही मानते भी थे. इसलिए जब हम साथ साथ थे उन दिनों भी धीमी आंच में पकता रहा कुछ हमारे बीच . कोई पेशन नहीं था. पर प्रेम था... <br />
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...और इस प्रेम का पता भी जाने कब लगा ? या पता ही नहीं लगा शायद. उबलते पानी में सीधे डाल दिए गए और धीरे धीरे गर्म होते पानी में पहले से डाले गये दो मेढकों की कहानी सुनी है तुमने? ख़ैर छोड़ो ये सब, तुम ये बताओ कि ये इश्क का दरिया तब कितना गर्म था जब दहाई के अंकों में आने वाले हमारे घर के फ़ोन के बिल में 'देय राशि' वाले क्षेत्र में इतनी ढेर सारी संख्याएं देख कर मेरे पिताजी उसे भी किसी फ़ोन नम्बर से मिसइंटरप्रेट कर गए. "उजा ! किसका नम्बर है रे ये दर्शन? उसीका होगा." तुमको पता है पापा ने किपेड लॉक कर दिया था, एक छोटे से ताले से. पर प्रेम ! उसे तो बड़ी बड़ी बेड़ियाँ भी नहीं बाँध पायी फ़िर ये छोटा सा ताला क्या चीज़ है....<br />
...ये जुनून-ए-इश्क के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या?<br />
पर साला वो चाइनीज़ ताला ! मम्मी के का हेयर-पिन से भी नहीं खुला. पर प्रेम था, सच्चा ही रहा होगा, तभी तो जाने कैसे मैंने डिस्कनेक्ट के बटन को बार बार दबाकर नम्बर डायल करना सीखा. मेरे रकीब थे तुम्हारे फ़ोन नम्बर के वो दो ज़ीरो, वो जिनकी वजह से दस बार तेज़ी से डिस्कनेक्ट का बटन दबाना पड़ता था, दो बार !<br />
यकीनन प्रैक्टिस मेक्स मैन परफेक्ट. बट इट इन्क्रिज़ेज़ यॉर फ़ोन बिल टू फोल्ड.<br />
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हमारा घर संस्कारिक रूप से बड़ा कन्फ्यूज्ड था. यही संस्कारों का कन्फ्यूजन मुझे भी विरासत में मिला. एक ऐसे घर में जन्म हुआ जहाँ मेरा किसी मुस्लिम या दलित मित्र को लाना कभी मना नहीं था. अपितु, था तो ये कि जूता खोल के बैड में घुस जाने वाले मित्रों में इनकी ही संख्या सबसे ज़्यादा थी. और उन्हें भी आस पड़ोस कि आंटियों में मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा पसंद थी. सारे अंकलों में मेरे पिताजी.<br />
हो भी क्यूँ ना ? जहाँ सारे दोस्तों के घर में ताश खेलने की मनाही थी वहीँ मेरे घर में विशेष आयोजन होते थे. दिवाली ,होली,सन्डे विशेषांक अलग. जब बाज़ी १ रूपया राउंड वोट से बढ़ा कर ५ रूपया फुल वोट कर दी जाती. ऐसे ही कितने और घरों के टैबू काम मेरे घर में ऑव्यस थे. जिनमें अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बात करना नयी रिलीज़ हुई मूवी (और उसकी हिरोइन की समीक्षा भी) शामिल थे. पर 'उन' दोस्तों के घर से बाहर निकलने के बाद पूरे घर में 'अपवित्रो - पवित्राम' का उच्चारण करते हुए गंगाजल का छिडकाव भी उसी घर के रयूटलस का अभिन्न हिस्सा थी. पहले पहल तो मेरी आमा (दादी) के ऐसा करने पर मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा हँसी उड़ाती थी,"देख लो हो दर्शन के बोज्यू ! फ़िर शुरू हो गयी तुम्हारी खानदान की नौटंकी. एक होता, दो होता, किसी के ख्वार(सर/ खोपड़ी) में मारी ही जाती यहाँ तो पूरी पोटली ही खोटी है. किसके ख्वार जो मारो फ़िर? " और इस तरह मेरी माँ जब मुझे सबसे उपयुक्त लगी अपने प्रेम को रिश्तेदारी में बदलने के मसले पर बात करने के लिए ...<br />
...किसी एक दिन हरेला बोने की तरह, क्न्क्वारी पूजने की तरह 'अपवित्रो - पवित्राम' वाला 'कार्यक्रम' भी माँ ने संस्कारी (कन्फ्यूज्ड-संस्कारी) विरासत की तरह आमा से ले लिया.<br />
..सच! मैं अभी तक ये नहीं जान पाया कि मेरा घर और मेरे घर वाले रुढ़िवादी हैं या तरक्की पसंद? तुम ही बताओ, तुम्हें तो पता ही है वो मेरा तुम्हारे साथ कहीं जाना या तुम्हारा घर आना कभी नापसंद नहीं करते थे. पर क्या तुम ये जानती हो कि तुम्हारे ना होने पर वो ये कहना भी नापसंद नहीं करते थे, तुम्हारे ताने देकर ,"ठीक है भई !अपने मन के बच्चे ठहरे तुम. हम कौन होते हैं. पर उससे शादी करनी ही है तो पहले हमारा क्रिया-कर्म कर देना.हमें गंगा में बहा देना फ़िर निगरगंड होकर जो चाहे करना." और अनूप जलोटा के शब्दों में कहूँ "दुनिया का कोई बेटा अपने माँ की ये बात नहीं सुन सकता, फ़िर मैं तो इकलौता ठहरा! मैं कैसे ? तो मैंने ही कह दिया बापू मोरे, मैया मोरी, तू चिंता मर कर मैं सोज्युओं की लड़की से ही शादी करूंगा."<br />
ये अलग बात थी कि एक-एक करके मोहल्ले भर की, शहर भर की और कुमाऊं भर में सोज्युओं कि लडकियाँ ही सबसे ज़्यादा घर से भागने लगी. एक दौर तो वो भी आया (जो अब तक जारी है) कि सोज्युओं के घरों में लड़कों की बाढ़ और लड़कियों का अकाल भारत के ही दो राज्यों यू. पी. और बिहार की एक ही समय में उत्पन्न हुई दो विपरीत नेचुरल-डिजाज़स्टरज़ की तरह आया.<br />
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अच्छा तुम्हें ये पता है कि खुद से किये दो ही वादे निभा पाया हूँ मैं. एक तो अब तक शाकाहारी हूँ. दूसरा अब तक होली नहीं मनाई. लोगों से कहता हूँ कि रंगों से एलर्जी है. पर झूठ कहाँ कहता हूँ, लोग ही रंगों का अर्थ अबीर-गुलाल से लगाते हैं.<br />
वो कहते हैं ना कि हर एक को खुशियाँ, आंसू, सासें और सपने भी इश्वर गिन के देता है.<br />
रंग भी गिनकर ही मिलते हैं क्या सबको? और क्या मैंने अपने रंग एक ही होली मैं खर्च डाले थे? नीचे खड़ा था मैं. मुझपे रंग डाले जा रही थी तुम...<br />
और... और...<br />
'बंदी चेला' जो मैं भी हट जाता वहाँ से. डालो डालो. कितना डालोगी. "छि: कहा ! भ्यास जैसे तुम ! सब भाभियाँ कैसे मजाक उड़ा रही थीं मेरा. भांग पी रखी थी क्या तुमने? तुम तो पीने वाले नहीं हुए कहा? उस दिन जो क्या हुआ तुम्हें?"<br />
क़ाश कोई बताने वाला होता तब. मैं खुद वहाँ से हट जाता या आवाज़ देकर तुम्हें रोक लेता "बस भी करो ! इन रंगों को ज़िन्दगी भर चलाना है हमें."<br />
तुम्हें उस दिन नहीं रंग पाया था. पर तुम्हारे गालों को गुलाबी करने का मौका मिल गया था मुझे एक दिन....<br />
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...बहरहाल तुम भी तो कुछ बोलो? मैं ही अपने बारे में कहे जाऊँगा? बताओ कि तुम्हें कब लगा तुम मुझसे प्रेम करती हो? लगा भी कि नहीं? तुम्हें कब लगा कि मेरे बिना तुम नहीं जी पाओगी? लगा भी कि नहीं?<br />
सब छोड़ो...<br />
...ये बताओ, तुम्हें कैसे पता लगा कि अब तुम मेरे बिना 'बैटर' जिओगी कम्परेटिवली ?<br />
...ना ना जब अंतिम बार बात हुई थी हमारी तब पूछना भूला नहीं था. बस सामान्य नहीं रह पाया था तब . ऐसी स्थितियों में आदमी सामन्य रह भी कहाँ पाता है? या तो सामान्य से कुछ अधिक हौसला आ जाता है उसमें या कुछ और कायर हो जाता है वो. और कायर हो जाना उन परिस्थितियों में सबसे आसान था मेरे लिए. क्यूंकि मैं इन सब पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहता था जो तुम्हारे 'साथ' के साथ आने ही आने थे.(लव आफ्टर ऑल इज़ अ कम्प्लीट पैकेज एंड यू वर जस्ट अ ल्युकरेटिव पेकेजिंग.)<br />
कायर होने से 'सेल्फ पिटी' (जो अब तक जारी है ) का एडवानटेज भी था. हाँ तुम्हारे और अपने रिश्ते के बारे में भी में सोचता इन सब के बीच अगर...<br />
...अगर तुम्हारे ना होने का एहसास ठीक उस वक्त भी इतना ही होता जितना बाद में कभी बढ़ते बढ़ते हो गया था, अगर तुम्हारी खाली की हुई जगह ठीक उस दिन भी उतनी ही ज़्यादा लगती जितनी बाद में कभी लगी (जब आँखों को अँधेरे में देखने की आदत हुई जा रही थी), और अगर तुम्हारा दूर जाना उस दिन भी 'जन्म भर वाली कुट्टी' सा बच्चों का खेल ही ना लगता...<br />
..अगर !<br />
बता सकती हो इन चार घटनाओं में से वो कौनसी घटना थी जब हम वाकई, वाकई अलग हो गए थे? या अलग होना एक 'प्रोसेस' जिनका ये चार घटनाएं अभिन्न हिस्सा थीं? हम स्टेप बाई स्टेप बिछड़ रहे थे....<br />
घटना १)<br />
मेरे चाचा तुम्हारे पिताजी को फ़ोन करते हैं,उन्हें भला बुरा सुनाते हैं (भला भला मेरे बारे में बुरा बुरा तुम्हारे बारे में ).तुम्हें क्या याद दिलाना तुम तो जानती ही हो अमूमन ऐसी बातें "समझा के रखो" से शुरू होकर "नहीं तो समझ लेना" पे ही खत्म होती हैं. और किसी एक पक्ष की तबियत नासाज हो ही जाती है. इस तरह तुम्हारे पिताजी को दिल का दूसरा दौरा पड़ता है. तुम्हारा भाई जिसने चूड़ियाँ नहीं पहनी होती हैं मेरी कुटाई करने के लिए मेरी खोजबीन करता है. मैं फेल होने का बहाना बनाकर घर से भाग जाता हूँ. १ दिन का 'फुटेज' और 'सेल्फ पिटी' खाकर 'आशाराम जी से मिलने की आशाओं' से मोह भंग करवाकर हरिद्वार छोड़ के अपने नश्वर शरीर को लाकर वापिस अल्मोड़ा प्रस्तुत होता हूँ. तुम्हारे भाई से पिटता हूँ. तुम्हारे ग्रीटिंग कार्ड जो स्टेपल करके दीवार मैं टाँगे थे उन्हें सधन्यवाद तुम्हें वापिस करता हूँ. तुम्हारी सहेली के हाथों (हाँ मग़र इस प्रक्रिया में उसका हाथ नहीं छूता मैं.)<br />
...वैसे तुम्हें तो पता ही होगा कि तुम जैसे लोगों का 'अपवित्रो-पवित्राम' करने के लिए ही धरा में जन्मा था मेरे 'उन्हीं' चाचा ने अपनी लड़की को भी. बेशक इस सामजिक कार्य के लिए उसे घर छोड़ना पड़ा. या साफ़ साफ़ कहूँ तो उसे घर छोड़ के भागना पड़ा. किस भी सामन्य सोजुओं कि चेली की तरह ही. और तिस पर कोई उसे कोई गौतम बुद्ध भी नहीं मानता. 'चालू' बेशक लोग गाहे बगाहे कह देते हैं उसे. ये सुन के खुश तो बहुत हुई होगी ना तुम. नहीं ?<br />
...झूठ क्यूँ बोलूं? मैं तो हुआ था.<br />
बहरहाल....<br />
<br />
२)<br />
दो महीने बाद तुम्हारा फ़ोन आता है...<br />
"और जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत हुई तभी तुम भाग गए ठहरे, यहाँ मेरे बोज्यू मरने मरने को हो गए थे, और क्या? कितना बड़ा पाप चढ़ेगा कहा मेरे ऊपर. तुम्हारे चाचा को जो क्या पड़ी होगी मेरे बोज्यू से ये सब कहने की फ़िर? इतना ही लम्बा नाक था तो अपने भतीजे को समझाते. कम हो रा था तो मुझे कह देते सब कुछ. मुझे दिपुली ने बताया तुम भाग गए करके घर से. वहाँ मेरे बोज्यू ऐसे हो गए ठहरे यहाँ मैं तुमसे बात करने को भागी भागी कभी इस बहाने कभी उस बहाने एस टी डी. द कहा ! फ़ोन में तुम्हारे चाचा ने पोहरा दे रक्खा हुआ. मुझसे कहने वाले हुए खबरदार डुमरी जो तुमने फ़ोन किया. डूम कहने वाले हुए मुझसे. डूम. मैंने ऐसा अनम सुना ना जन्म. लेकिन उस दिन, उस दिन सब सुना मैंने. मैंने ये भी सोचा फ़िर तुम्हारी गलती थोड़े ना हुई. और कौनसा जो मैंने तुम्हारे चाचा के साथ रहना है ? पर दो महीने होने को आते हैं. तुमको जो मेरा जरा भी निशाश लगा ठहरा. फ़िर में कैसी हूँ जिन्दा भी हूँ कि नहीं..." और भी पता नही क्या क्या कहती हो तुम. मुझे कुछ याद नहीं. हाँ मुझे पीछे से आती तुम्हारी सहेली ही आवाज़ अब तक याद है, "आंसू देखो ढ्वाला के फ़िर ! रो तो ऐसे रही है जैसे अब जन्म भर बात नहीं करेगी."<br />
बेशक तुमने जो जो कहा वो याद नहीं पर एक बात जो नहीं कही वो ज़रूर याद है. इतने लम्बे कनवरसेशन में तुमने एक बार भी मुझे 'भ्यास' नहीं कहा.<br />
ये होली से ठीक एक दिन पहले की बात थी.<br />
<br />
<br />
३)<br />
तुम्हारा जन्म दिन २७ अक्तूबर....<br />
वो गणित वाले मा'साब क्या कहते थे, "च्यालों ! कुंजी से देख कर सवाल लगाओगे तो कुछ याद नहीं रहेगा. मेहनत करोगे तो कभी नहीं भूलोगे...."<br />
...मोबाइल के इस दौर में भी तुम्हारा नम्बर बस इसलिए याद था कि कुछ महीने पहले बड़ी मेहनत लगती थी इसे मिलाने में.<br />
"हेलो कौन"<br />
.......<br />
"छिः जाने कौन जो होगा फ़िर. आपने बात नहीं करनी तो फ़ोन जो क्यूँ किया. बिल आ रा होगा आपका."<br />
.......<br />
"धर दे कहा फ़ोन. इस फ़ोन के वजह से कितनी नोटंकी हुई ठहरी और तू अब भी..."<br />
.......<br />
"धर कहा ना मैंने"<br />
"हाँ मैं राकेश."<br />
"अरे राकेश दा. बोल क्यूँ नी रे ठहरे फ़िर? आज जो कैसे फ़ोन कर दिया?"<br />
"तेरा जन्मबार हुआ. बरस दिन का दिन."<br />
"हो गया कहा ! तुम भी ना. तुमको जो कैसे याद रही फ़िर?"<br />
"मैं राकेश नहीं दर्शन...."<br />
"..........."<br />
<br />
ना तुमने कहा कि आइन्दा कभी फ़ोन मत करना ना मैंने आज तक किया...<br />
नहीं तो होने को क्या थे छह नम्बर बस 200143. (05962 के बाद.). और अबकी तो किपेड भी लॉक नहीं था.<br />
...यकीन करोगी इतने सालों बाद भी लगता है कि तुमको फ़ोन करूंगा तो बात वहीं से शुरू होगी जहाँ पे खत्म हुई... ..ना ना बात ख़त्म ही कब हुई?<br />
<br />
<br />
४ )<br />
जब मैं ये सब लिख रहा हूँ. इस रिश्ते के 'डोक्युमेनटेड एडिशन'.अपने आप को भी साथ साथ पूर्ण विश्वाश दिला रहा हूँ कि बस हो गया. बहुत हो गया. एवरीथिंग इस पास्ट नाऊ. एवरीथिंग...</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-52777736870702258152011-03-07T19:39:00.000-08:002012-01-04T06:10:28.320-08:00इस पार प्रिये तुम हो...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
"हर चाह अंत में उदासियाँ ही देती हैं, पूरी न हो पाने पर भी, और पूरी हो जाने पर तो और भी अधिक. हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख.<br />
प्रेम की परिणिति हिज्र और जीवन की मृत्यु !"<br />
<br />
"और वो चीज़ें जिनका प्रारब्ध दुःख है?"<br />
<br />
"इंसान कोई ऐसी चीज़ शुरू ही क्यूँ करना चाहेगा जो दुःख से ही शुरू होती हैं ?"<br />
<br />
"बाई द वे. माना वो खुद हो गयी तो, इंसान का तो वैसे भी ज्यादातर चीज़ों में कोई वश नहीं है, तो माना कोई ऐसी चीज़ जो दुखों से प्रारंभ हुई तो?"<br />
<br />
"तो यकीनन उसका अंत आनंद में ही होगा."<br />
<br />
"ऐसा इतने यकीन से कैसे कह सकते हो तुम?" <br />
<br />
"क्यूंकि कोई चीज़ यदि दुखों और उदासियों से प्रारंभ हुई तो हमारे लिए उसमें खोने को कुछ भी नहीं. निर्वात, ईथर के बाद तो कुछ खोया ही नहीं जा सकता."<br />
<br />
"इसका मतलब तो हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति भी प्रसन्नता ही है दुःख के रास्ते बेशक."<br />
<br />
"इंटलैक्च्युअल हो गयी हो मेरे साथ रहते रहते." <br />
<br />
"यानी इंसान किसी चीज़ की चाह ही न करे?"<br />
<br />
"पता नहीं मुझे नहीं मालूम.पर मैं 'कम से कम' चाह करता हूँ, कुछ चाहें न चाह के भी पैदा हो जाती हैं, जैसे तुम्हारी, जैसे इस सिगरेट की."<br />
<br />
"हाँ पर कुछ चाहें अच्छी होती हैं, कुछ बुरी."<br />
<br />
"सारी चाहें बुरी ही होती हैं."<br />
<br />
"मुझे नहीं पता तुम क्या कह रहे हो."<br />
<br />
"मुझे नहीं पता मैं क्या सोच रहा हूँ."<br />
<br />
"अकेले मत रहा करो ज्यादा."<br />
<br />
"तुम्हारा 'अकेले-पन' से क्या मतलब है?"<br />
<br />
"अकेलापन मतलब अकेलापन... लोनली-नेस... सिम्पल ! मैं तुम्हारी तरह इंटलैक्च्युअल नहीं हूँ."<br />
<br />
"बात इंटलैक्च्युअलनेस की नहीं बात अकेलेपन की है. जिसे तुम अकेलापन कहती हो, उसे ही मैं भी अकेलापन मानता हूँ... यकीनन... <br />
...और हो सकता है वो बुरा भी हो, पर जानती हो अगर मैं किसी और के साथ हूँ, नॉट टू मेंशन, तुम्हारे सिवा, तो मैं और भी अकेला हो जाता हूँ, अनुभव की बात बता रहा हूँ तुम्हें कोई इंटलैक्च्युअल या फिलोस्फिकल बात नहीं. किसी और से बात करूँ तुम्हारे सिवा, तो वो मैं नहीं कर रहा होता हूँ, मेरा 'मैं' और ज्यादा अकेला हो जाता है, वो खुद को भी नहीं पाता वहां पर."<br />
<br />
"औरों से तो बड़े हंस हंस के बातें करते हो. मेरे पास आकर ही पता नहीं क्या हो जाता है?"<br />
<br />
"तेरे पास आकर मेरा मूड बदल जाता है....<br />
...जोक्स अपार्ट, दरअसल ये हंस हंस के बात करना, औरों से, स्व को भुला देना है, बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट्स के.मैं न तुम्हारे सामने झूठा उदास होता हूँ, न दूसरों के सामने झूठा खुश. न तुम्हारे सामने और न औरों के सामने मुखौटा. ये सब नेचुरल अवस्थाएं हैं. ऐसा मुझे लगता था पहले." <br />
<br />
"और अब ?"<br />
<br />
"फिर लगा कि इनमें से कोई एक ही अवस्था नैसर्गिक हो सकती है बाकी सब ओढ़ी हुई."<br />
<br />
"और अब?"<br />
<br />
"अब? ...अब लगता है कि मेरा पूरा वाह्य अस्तित्व झूठ में ही टिका हुआ है. खुद अपने को भी धोखा देता हुआ. खुद को भी धोखे में रखे हुए. बल्कि सबसे ज्यादा खुद को धोखे में रखे हुए. ये मैं ओढा हुआ है. अब भी जब तुमसे बात करता हूँ तब भी ओढा हुआ है. शायद कभी अपने को इंटलैक्च्युअल और कभी अपने को उदास सिद्ध करने को, कभी तुम्हारे एप्रिसीएशन के लिए कभी तुम्हारी सांत्वन के लिए. पर जानती हो मैं ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहना चाहता."<br />
<br />
"तो?"<br />
<br />
"तो... लेट्स सी ! <br />
मुझे मालूम है मुझे क्या 'नहीं करना' पर नहीं जानता कि क्या 'करना' है? और सबसे बुरी बात कि जो मुझे मालूम है मुझे 'नहीं करना', वो मैं अब भी कर रहा हूँ. जैसे, तुमको ये सब बातें बताने का कोई औचित्य नहीं है सिवाय इसके कि अपने को और और अधिक इंटलैक्च्युअल और अधिक उदास सिद्ध कर सकूँ या अपने को और अधिक तुम्हारे पास ला सकूँ. पर मैं इतना यूज़ टू हो चुका हूँ इन सब से कि सब कुछ ऑवियस सा लगता है. दरअसल मैं और हम सब...<br />
...'हम सब' कहीं और कहूँगा या लिखूंगा तो लोग कहेंगे कि अपनी बात करो मियाँ, हमारे बारे में कोई राय मत बनाओ, और सही भी है. मुझे नैतिक और आध्यात्मिक दोनों ही नज़रिए से अधिकार नहीं है किसी के विषय में कोई राय बनाने की.बहरहाल अभी केवल तुम हो तो कह रहा हूँ...<br />
...मैं और हम सभी सबसे ज्यादा अपने दोषी हैं. बड़े से बड़े अपराधी का भी सबसे बड़ा विक्टिम वो खुद है. जो अपने अन्दर के विक्टिम को पहचान जाता है वो सेल्फ पिटी करने लग जाता है. जो अपने अन्दर के अपराधी को पहचान जाता है वो प्रायश्चित !<br />
जो अपने अन्दर के किसी भी स्व को नहीं पहचानता वो चलता रहता है, बिना किसी भार के. पर क्या तुम नहीं मानती की ये भार, ये अफ़सोस आवश्यक है, ये माज़ी जरूरी है, चिर नूतन रहने के लिए?"<br />
<br />
"तुम घर छोड़ के भागना तो नहीं चाहते हो कहीं?"<br />
<br />
"तुम मुझपर कितना विश्वास करती हो? चलो छोड़ो ये सवाल नहीं पूछूँगा. बल्कि तुमसे कहूँगा कि तुम मुझपर अँधा विश्वास करके देखो.क्यूंकि न जाने क्यूँ अभी भी लगता है मुझे तुम्हारे विश्वास की जरूरत है. तुम्हारा विश्वास, तुम नहीं जानती, कितना बड़ा संबल है, मेरे लिए अब भी."<br />
<br />
"मतलब?"<br />
<br />
"मतलब ये कि भागते वो लोग हैं, जिन्हें किसी चीज़ कि तलाश होती है.दौलत, शोहरत, एकाकीपन, प्रेम, इश्वर..."<br />
<br />
"तो क्या तुम्हें किसी चीज़ कि तलाश नहीं है?"<br />
<br />
"तलाश? तलाश उस चीज़ कि कैसे करूँ जिसे मैं नहीं जानता ? फ़र्ज़ करो तुम कहो कि तुम इश्वर हो. मेरे सामने इश्वर... पिछले आठ सालों से सबसे ज्यादा मेरे पास..."<br />
<br />
"बकवास ! मैं तो..."<br />
<br />
"नहीं ? चलो फ़र्ज़ करो मैं कहूँ कि मैं इश्वर हूँ. तो क्या तुम मान लोगी? ...इसके साथ आठ साल रही हूँ मैं, इसमें इतनी कमियाँ, इतने अवगुण. इश्वर तो वो होता है जो २०१० के कैलेंडर मैं है. इश्वर तो वो होता है जिसकी दो आँखें बारह हाथ होते हैं. इश्वर तो बहुत हेंडसम, अल्टीमेट होता है...<br />
..और सबसे बड़ी बात इश्वर तो इंसान का बनाया होता है. इंसान नहीं....<br />
...तो नहीं मैं किसी भी चीज़ कि तलाश में नहीं हूँ."<br />
<br />
"तुम पागल हो."<br />
<br />
"नहीं मैं इश्वर हूँ."<br />
<br />
"एक ही बात है."<br />
<br />
"तुमने इश्वर को पागल कहा, पाप लगेगा."<br />
<br />
"मैंने एक पागल को इश्वर कहा, इसका पुण्य मिलेगा."<br />
<br />
"चलो छोड़ो ! पाप पुण्य... कोई ऐसी बात क्यूँ न करें जो दो प्रेम करने वाले करते हैं, जब वो मिलते हैं?."<br />
<br />
"सोचती हूँ दुनियाँ में कितने जोड़े होंगे प्रेमी प्रेमिकाओं के जो ऐसी बातें करते होंगे." <br />
<br />
"तुम कितनी लकी है सोचो ! <br />
...जोक्स अपार्ट आई एम जेन्युनली वैरी सॉरी, मैं क्या करूँ न मुझसे गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की बातें हो ही नहीं पाती. गलत है पर ऐसा है."<br />
<br />
"कभी कभी करनी चाहिए."<br />
<br />
"क्या? क्या करनी चाहिए?"<br />
<br />
"वही... गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की और 'मेरी' बातें."<br />
<br />
"तुम खूबसूरत हो और दुनिया में सबसे अच्छी. और तुम खूबसूरत और अच्छी नहीं भी होती तो तुम वो तो हमेशा ही रहोगी जिसने मेरी दुनियाँ खूबसूरत बनाई थी."<br />
<br />
"और अब? क्या वो अब खूबसूरत नहीं?"<br />
<br />
"क्या?"<br />
<br />
"तुम्हारी दुनियाँ ?"<br />
<br />
"इससे क्या फर्क पड़ता है."<br />
<br />
"मुझे पड़ता है, कि मैं तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहती हूँ."<br />
<br />
"और तुम? तुम अपने लिए कुछ नहीं चाहती?"<br />
<br />
"तुम खुश तो मैं खुश."<br />
<br />
"तो आ जाओ सब छोड़कर मेरे पास आ जाओ मैं खुश हो जाऊंगा."<br />
<br />
"मैंने सच मैं आ जान है. फिर न कहना."<br />
<br />
"मैंने भी सच में खुश हो जाना है."<br />
<br />
"हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख."<br />
<br />
"तुम मेरा मजाक बन रही हो."<br />
<br />
"नहीं मैं तुम्हारी बातें दोहरा रही हूँ."<br />
<br />
"जब बिना माने बातें दोहराई जाएं तो उसे मजाक बनाना ही कहते हैं."<br />
<br />
"मैं तुम्हारी बात स्वीकार ही नहीं करती बल्कि उसे पहले से ही मानती भी हूँ."<br />
<br />
"तुम यहाँ नहीं आ सकती क्यूंकि तुम्हें आसक्ति है, मैं कहीं नहीं भाग सकता क्यूंकि मुझे भी आसक्ति है. अनिश्चितता का डर, वो हम दोनों की ही है."<br />
<br />
"तो क्या इस डर के निजात पाने के लिए भी कोई क्रांति करोगे अब तुम? कोई युद्ध जैसा कुछ ?"<br />
<br />
"क्रांतियाँ हमेशा युद्ध और तलवार से हों ज़रूरी नहीं. आत्मिक क्रांति, स्व क्रांति आवश्यक है."<br />
<br />
"पर पहले तो तुम ही युद्ध और तलवार की बातें करते थे?"<br />
<br />
"तो सिद्ध हुआ कि मुझमें आत्मिक क्रांति हो रही है." <br />
<br />
"तुम्हारे विचार बूढ़े होते जा रहे हैं."<br />
<br />
"मेरे विचार क्रन्तिकारी होते जा रहे है."<br />
<br />
"तुम एक बूढ़े क्रांतिकारी होते जा रहे हो."<br />
<br />
"क्रांतिकारी कभी बूढ़े नहीं होते."<br />
<br />
"बूढ़े कभी क्रांतिकारी नहीं होते."<br />
<br />
" और क्या कहते हैं तुम्हारे जे. कृष्णमूर्ति? इन गुरुओं-शुरुओं की बातें मत माना करो. ये सब एक से ही होते हैं. सब एक सी ही बातें करते हैं. मैंने खूब पढ़ा है इनको.नाटक हैं सब तुम्हारे, पता नहीं किस नौटंकी खानदान से आते हो तुम.खुद तो परेशान होते हो, मुझे भी संग में करे देते हो. किसी चीज़ से ज़ल्दी से प्रभावित हो जाते हो, और ज़ल्दी ही मोह भंग भी हो जाता है. हो सकता है तुम्हारा मुझसे भी मोह भंग हो जाए कभी."<br />
<br />
"अव्वल तो ऐसा कभी होगा नहीं क्यूंकि तुम कोई धारणा नहीं हो, तुम मेरे लिए मेरे विचारों की तरह चिर नूतन हो.<br />
पर यदि होता भी है ऐसा, यदि तुम्हारे विचारों में ठहराव के कारण मेरा तुमसे मोह भंग हो भी जाता है तो इसमें बुरा क्या है तुम्हारे लिए भी ? <br />
मैं तुम्हारी ही बात करूँगा, क्यूंकि यदि 'मेरा' मोह भंग होता है तुमसे तो मुझे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ना. लेकिन ये तुमारे लिए भी बुरा नहीं है, क्यूंकि सबसे पहली बात मैं कोई इश्वर नहीं हूँ या कोई इतना बड़ा इंसान नहीं हूँ कि मेरे मोह भंग हो जाने से किसी दूसरे को उदासियाँ आये. और अगर मैं तुम्हारी जिंदगी में इतना महत्व रखता भी हूँ तो भी मेरा केवल तुमसे मोह भंग हुआ है, तुमको बुरा कभी नहीं समझा, तुम्हारा विकल्प कभी नहीं ढूँढा. और जिसे तुम प्रेम कहती हो उसकी तो सबसे अच्छी परिणित ही है मोह भंग हो जाना, अन्यथा सोचो लोग या तो प्रेम में अपने से नफरत करने लग जाते हैं या दूसरे से, अपने को प्रताड़ित करने लगते हैं या दूसरे को.<br />
तुम क्या समझती हो दो लोग जो एक दूसरे को अगाध प्रेम करते हैं उन्हें किस तरह से अलग होना चाहिए? सबसे बेस्ट मेथड क्या है जुदा होने की ? लड़ के झगड़ के ? अपने या/और दूसरे को उदास कर के? अपने या/और दूसरे को उलाहने देकर? इससे अच्छा तो ये है कि दोनों सोच समझकर, जान बूझकर, एक दूसरे कि खुशियों कि कामना करते हुए अलग हों, और ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तो दोनों के पास ठीक एक ही समय में दूसरा कोई विकल्प न हो (और फिर उस दूसरे विकल्प में भी वही परेशानियां) या फिर दोनों का ही ठीक एक समय में मोह भंग हो जाए. और मोह भंग होना भी प्रेम होने कि तरह एक स्व-जनित प्रक्रिया है. तुम्हारा भी हुआ था, मेरा भी हो सकता है. एक ही समय में हो ज़रूरी नहीं.<br />
प्रेम कब एक साथ होता है ? एक को होता है दूसरे को प्रतिक्रिया स्वरूप होता है. और फिर दोनों को प्रेम हो जाता है एक दूसरे से. मोह भंग होना भी ऐसा ही है, एक का मोह भंग हुआ दूसरे का प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ. और फिर दोनों का मोह भंग हो जाता है एक दूसरे से. बिना नफरत के, बिना द्वेष के, क्यूंकि यदि कोई भी अच्छी या बुरी भावना रही एक दूसरे के प्रति तो मोह भंग होना कैसे ठहरा ये ? <br />
पर नहीं ये सब कहने के बावजूद मेरा तुमसे मोह भंग नहीं होना कभी. क्यूंकि तुम तो फिर भी 'ख्वाब' हो कोई हकीकत नहीं. यहाँ तो दिल का ये आलम है कमबख्त कि उसका हकीकतों से ही अब तक मोह भंग नहीं हुआ.<br />
<br />
और रही बात प्रभावित होने की तो मैं या तुम उसी वस्तु से देर तक या हमेशा प्रभावित होते रहते हैं जो हमारे लिए कोई न कोई सुख प्रदान करता हो. हर कोई जीवन के प्रति अपनी कोई धारणा बना लेता है. जिससे की जीना आसन हो पाए.<br />
मेरी जीवन के प्रति बहुत पहले से ही आध्यात्मिक धारणा रही है. मेरी उदासियाँ मेरी खुशियाँ आध्यात्मिक हैं. इश्वर यकीनन कहीं नहीं है.<br />
कोई एक आदमी अत्यधिक उदास या अत्यधिक खुश होता है तो वो शराब पीता है, कोई दूसरा कुछ लिखना शुरू कर देता है, कोई एक अपने प्रेमी अथवा प्रेमिका को प्रेम अथवा याद करने लग जाता है, कोई और इश्वर के ध्यान में चले जाता है, या तो उसका शुक्रिया अदा करता है या उसे याद करता है क्रमशः. <br />
किन्तु मैंने देखा की मैं इन दोनों ही 'परम' स्थितियों में अंतर्मुखी हो जाता हूँ."<br />
<br />
"कैन आई हग यू ?"<br />
<br />
"नो वेज़."<br />
<br />
"प्लीज़..."<br />
<br />
"एवरी हग इंडज़ विद सेपरेशन."<br />
<br />
"बट एवरी हग हेज़ इट्स ओन, यूनिक सेपरेशन-एक्सपिरीयेन्स. एट लीस्ट फॉर द सेक ऑव डेट यूनिक एक्सपिरीयेन्स, हग मी... डैमेट ! हग मी !!"</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-49148941382191957072010-09-13T09:04:00.001-07:002010-09-13T09:04:48.435-07:00एक चिट्ठी जो कल मिलीजितनी भी कॉल आती हैं यू. एस. से उनमें कम से कम नब्बे प्रतिशत कॉल स्त्रियों की होती हैं .<br />
लगता है कि उत्तरी अमेरिका में पुरुषों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और ये समस्या मेरे लिए किसी भी 'माओवादी' , 'जैसिका मर्डर मिस्ट्री ' , 'ग्लोबल वार्मिंग' , 'महंगाई', 'पाकिस्तान' , 'लुप्त होती संस्कृत और संस्कृति' से ज़्यादा मायने रखती है, और इसके लिए (मतलब इस समस्या से अमेरिका को निजात दिलाने के लिए) अपना योगदान करना चाहता हूँ, कुछ भी जो भी मुझसे बन पड़े. ठीक एक पुरुष के बराबर योगदान. <br />
(उपर्युक्त कथन कल देखी गयी डॉक्युमेंट्री 'एन इनकनविनियेंट ट्रुथ' से प्रेरित नहीं है. ) <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
ठीक इसी तरह जब यू. के. के कॉल सेंटर में था तो ऐसा लगता था कि सब जवान गायब हो गए हैं, साले सब बूढ़े ही कॉल करते थे. (ठरकी, चाटू...)<br />
मैं ये ही मानता आया था कि यू. के. और उत्तरी अमेरिका में भी रूस की तरह क्रांति हुई होगी जिसमें सारे युवा, पुरुष और युवा-पुरुष मारे जा चुके होंगे.<br />
बाद में पता चली कि इंग्लॅण्ड में वहाँ की सरकार ने लोगों को बूढ़े होने के लिए इतनी ढेर सारी सुविधाएं दी हुई है, जितनी यहाँ, मेरे देश में, मरने के लिए. तो वहाँ लोग बूढ़ा होना उतना ही पसंद करते हैं जितना भारत में मरना .<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
उन आंग्ल-कन्याओं के लिए आम बात होती होगी 'हनी' , 'लव' , 'स्वीट हार्ट' से बात शुरू करना और 'ओह ! यू आर माय डार्लिंग', 'कम फॉर डिनर' पे बात ख़त्म करना , पर मुझ जैसे 'आम-काम-कुंठित-भारतीय' का तो....<br />
BTW: तो उनके लिए क्या क्या आम बात होती होगी? या ये आम बातें किस हद तक जा सकती हैं?<br />
मुझे याद है, सबसे पहली वाली 'पहली तारीख' को तो मेनेजर से पूछ भी बैठा था...<br />
"अरे वाह ! सैलरी भी मिलेगी?"<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
पर सच बताऊँ...<br />
आजकल मेरी इस ड्रीम कंट्री की ही एक कॉल ने परेशान कर रखा है.<br />
नाम ? दीप्ती.(हाँ हाँ इडियट... इंडियन !!)<br />
एक तो बिच (मायने डाइल्युट हुए ? असल में गुलज़ार सा'ब ने कहा था "अंग्रेजी में अश्लीलता के मायने डाइल्युट हो जाते हैं." या ऐसा कुछ. ) रोज़ कॉल कर के दो दो घंटे पकाती है और उसपर कुछ खरीदती नहीं ( क्रोसीन वो भी नीट ओल्ड मोंक चढ़ी ).<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
मेरी सीट के बगल में बैठने वाली...<br />
नाम ?<br />
(रुको ! रुको !! शर्माने लजाने वाला मुखोटा कहाँ गया?)<br />
आँचल.<br />
कट ! फ़िर से....<br />
हाँ तो आँचल, जो मेरे बगल में, (जाहिर है बगल की सीट में) बैठती है और संयोग से शादी भी करने वाली है.<br />
संयोग उसके होने वाले पति का नाम है. (आप लोग भी ना !!) मेरी तो बस प्रेयसी है वो.<br />
कट !! फ़िर से....<br />
हाँ तो आँचल को भी शक होने लग गया कि मेरे और इस बिच के बीच<br />
कट !!! फ़िर से...<br />
हाँ तो आँचल को भी शक होने लग गया कि मेरे और दीप्ती के बीच 'कुछ' चल रहा है.<br />
मैं 'कुछ' शब्द भी शिष्टाचार (शिष्टाचार... और मैं ? वैरी फनी !) और इस शब्द के प्रचलन के मारे उपयोग कर रहा हूँ. नहीं तो आँचल को तो मुझपे श़क....<br />
नहीं नहीं श़क नहीं वो तो कुछ से ज़्यादा कुछ होने पे यकीन करती है. उसने कहा भी था मैं तुमपे पूरा यकीन करती हूँ.<br />
कट !!!! फ़ाइनल टेक:<br />
<b><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;">आँचल को पूरा यकीन है की मेरे और दीप्ती के बीच ' बहुत कुछ' हो चुका है.</span></b><br />
"अरे बेवकूफ" (नहीं आपसे नहीं आँचल से )<br />
"सारे कॉल रिकॉर्ड होते हैं, नहीं तो उस दीप्ती से तो नहीं पर किसी अन्य आंग्ल-कन्या से उन लोगों की 'आम बात' और भारतियों की 'वो वाली बात' कितनी बार कर चुका होता. तुम जानती हो आँचल? तुम, दीप्ती और कुछ पुरुष कॉलर तो टॉम एंड जेरी के बीच के बोरिंग विज्ञापन हो मेरे लिए. अच्छा अच्छा सॉरी !! तुम वोडाफोन का जू जू वाला विज्ञापन हो ! खुश !!"<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
तो फ़िर दीप्ति का का फ़ोन आया है...<br />
अब उसे मुझे ये बताने कि क्या ज़रूरत कि उसका पति उसे बहुत मारता है पर प्यार भी उतना ही करता है? भाई अपना फ्लाईट का टिकट खरीदो और चलते बनो. थैंक्स फॉर कालिंग बस !!<br />
वैसे ये सोच के ही कुछ कुछ होता है कि यू. एस. के कांच वाले घरों में एक हाथ से बियर को गले से पकड़कर और दूसरे हाथ से बीवी को गले से पकड़कर 'अवतार' या एन.आर. आइ. घरों में माय नेम इज खान की डी वी डी (जो मूवी नहीं देखते उन्हें बताते चलें कि उद्धरण सही दिए हैं. अवतार अंग्रेजी मूवी है और माय नेम इज खान हिंदी) देखते देखते मारने में क्या फील आती होगी . उस पत्नी को भी मार कितना कुछ याद दिलाती होगी. "हाय ! अगर ये हिन्दुस्तान में होते किस तरह से मारते.विदेशी मार में वो बात कहाँ?"<br />
'थाउजेंड स्पेल्नडिड सन्स' और 'सारा आकाश' जैसी ना जाने कितनी किताबों की सारी मारें उसके आँखों में पानी भर जाती होंगी. और पति महाशय सोचते होंगे की मेरी मार से रो रही है. और मन ही मन अपने पुरुषत्व पे गौरवान्वित होते होंगे .<br />
नई दुल्हन अपने बिछुड़े प्रेमी के बाहुपाश के लिए रो रही है या बाबुल के लिए कैसे पता चले?<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
दीप्ति आगे बोलती है...<br />
"मैं गुजरात से हूँ, मेरा नाम दीप्ती शाह है". ( अच्छा तो ये बात है आँचल को नहीं बताऊंगा. बाकी बातें कौनसा बताता हूँ?)<br />
"मेरी शादी को १० साल ११ महीने हो गए." (वैसे दिन घंटा और सेकेण्ड भी बताये थे.पर वो बिलबोर्ड टॉप ट्वेंटी के गानों की तरह बड़ी ज़ल्दी बदल जाते हैं इसलिए उल्लेख नहीं किया.)<br />
"मैं गायनेकोलोजिस्ट हूँ ."<br />
(मैं नहीं बाबा दीप्ती... क्या... आप लोग भी !! मैं गायनेकोलोजिस्ट ? वॉऊ )<br />
"जब इनसे शादी हुई थी मेरी तो ये जॉब करते थे. बड़े अच्छे थे ये तब. अब भी अच्छे हैं. पर मुझे इन्होंने जॉब नहीं करने दी." (ताकि आप दर्पण साह को ना करने दें. )<br />
<br />
<div style="margin: 0px;">...अब तो अगर किसी और के पास भी उसकी कॉल आती है तो वो एक्सटेंशन १४३ ही मांगती है. और ये एक्सटेंशन किसका है (नो मार्क्स फॉर गेसिंग) ?</div><div>अपने मेनेजर की "नो ! नो !! फ़ोन एटिकेट्स 'भूल गए' क्या?" को 'भूल के' मैंने उसे बीच में टोकते हुए पूछा था...</div><br />
"हाँ तो मैडम लॉस वेगास नेवाडा से कहाँ का टिकट बुक करूँ?" (भावार्थ: साले टुच्चे इंडीयंस ! बकवास ज़्यादा करेंगे ! अभी तक कोई 'लिसा', 'जूडी', 'एलिजाबेथ' होती तो क्रेडिट कार्ड डिटेल दे रही होती, या जाते जाते कह रही होती " ओ माय डार्लिंग !! यू मेड माय डे !!")<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
जितना विपक्ष के लिए महंगाई और मेरी कहानियों के लिए ढेर सारे कोष्ठक अपरिहार्य हैं वैसे ही बी. पी. ओ. के लिए म्यूट का बटन. <br />
सारी कुंठाएं कहाँ जाती नहीं तो? जैसा आप लोग सोचते हैं वैसा कुछ (भी) नहीं होता अब यहाँ. आखिर हमने देखा है तजरुबा (नहीं) करके. (क़ाश... बी. पी. ओ. के बारे में मेरे द्वारा सुनी गयीं 'वो' सब दन्त कथाएँ सच होतीं)<br />
<br />
आँचल (म्यूट में ): कौन है?<br />
मैं (म्यूट में):कोई नहीं.<br />
"झूठ मत बोलो"<br />
"दीप्ति"<br />
"झूठ मत बोलो"<br />
"अच्छा वो नहीं है"<br />
"झूठ मत बोलो"<br />
"मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ"<br />
"झूठ मत बोलो"<br />
"तुम बहुत खूबसूरत हो"<br />
"सच्ची?"<br />
"तुम्हारी कसम."<br />
कितनी अनुचित बात है...<br />
एक ये कि आपको अपराध करने का सुख भी नहीं मिल रहा और दूसरी ये कि आपके पास अपनी प्रेमिका को बताने के लिए सब सच (उफ्फ्फ्फ़ !!) बातें हैं. वो तो प्रेमिका ही है जो आपकी बातों पे विश्वास ना करके प्रेम को एक्साइटिंग बनाये हुए है. और आप कम से कम इतने खुश तो हो ही जाते हैं कि आप भी श़क करे जाने लायक हैं.<br />
बहरहाल दीप्ती म्यूट में है और बोली जा रही है. उसे कोई सुनने वाला चाहिए...<br />
"मैं चोर नहीं हूँ ! मुझे चोरी से नफरत है !!"<br />
खैर छोड़ो, उसने कितनी बकवास की और क्या क्या कहा जब मुझे ही नहीं मालूम तो आपको क्या बताऊँ?<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div style="margin: 0px;"><br />
</div><br />
आपको ये भी बता दूं कि ये सब बातें आपको क्यूँ बता रहा हूँ...<br />
उसका कारण है ये लैटर है जो कल यू. एस. की जानिब से आया है (दीप्ती के बदले यू. एस. कहना अच्छा लगता है और फ़िर आँचल के हाथे लग गयी ये बकवास तो?)<br />
और हाँ ये पत्र मैंने नहीं लिखा है इसलिए यदि मेरी कहानी सा अद्भुत शिल्प, अद्भुत कथ्य, और अविस्मरणिय रस निम्न पत्र में ना मिले तो मेरे पास दीप्ती का एड्रेस है, और वो खूबसूरत भी है ! ना ना उसकी फोटो नहीं है मेरे पास. सिद्धांततः कह रहा हूँ (सिद्धांत : विश्व में ९० प्रतिशत लड़कियां खूबसूरत होती हैं, बाकी? ...बाकी १० प्रतिशत बहुत खूबसूरत).<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b><br />
</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>"प्रिय दर्पण ,</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>जानती हूँ कि तुम मुझसे बहुत छोटे हो. वैसे भी एक औरत की उम्र बड़ी तेज़ी से बढती है, वो बड़ी तेज़ जवान होती है और उतनी ही तेज़ बूढी. तो अगर तुम मेरी उम्र के भी हो तो भी तुम मुझसे छोटे हो . और इसी विश्वास के साथ तुम्हें अपना छोटा भाई बनाने वाली थी, पर पता नहीं क्या सोच कर...</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>...वैसे भी कहीं पढ़ा था कि कई बार हम अनजाने लोगों को बातें आसानी से बता देते हैं.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>कारण?</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>हमें तो अपनों ने लूटा टाइप.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>तुम्हें भाई भी एक रिश्ते को झूठा नाम देना ही तो था...</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>कहीं किसी तरह ये चिट्ठी 'राकेश' को पहुँच गयी तो मैं अपने बचाव में कुछ कह सकूँ बस इसलिए. और उनसे टूटते रिश्ते को कम से कम अपनी तरफ से तो बचा दूं . अभी तक मैं ही तो बचाती आई हूँ . कई बार बच्चों के सिवा कोई और कारण नहीं रह जाता दोनों के साथ रहने के.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>तुम वैसे मेरे लिए सिर्फ टोल फ्री नंबर ही तो थे, जहाँ पे फ्री कॉल करके ढेर सारी बातें कर सकती थी. जबकि मुझे पता था कि तुम मुझसे बात करना पसंद नहीं करते. और ना ही तुम्हें मेरी बातों में कोई दिलचस्पी है. यकीन करो मुझे पहली ही कॉल में ये पता चल गया था. पर फ़िर भी तुम्हारा कोई विकल्प ना तलाश किया ना तलाशने की कोशिश , शनिवार रविवार को जब तुम्हारा ऑफ होता था, मैं तुमसे बात करने के लिए तरस जाती थी. तुम्हें तो पता ही है कि 'ये' भी घर में ही रहते हैं, मैं ही जानती हूँ मैं कैसे मेनेज़ करती थी तुमसे बात करना . ठीक जैसे वो 3 डॉलर मेनेज़ किये थे. (आज जब मैं तुम्हें ये 3 डॉलर वाली बात लिख रही हूँ तो मुस्कुरा रही हूँ.)</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>हाँ अब भी ये घर में ही रहते हैं और मेरी वो हेयर डाई बालों से उतरने लगी है जिसके लिए ३ डॉलर चुराए थे. मैं तुम्हारे सामने कितनी ही बड़ी कितनी ही समझदार बनने की कोशिश करूँ, मैं एक आम औरत हूँ और मुझसे भी वो सब बहुत पसंद था इन्फेक्ट है.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>बात बस इतनी सी है कि उम्र कैद और एक निश्चित समय की सजा में 'उम्मीद' का फर्क होता है.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>और हाँ इस बार तुम्हें ये लैटर लिखने के लिए कोई चोरी नहीं की. ( मैं भी कैसे तुम्हें अपना सब कुछ बताती चली गयी ना?)</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>वैसे मैंने बालों को डाई करना बंद कर दिया है, और रुपये चोरना भी. हाँ मगर अपने बचाव में कुछ कहूं?</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>मैंने चोरी की ही कब थी ? उन पैसों पे जितना हक़ उनका था उतना ही मेरा. तो मैं डर क्यूँ रही थी? और आज भी जबकि ...</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>जबकि जानती हूँ बातों और चिट्ठियों से शारीरिक इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती हैं...</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>फ़िर भी मैं यकीनन कह सकती हूँ कि इस लैटर को पोस्ट करने में मैं पसीने-पसीने हो जाऊँगी. या शायद पोस्ट ही ना कर पाऊं. हाँ अपने मेनेजर से कह के अपने फ़ोन के म्यूट का और होल्ड का बटन ठीक करवा लेना. क्यूंकि मैं शायद पागल थी जो उन शब्दों को सुनने के बाद भी तुम्हें कॉल करती थी . बल्कि सच तो ये है कि शायद उन्हीं शब्दों कि वजह से तुम्हें बार बार फ़ोन करती थी. कोई और शायद पसंद ना करे.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>पढने और सुनने के लिए धन्यावाद.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>'बिच' दीप्ती."</b></span><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<br />
यकीन करें ये चिट्ठी मुझे बिल्कुल समझ नहीं आई. नहीं तो एक कहानी ही लिख देता इसपे. बहरहाल...<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-90388036758927469442010-09-09T12:50:00.001-07:002010-09-09T12:50:38.760-07:00मुक्तिपिछले आधे घंटे से बिस्तर से उठने वाली उमस से आप यूँ ही जद्दोज़हद कर रहे होते हैं. देर से उठके दिन को बदला नहीं जा सकता और सपने अपनी मर्ज़ी के नहीं देखे जा सकते इसलिए लगभग दौ सौ अस्सी "उठ गए", ठंडी चाय, स्नूज़ अलार्म और १२ मिस कॉल आपको जगाने में सफल हो ही जाती हैं. <br />
बाथरूम से कई सारी आवाज़ें आ रही है...<br />
शावर के पानी के बीच....<br />
"सजना है मुझे सजना के लिए... उठे? कि... नहीं?"<br />
आपकी 'कुंठाओं की कल्पनाशीलता' बड़ी दूर तक जाके रूकती है.आखिर कोई आपके लिए, बस आपके लिए सजता है. <br />
सहसा आपको याद आता है कि आपकी जेब में १७ रुपये ही हैं. तो आप उसका पर्स खोलते हैं. वो नहा के आते हुए आपको देख लेती है. आप अपने बचाव में उसके होठों में एक चुम्बन अंकित कर देते हैं. वो प्रभावित होकर भी नहीं होने का झूठा नाटक करती है.वो अपना पर्स आपसे छीनती है और ५० रूपये आपके बिस्तर के ऊपर फैंक देती है. आप ठंडी चाय उठाते हैं और ग्लास ठीक उसके पैरों में फैंक देते हैं. <br />
"तुम मेरे ऊपर ये एहसान करना बंद क्यूँ नहीं करती?"<br />
आप उसकी कलाइयों को पकड़ के पीछे कि तरफ मोड़ देते हैं. वो गर्दन ऊपर उठा के सिसकियाँ लेती है बोलती कुछ नहीं. जब आप देखते हैं कि उसकी कलाइयाँ लाल हो गयी हैं और वो "ओह ! मम्मा..." कह के हाथ छुड़ाना चाह रही है तब आप उसकी कलाई छोड़कर उसपर एक और दया करते हैं. <br />
वो अब भी कुछ नहीं कहती तो आपको खीज होना लाज़मी है. <br />
"अच्छा लगता है ना तुम्हें मुझसे बड़ा बनकर."<br />
...आप लगातार बडबडा रहे हैं...<br />
"ये दया है जो तुम मुझ पे करती हो.और तुम अच्छी तरह से जानती हो."<br />
वो किचन की चाबी आपके हाथों में पकड़ा के आपके माथे को चूम के, रात की सूजी हुई आँखों से घर से बाहर निकलती है.<br />
आप इग्नोर्ड महसूस करते हैं. और उसके घर से बाहर निकलते ही उसे फ़ोन करते हैं.<br />
२५-३० कॉल के बाद वो फ़ोन उठाती है <br />
"मैं मीटिंग में हूँ."<br />
आप उसका फैंका हुआ ५० का नोट उठाते हैं और नीचे के खोमचे में सिगरेट लेने के लिए निकल पड़ते हैं. आपकी नज़र उसके अन्तः वस्त्रों में पड़ती है और आपकी आँख बदले की भावना से चमक उठती हैं. <br />
"आने दो आज उसे ! चाहे कितना ही ऊपर उड़े आना तो उसे नीचे ही है." <br />
आपको पता ही नहीं चलता की पिछले ४ सालों में रूम शेयरिंग कब लिव इन रिलेशन में लिव इन रिलेशन कब प्रेम में प्रेम कब सेक्स में और सेक्स कब युद्ध में बदलता गया? <br />
(कम से कम आपकी तरफ से.) <br />
आप नीचे खोमचे में सिगरेट के लम्बे लम्बे कश खींच के जैसे ही वापिस रूम में आते है देखते हैं ३ मिस कॉल, कॉल बैक करते हैं.<br />
"मेरा फोन क्यूँ नहीं उठाया."<br />
उधर से कोई आवाज़ नहीं आती. तो आप ही...<br />
"ठीक है मीटिंग में थीं पर मैं तो तुम्हारे घर से निकलते ही फ़ोन कर रहा था."<br />
"शाम को ऑफिस से आते वक्त कुछ लाना है?"<br />
"मेरा फ़ोन क्यूँ नहीं उठाया?"<br />
"साएलेंट मैं था ! कुछ लाना है आते वक्त?"<br />
"एक और एहसान" आप उसे सुनाते हैं कहते नहीं.<br />
फ़ोन डिस्कनेक्ट हो जाता है.<br />
रीडायल...<br />
"सुनो"<br />
"हम्म.."<br />
"एक क्वार्टर ले आना सस्ता वाला ही सही ! और कुछ स्नेक्स."<br />
आप एक्स्पेक्ट करते हैं कि वो पिछली के पिछली बार की तरह कहेगी<br />
"मैं कैसे वाइन शॉप ?"<br />
पर वो कुछ नहीं कहती. तो आप पूछते हैं...<br />
"तुम कैसे ?"<br />
आप एक्स्पेक्ट करते हैं की वो पिछली बार की तरह कहेगी... <br />
"ऑफिस में बहुत हैं जो तुम जैसा शौक रखते हैं."<br />
पर वो कुछ नहीं कहती . अब आप उसे सुनाते हैं कहते नहीं....<br />
"हाँ तुम्हारे तो ढेर सारे पुरुष मित्र हैं हीं. वैसे तुम भी कोई कसर तो नहीं ही छोडती होगी. गलत भी क्या है. आदमी को अपनी कमजोरियां ना भी पता हों पर स्ट्रेंथ तो पता होनी ही चाहिए. आगे बढ़ने में बड़ा काम आती हैं. ठीक ही तो है."<br />
फ़ोन फ़िर डिस्कनेक्ट हो जाता है.<br />
"साली ! बिच !!"<br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><u><b>XXX </b></u></span></div><br />
अब आप अकेले हैं, खुद से भी लड़ लिए उससे भी. खाना खाने का मन नहीं है. गुनाहों का देवता....<br />
आप पढ़ते पढ़ते याद करते हैं कैसे रात भर बैठ के उसने आपको ये किताब पूरी सुनाई थी. आप याद करते हैं कब कब और कितनी कितनी बार वो रोई थी और आप हर बार उसके रोने पर मुस्कुराये थे. वो मुंह टेढ़ा करके कैसे आपक चिढाते हुए और अपने आंसुओं को छुपाते हुए... आगे पढना शुरू करती थी? एक एक डिटेल याद है आपको. एक एक !!<br />
और हाँ , वो...<br />
कैसे किताब के पूरा ख़त्म होने पर उसने आपके बगल में बैठकर आपकी एक बाँह में अपनी बाँहों का घेरा डाल दिया था. आपके कन्धों में अपना सर रखा था.<br />
और... और...<br />
कैसे उसके नमकीन आंसू आपने होठों से चखे थे. तब, उसकी वो हिचकियों के बीच हंसी !<br />
"पागल हो तुम ! एक दम! "<br />
ठीक ठीक याद नहीं ऐसा कुछ ही कहा था. या बस चुप होके वो आपकी आँखों में देख रही थी...<br />
लेकिन उसकी आँखों ने क्या कहा था याद है न?<br />
"क्या है? जानते भी हो... कितना प्यार करतीं हूँ तुम्हें. "<br />
"क्या देख रही हो?" <br />
"ऐसे ही. बस... ऐसे ही."<br />
तब भी वो कम ही बोलती थी.<br />
लेकिन मौन का भी पैराडाईम शिफ्ट होता है...<br />
आप याद करते हैं कैसे उसे कुछ पन्ने और कुछ लाइंस दोबारा पढने को कह था. <br />
"अगर पुरुषों के होंठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो, तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि संबंधों में दूरी आती जा रही है। संबंधों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुंबन का तीखापन।" <br />
और इस तरह जब आप अभी किताब पढ़ रहे हैं...<br />
...पढ़ते पढ़ते वक्त की गति धीमी हो जाती है... थोड़ी 'वक्त' के बाद 'वक्त' रुक जाता है. और फ़िर एक वक्त ऐसा भी आता है की 'वक्त' पीछे की ओर...<br />
वक्त में कुछ शब्दों के बाँध बन जाते हैं. फिर बनता है समय का भंवर और आप गोल गोल घूमने लगता हैं...<br />
<div style="text-align: center;"><u><span style="font-size: large;"><b><br />
</b></span></u></div><div style="text-align: center;"><u><span style="font-size: large;"><b>xxx</b></span></u></div><br />
"तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा." <br />
मानो उसके ये कहने भर से सब ठीक हो जायेगा. उसकी आँखों में आपकी परेशानियों के आँसू हैं और फ़िर आप कहते हैं...<br />
"तुम चिंता मत करो. सब..." <br />
आज वो आपको व्हिस्की पीने से नहीं रोकती. बस नज़रें नीचे झुका के किसी भी चीज़ को अपने नाखुनो से कुरेदते हुए कहती है "आज के दिन मेरी खातिर मत पियो."<br />
और आप बोट्म्स अप यूँ करते हैं मानो आप प्याला फैंक के कह रहे हों<br />
"लो जानां ! तुम्हारे लिए कुछ भी." <br />
और फ़िर...<br />
वो एहसास अच्छा होता है या बुरा पता नहीं. जब कल का दिन सौ परेशानियाँ लेकर आने वाला है तब लगता है कि उसकी कमर का तीखा वक्र मानो आपके पकड़ने के लिए ही बना है. इतना ज़्यादा भींच लेते हैं आप उसे कि...<br />
...और वो आपकी बाहों में अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार. पूर्ण समर्पण !<br />
'ग्यारह मिनट' बाद, आपको अपने से अलग करके वो सौ नम्बर डायल करती है...<br />
"हेलो डॉक्टर सा'अब."<br />
"जी ये पुलिस स्टेशन हैं मैडम."<br />
"कोई नहीं जी आप ही आ जाइये" <br />
तसल्ली से सारी बात 'डाक्टर सा'अब' को बता के, अपना मोबाइल चिहुँकते हुए बेड पर फैंकती है.<br />
"आज फ़िर जीने की तमन्ना है."<br />
थोड़ी देर आपको बड़े प्यार से देखती है. आपके ठन्डे माथे का चुम्बन लेती है. <br />
"बास्टर्ड."<br />
<br />
...अब तक आप 'पूरी तरह से' मर चुके होते हैं.दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-53752623896986271002010-08-26T03:15:00.000-07:002013-01-29T09:41:17.506-08:00लव आज कल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: #660000;">
<b>(इस प्रेम कहानी में लड़की पाकिस्तान नहीं रहती है, लड़का गरीब नहीं है, दोनों के बीच जात-पात का भी कोई बंधन भी नहीं है, प्रेम त्रिकोण,चतुष्कोण भी नहीं है क्यूंकि अनंत कोण अगर हो जायें तो वृत्त बन जाता है, कहानी का कोई स्थूल खलनायक भी नहीं है, और प्रेमिका के भाई भी जिम नहीं जाते हैं.ये सपाट सी बोरिंग वास्तविक-सामयिक प्रेम कहानी है. जिसका सामयिक-पन 'टाइम -प्रूफ' नहीं है और जिसका वास्तव-पन एकाकी न हो के अलग अलग लोगों ने अलग अलग टुकड़ों में जिया है.आप अपना टुकड़ा स्वेच्छा से चुन सकते हैं.या बिना चुने भी रसस्वादन कर सकते हैं. )</b></div>
<div style="color: #660000;">
<br /></div>
<div style="color: #660000;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<br />
जब १५ मिनट की ब्रेक हुई तो वो मुझे माचिस का इंतज़ार करते हुए मिली...<br />
"एक्सक्यूज़ मी लाइटर होगा आपके पास?" <br />
उसने अपने कानों से आई पॉड के हेड सेट हटा के धीर से अपनी लो-वेस्ट जींस की जेब में खोंस लिए.मैंने अपनी जली हुई सिगरेट बिना कुछ बोले उसके हाथों में थमा दी, जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.<br />
<div style="color: #660000;">
<b>नोट: लेखक का उद्देश्य कहानी को सेनसेशनल बनाने का (कतई नहीं) है !</b></div>
बहरहाल. फिर सिगरेट मुझे वापिस कर दी गयी. अभी उसने सर हल्का नीचे करके बालों को हटा के एक तरफ के कान में अपना हेड सेट डाला ही था कि मैं पूछ बैठा,<br />
'एक्सक्यूज़ मी! व्हिच सॉन्ग?'<br />
मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गयी और सेंडिल से ऑफिस की ग्लेज़्ड धरती को एक निश्चित ताल पे थपथापना भी रुक गया उसका... <br />
"हं आ..."<br />
और फिर उसने हल्की सी (हल्की सी का अर्थ सोफेसटीकेटेड लिया जाये) लेक्मे या शायद मेबिलिन मुस्कान (या मेबी शी इस बोर्न विथ इट) से उत्तर दिया...<br />
"एकोन."<br />
"लोनली?"<br />
"न न परेंट्स के साथ रहती हूँ."<br />
"नहीं मेरा मतलब गाना?"<br />
"ओह... अच्छा !" <br />
<br />
जो दूसरा वाला हेड सेट था कॉटन-बड की तरह मेरे कान में खुद ही डाल दिया उसने . कितने धीरे से नजदीक आई थी वो. <br />
उसके कांटेक्ट लेन्सेस के अन्दर से झांकती आँखें किसी इनकमिंग मेल की तरह चमक रही थी, उसके होंठ यूँ लगते थे मानो मैक-डी का म्योनिस. सर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था. <br />
'ब्लेम ओन मी' , किसी आंग्ल ट्रांस भजन की तरह , मेरे कानों में मोनो इफेक्ट के साथ गूँज रहा था. 'अल्ट्रा माएल्ड्स' को आधी पी के ही अपनी सेंडिल से बुझा दी उसने और शिष्टाचार की पराकाष्ठा तब हुई जब उसने दूसरा हेड सेट भी " ओ नो ! गोट्टा गो!!!" कह के अपने कानों से मेरे कानो में लगा दिया. और ८ जी. बी. का आई पॉड मेरे हाथों में थमा दिया. <br />
खट-खट-खट की आवाज़ से धीरे धीरे दौड़ते हुए बोली "अगले ब्रेक में वापिस कर देना." <br />
मेरा एकोन स्टीरियो हो गया ! <br />
अगले ब्रेक में पहचान लूँगा उसे? वैसे उसके चेहरे में एक अजीब सी गेयता थी इसलिए उसे याद करने में कोई दिक्कत नहीं हुई.तभी तो किसी अर्धविक्षिप्त दिमाग के खाली कोटरों में चलने वाले अंतर्नाद की तरह उसका सारा 'य मा ता र', 'फेलुन फाएलुन' और 'डा डम' चेतन के शब्दों से उतर के संगीत की ध्वनियों में बदल गया ,<br />
लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छन्द थी. <br />
मैं अपना ब्रेक एक्सीड कर चुका था.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
यदि प्रेम कहानियों का ऍल. सी. ऍम. लिया जाये तो 'प्रेम से पहले की तकरार' भी उत्तर से पहले आई 'कॉमन अविभाजित संख्याओं' में से एक होगी. <br />
वो मुझसे बोलती ऑल मेन आर बास्टेड्स,<br />
और मैं ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.<br />
लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि ये वैचारिक-द्वन्द तो महिला बिल को पास न करने को लेकर किये गए गुप्त-समर्थन का 'दर्शित-असमर्थन' सा है. <br />
सच्ची... हमारे विचार बहुत मिलते थे...<br />
एक दिन कहा भी उसने, "मुझे शादी के बंधन में बंधना पसंद नहीं है, और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं हैं न, और, हमें ऐसा ही जीवन साथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें. चलो हम शादी कर लें?"<br />
हम लोगों की खूब बातें होने लगी, <br />
इन्टरनल मेल:<br />
("ब्रेक?", <br />
"५ मि." <br />
"ओकी डोकी"<br />
"चलें अब?")<br />
एस ऍम एस, क्लोज़्ड यूजर ग्रुप, याहू मेल, वीकडेज़ के लंच ब्रेक, सुट्टा ब्रेक और वीकेंड में पी. वी. आर., अक्षरधाम, सेण्टर स्टेज मॉल उफ्फ..... (कई बातें करना कितना आसान होता है बताना मुश्किल...)<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
क्रेडिट कार्ड और वोडाफ़ोन के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था. <br />
उसे भी सच में मुझसे प्रेम हो गया था, मेरी ही ख़ातिर तो उसने लोरेल से बालों की स्ट्रेटनिंग कराई थी. और उसकी लो-वेस्ट-जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. (आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.) <br />
जैसा कि उसने क्रमशः की बातों में बताया था,उसका फिल वक्त कोई बॉय फ्रेंड नहीं था, ५ उसे डिच कर चुके थे, २ से उसने बाकी ५ का प्रतिशोध लिया था.<br />
और मैं उसकी ज़िन्दगी में मोहन राकेश के 'अन्तारल' का कोष्ठक 'भर' था कोष्ठक-भर नहीं.<br />
गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्योछावर कर के ढेर सारी कविताएँ लिख डाली थीं.कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे: भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था की ज़्यादा पार्थ कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ऐ-तैय्यबा हो.<br />
ये सिलसला तब तक चलता रहा जब तक कि आई टी डिपार्टमेंट से चेतावनी की प्रिंटेड हार्ड कॉपी नहीं आ गयी (इ मेल के लिए तो इनबॉक्स फुल था ना !). हमारे रयुमर्स, 'ऑर्गनाइजेशनल कम्यूनिकेशन के प्रकार' इस विषय के परफेक्ट उद्धरण बन गए थे. ऑफिस मैं हम ब्रह्म की तरह ओमिनीप्रजेंट थे, कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊँघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.हमसे कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था. आजकल उसके कम्पलीमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नेक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे.<br />
<br />
<br />
लेकिन नियति का 'एक्स-बॉक्स' देखो...<br />
जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों, और मुझ जैसे जीव का होता है...<br />
...इस कहानी का भी दुखांत हो गया...<br />
बावज़ूद इसके कि उसे लिव-इन-रिलेशन बहुत पसंद थे(जैसा कि उसने कहा भी था कि एक ही तो रिलेशन है जिसमें लिव यानी ज़िन्दगी है) उसे अमृता प्रीतम प्रभावित नहीं कर पाई,<br />
और हम दोनों ने शादी कर ली. <br />
या अगर सलमान रुश्दी के शब्दों में कहें:<br />
नहीं नहीं ये नहीं चलेगा...<br />
आई नीड टू बी मोर स्पेसिफिक.. <br />
'उसने मुझसे शादी कर ली.'<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNSx4DGdmJyzIxDO9hD2q7aM8jMU2715VnS7UheycRoMsKuWcRMguT9qDoXFQV96fsAfoJ7Rxmlzn3DoDFmpY4TWrPtpCYOJD4slU6ifQvobhUqSgP4UbL7UTcTt3SuCEdvcdoRTSparH7/s1600-r/Prachi.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNSx4DGdmJyzIxDO9hD2q7aM8jMU2715VnS7UheycRoMsKuWcRMguT9qDoXFQV96fsAfoJ7Rxmlzn3DoDFmpY4TWrPtpCYOJD4slU6ifQvobhUqSgP4UbL7UTcTt3SuCEdvcdoRTSparH7/s1600-r/Prachi.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"></a></div>
</div>
दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-4684869439888239322010-08-04T14:09:00.000-07:002010-09-04T14:13:20.405-07:00एनेलिटिक इमोशनबयासी रुपये का <span class="Apple-style-span" style="font-family: arial;">आर्चीज़ का</span> ग्रीटिंग कार्ड. जो मेरी खुद की दुकान होने की वजह से मुझे लागत मूल्य में पड़ा था. १२ रुपये का नगद फायदा.<br />
३ महीने बीत गए, अभी कल की ही तो बात लगती है जब मैं तुमसे मिला था.<br />
<br />
<div style="margin: 0px;">मुझे लगता है, तुम्हें सोचते सोचते पूरी ज़िन्दगी बिता सकता हूँ. या कम से कम इतना समय जब तक कि तुमसे खूबसूरत कोई और नहीं मिल जाये. फ़िर अभी तो दस ही बजे हैं यानि बस ३ घंटे हुए है दुकान खोले. </div><div style="margin: 0px;"><b><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;">शायद समय बड़ी तेज़ रफ़्तार चल रहा था.</span></b></div><div><b><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><br />
</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;">xxx</span></u></span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
"मुझे अंग्रेजी में पढने वाले बच्चों का सामान चाहिए. आपकी दुकान में मिल जाएगा भाई सा'ब ?"<br />
उसने अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ी हुई थी. ये कहते हुए उसने अपने ४-५ साल के बेटे को देखा. उसकी अंग्रेजी वाली गर्वानुभूती देखने के लिए मुझे कोई मनोवैज्ञानिक होने की ज़रूरत नहीं थी. बच्चे की आँखों का रंग बाप के चेहरे में था और बाप के चेहरे का गर्व उत्साह बन के बच्चे की आँखों को किसी बच्चे की आँखों सा ही चमकदार बनाता था. <br />
"और पापा..." बच्चे ने अपने पापा को देखने के लिए गर्दन ऊपर उठाई. "...रंग भी."<br />
पापा ने कुछ नहीं बोला. बोल भी नहीं सकता. नशे में आदमी या तो चिल्लाना पसंद करता है या गुमसुम हो जाता है. <br />
... आखिर उसका बच्चा अंग्रेजी में पढने जा रहा था. <br />
...सच उसका बच्चा अंग्रेजी में पढने जा रहा था. <br />
...देखो मेरा बेटा, अंग्रेजी...<br />
अपने बेटे के बालों को सहला दिया उसने. एक हवा का झोंका जिसमें बच्चे के बालों का उड़ना और नई किताबों की खुश्बू थी. बच्चे ने एक बार आँख झपकी और जब उसकी आँखें दोबारा खुली तो वो चमक बढ़ी हुई सी लगी मुझे. अपने बालों को सही करते हुए वो पापा को देखकर मुस्कुरा दिया था. उँगलियाँ अब भी बंधी हुई थी.<br />
"ये लीजिये भाई सा'ब ६० रुपये हुए." मैंने लगभग जल्दी में सारा हिसाब जोड़ते हुए कहा. दुकान में भीड़ हो ऐसा नहीं था. बस, मैं फिर बीते हुए समय में खो जाना चाहता था इसलिए. वो समय जिसे बिताने के लिए बयासी (-१२) रुपये खर्च हुए थे मेरे. <br />
ऐसा क्यूँ होता है कि लोग एक ही जेब में अपने सारे पैसे नहीं रखते?<br />
उसकी सारी जेबें जब टटोली जा चुकी थी तब हिसाब हुआ, उसने पैसों को दोबारा गिना,<br />
एक २० का नोट, ३ दस के, ५ रुपये का एक और नोट, और कुछ सिक्के<br />
= ६१ रुपये.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://www.frontiernet.net/~mblow/images/writerworkshop/1stationery32-med.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="239" src="http://www.frontiernet.net/%7Emblow/images/writerworkshop/1stationery32-med.jpg" width="320" /></a></div>हिसाब बिल्कुल ठीक था.(>१)<br />
पर फिर भी जाने वो अपनी जेब में क्या ढूंढ रहा था?<br />
अब उसके पीछे सामान लेने वालों की भीड़ बढती जा रही थी. छोटी सी दुकान होने की वजह से मेरा कोई नौकर नहीं था. मेरा सपना देखने का सपना ,आज भी सपना ही रह जाने वाला था.<br />
"भाई सा'ब..." <br />
"हं..?"<br />
"...ज़रा ज़ल्दी करिए ना. हो तो गए पैसे."<br />
"मम्म... हाँ... हाँ...."<br />
पीछे वाली जेब में एक पर्स उसमें भी ढेर सारी जेबें. और हर जेब में मुड़े टुडे कागज़, जिनमें से कुछ कोने से काले पड़ गए थे और कुछ ठीक वहां से फटने लग गए थे जहाँ पर से करीने के फोल्ड करके रखे थे. किसी भी आम हिन्दुस्तानी का पर्स था वो. कुछ बुदबुदाते हुए ४-५ कागज़ पढ़ के उसने वहीँ फैंक दिए. और...<br />
अरे वाह !! एक और नोट... <br />
मेरी किताबों की दुकान होने की वजह से इतना तो बता ही सकता हूँ कि उस २ रुपये के नोट में कम से कम ३ रुपये का सेलोटेप लगा था.<br />
=६३ रुपये.<br />
बच्चे ने पापा की उंगलिया छुड़ाई और जेब से ७ रुपये के सिक्के और निकाले. और फिर पापा कि उँगलियाँ पकड़ ली.<br />
=<span class="Apple-style-span" style="font-family: arial;">७०</span> रुपये.<br />
"बाकी की पेंसिलें रबड़ और कटर..."<br />
दिल्ली में पोलीथीन मना है, इसलिए ब्राउन पेपर के बैग में सारा सामान पकड़ा दिया मैंने उसे. <br />
बच्चे ने पापा के हाथ से बैग पकड़ लिया था. और पापा की उंगलिया छुड़ा के बैग अपने दोनों छोटे छोटे हाथों में सीने से भींच लिया. बच्चा बैग ऊपर से खुला होने की वजह से अन्दर की सारी चीज़ें देख सकता था और इसलिए देख रहा था. <br />
दोनों बहुत खुश थे. (क्या कोई और मनोदशा भी हो सकती है?) और अपने घर जाने को तैयार. उससे पहले एक दूसरे को बड़ी देर तक देखते रहे थे. <br />
देर तक..<br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b>शायद समय समय बड़ा धीरे चल रहा था.</b></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><b><br />
</b></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div style="text-align: center;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;">xxx</span></u></span></b></div><br />
हलवाई मिठाई खाना पसंद नहीं करता. पढने लिखने और हिसाब-किताब से मुझे वितृष्णा सी है. और मैं इसमें जरा कच्चा भी हूँ.<br />
"भाई सा'ब एक मिनट..."<br />
उनके पीछे मुड़ने तक मैं हिसाब तीन बार जोड़ चुका था. <br />
"...बेटा ज़रा बैग देना."<br />
बच्चे ने खुद से बैग छीनते हुए मुझे दिया. सारा सामान फैला के जब मैंने वापिस डालना शुरू किया...<br />
"दस और सात सत्रह, सत्रह और नौ छब्बीस, छब्बीस और.... <br />
...भाई सा'ब माफ़ करना पर हिसाब में कुछ गड़बड़ हो गयी लगता है. आपके बयासी रुपये हुए."<br />
मैं उसके बदलते हुए हाव भाव देख रहा था, एक आदमी एक पल में कितना ज्यादा टूट सकता है. वो चीज़ जो उसे सबसे ज्यादा खुश कर सकती है किसी दूसरे पल में वही सबसे बड़े दुःख का हेतु होती हैं. वो एहसास जो उसे गर्व करने पे मजबूर करते हैं वही किसी बदले हुए परिदृश्य में उसकी सबसे ज्यादा बेईज्ज़ती करा सकते हैं, और ये सब इतना ज़ल्दी हो तो?<br />
गुरुत्वाकर्षण बल आपका भार घटा देता है, आप खुद को बहुत हल्क़े लगते हैं और.... और....<br />
...धड़ाम !! <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
"पापा सुनो न... हम रंग नहीं लेंगे."<br />
"भाई सा'ब ज़ल्दी करिए." मैं जानता था कि उसके पास और पैसे नहीं हैं. बस इस बात का इंतज़ार था कि... <br />
"हांआ ? हाँ... हाँ...."<br />
"भैया हम कल आ सकते हैं?"<br />
ऐसे ग्राहकों को मैं जानता था... <br />
और जानता था कि न 'वो' कल आएगा, न वो 'कल' आएगा.<br />
"ये अंग्रेजी वाली कॉपी रहने दो. हम कल ले जायेंगे. पक्का..."(८२-१२ = <span class="Apple-style-span" style="font-family: arial;">७०</span>)<br />
"......."<br />
"...चल बेटा."<br />
<b><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;">समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था. ना तेज़ ना धीरे.</span></b><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-91822738003178043822010-07-13T09:05:00.000-07:002010-09-13T09:06:40.766-07:00यूज़ टू"चलो ना छोना. तुम्हारा फ्री चेक अप तो एनी-वे ड्यू है."<br />
"श्वेता ! अभी पूरा साल पड़ा हुआ है लव. "<br />
"कहाँ? देखो... हार्डली २ महीने ही बचे हैं मेडीक्लेम के रिन्यूवल में." <br />
"बट !"<br />
"चलो ना प्लीज़..."<br />
"......................"<br />
"फ़िर तुम्हारा ऑफ भी युटीलाईज़ हो जाएगा. आते वक्त निरुलाज़ से खाना पैक करवा लेंगे. इसी बहाने आउटिंग भी हो जायेगी." <br />
"व्हटएवर" <br />
(गोया हॉस्पिटल नहीं 'लोट्स टेम्पल' या 'सेलेक्ट सिटी वॉक' हो या फ़िर लॉन्ग ड्राइव.)<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></b></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><a href="http://www.seniorlivinginfo.com/.a/6a00d834537bbc69e201157109b5da970c-800wi" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://www.seniorlivinginfo.com/.a/6a00d834537bbc69e201157109b5da970c-800wi" /></a><br />
<br />
<br />
प्राइवेट हॉस्पिटल में भी कतारें बढ़ने लग गयी हैं. या तो लोग अमीर ज़्यादा हो रहे हैं. या बीमार ज़्यादा हो रहे हैं. या बस, लोग ज़्यादा हो रहे हैं. <br />
एक चीज़ जो मैंने शिद्दत से महसूस की है, 'शुष्म' स्तर पर वो ये कि, जहाँ सरकारी/खैराती हॉस्पिटलज़ में बीमारी और मृत्यु की वाईब्ज़ होती हैं वहीँ प्राइवेट में रिकवरी, गेट वैल सून की वाईब्ज़.स्थूल स्तर पर, 'लाइज़ोल' बनाम 'फिनाएल'.आधी बीमारी तो आपकी हॉस्पिटल पहुँच के ही ठीक हो जाती है.<br />
मुझे हिंदी फिल्मों का जुमला याद आ रहा है...<br />
"अब इन्हें दवाओं की नहीं प्राइवेट हॉस्पिटल की ज़रूरत है."<br />
लगभग डेढ़ साल बाद आया हूँ हॉस्पिटल... डेढ़ साल में ही इतने बदलाव ?<br />
पिछली बार जब श्वेता का मिस कैरेज हुआ था. इसी हॉस्पिटल में. मैंने उसे बड़े ही नोर्मल वे में लिया था. पर बाद में पता चल कि हमें हॉस्पिटल के चक्करों के बाद अनाथालयों के भी चक्कर लगाने पडेंगे. डॉक्टर कहते थे कि टेस्ट ट्यूब बेबी का भी ऑप्शन है. पर श्वेता के इमोशन बड़े प्रेक्टिकल है...<br />
" छोड़ो ना छोना टेस्ट ट्यूब वेस्ट ट्यूब. इट वुड बी प्रीटी कोस्टली. मोरोवर, जब भगवान ही नहीं चाहता तो ! वैसे भी अगर एक बच्चे को गोद ले लेंगे तो शायद जाने अनजाने में किये गए पाप..."<br />
"पर गोद लेंगे तो लड़की."<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></b></div><br />
बड़ा सा हॉल. बीच में गोल पोडियम जिसमें लगभग सारी 'रिसेप्शनिस्ट' लडकियां हैं. उनके सामने उनसा ही स्लिम से माईक. सॉफ्ट से 'रिसेप्शन म्युज़िक' के बीच में गूंजती और भी ज़्यादा 'सॉफ्ट फैमिनाइन' आवाज़,"डॉ. रजनीश, काइंडली कम टू द काउन्टर... डॉ. रजनीश !" <br />
उधर दूर ए. टी. एम्. मशीन. उसके बगल में इन्टरनेट करने की सुविधा-६० रुपया प्रति घंटा, न्यूनतम ३० मिनट.<br />
उसके सामने एक और अज़ीब सी मशीन जहाँ से पंच करके आपको आपकी बारी का नम्बर मिलता है. जो वहाँ, उधर, दीवार में लगे बड़े से एल. सी. डी. स्क्रीन के डिसप्ले से सिन्क्रोनाइज़ किया तो आपका नम्बर. लेकिन अगर आप अंधे हैं तो भी आपको मुश्किल नहीं होगी.<br />
"पेशेंट नम्बर सेवनटी वन ." (वही 'सॉफ्ट फैमिनाइन' आवाज़.) <br />
मुझे 'पेशेंट' शब्द से आपत्ति है. जब तक सिद्ध नहीं हुआ.तब तक कैसे 'पेशेंट' ? हाईली अनप्रोफेशनल विद रेस्पेक्ट टू 'कोर्ट'. जहाँ जब तक जुर्म वैलिडेट ना हो जाए तब तक मुजरिम-मुजरिम नहीं. <br />
मैं काफी देर से श्वेता का इंतज़ार कर रहा हूँ. वो डॉक्टर के पास गयी है मेरी रिपोर्ट लेने. पीछे बायीं तरफ़ किताबों का काउन्टर और उसके बगल में कॉफ़ी वेंडिंग मशीन. ठीक कैफिटेरिया के आगे. <br />
"भाई सा'ब एक कॉफ़ी." <br />
"सत्तर रुपये?"<br />
मेरे पीछे कतार में खड़ा आदमी शायद इसलिए ही कतार से हट जाता है.<br />
"ये लीजिये भाई सा'ब बहुत सारी है आधी आप पी लीजिये."<br />
"अरे नहीं नहीं मेरा मन नहीं है."<br />
"अरे ! मैं कौन सा फ्री में दे रहा हूँ. कॉन्ट्री कर के पी लेते है."<br />
"हा ! हा !! आई टेल यू दीज़ गाईज़ आर फकिंग दोज़ हू आर ऑलरेडी फक्ड अप."<br />
मैं मुस्कुरा देता हूँ.<br />
"बाई द वे हुआ क्या है आपको?"मैं पूछता हूँ.<br />
"कुछ नहीं बच्चे का एच. आई. वी. टेस्ट करवाया था.उसी की रिपोर्ट लेने आया हूँ. "<br />
"एच. आई. वी. टेस्ट ?बच्चे क्या ? क्यूँ?"<br />
अपने सवाल पर गुस्सा आता है मुझे. कॉफ़ी पीते ही मितली सी आने लगती है. मैं वॉश रूम की तरफ़ भागता हूँ.<br />
"अरे भाई सा'ब क्या हुआ?"<br />
"कुछ नहीं लगता है... "<br />
मैं लगभग दौड़ते हुए चिल्लाता हूँ.<br />
"...मेरे हिस्से के पैंतीस रुपये गए."<br />
कै करते हुए अपना चेहरा शीशे में देखता हूँ. वॉशरूम में भी एक स्पीकर लगा हुआ है.<br />
"पेशेंट नम्बर सेवनटी टू." <br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><u><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">XXX</span></u></b></div><br />
उधर छोटा सा टी.पी. ए. काउन्टर है. एक्ज़िट गेट के ठीक सामने.<br />
एक आदमी वहाँ पे लड़ रहा है,<br />
"क्या बात कहते हैं सर आप देख लीजिये, आपका हॉस्पिटल भी लिस्टेड है."<br />
"लिस्टेड.... था !."<br />
"अरे ऐसे कैसे? इंश्योरेंस करते वक्त तो आप लोग..."<br />
"भाई सा'ब मैं कह रहा हूँ ना कि न तो मैं इस हॉस्पिटल के लिए काम करता हूँ और न ही आपकी इंश्योरेंस कम्पनी के लिए."<br />
"तो हरामजादे किसके लिए काम करता है? बीच का है क्या ! छक्का भेन चोद !!" <br />
वो आदमी दोनों हाथों से ज़ोर ज़ोर से ताली बजाता है. <br />
"भाई सा'ब माइंड योर लेंग्वेज.गाली देनी मुझे भी आती है और अगर पैंट शर्ट उतार लूं तो मैं भी बहुत बड़ा गुंडा हूँ."<br />
"कमीने ! तू पैंट शर्ट और इस टाई के साथ भी बहुत बड़ा गुंडा ही है. गुंडा नहीं दल्ला है दल्ला. पैसे दोनों से लेता है काम किसी के लिए नहीं करता?"<br />
"जाइए भाई सा'ब जाइए यू आर वेस्टिंग यौर एंड माई टाइम . एंड मोस्ट इम्पोरटेंनटली पेशेंट टाइम एज़ वैल. वो... जिनके साथ आप आए हैं."<br />
टी.पी. ए. एजेंट पेन घुमाते हुए राय देता है. आदमी को इससे शायद उस मरीज़ की याद हो आती है जो बाहर एम्ब्युलेंस में ज़िन्दगी और मौत से 'टू बी ऑर नॉट टू बी' खेल रहा है. आदमी की नाराजगी अब उसकी गिड़गिडाहट में स्थाई रूप से घुल जाती है. <br />
"भाई सा'ब वो मर जायेगी." <br />
"तो जाके काउन्टर में पैसे जमा करवाइए और बचा लीजिये उन्हें."<br />
"मेरे पास..." बात लगभग चिल्लाते हुए शुरू करता है पर खुद को समझाते हुए शान्त हो जाता है...<br />
"...मेरे पास पैसे नहीं है इतने." <br />
"देन गो टू सम अदर चीप होस्पिटल ऑर मे बी सम डिसपेंन्सरीज़. यू आर रनिंग आउट ऑफ़ टाईम."<br />
"भाई साब किमोथेरेपी किसी डिसपेंन्सरी में नहीं होती."<br />
"..................."<br />
"ठीक है..." आदमी लम्बी निर्णयात्मक सांस लेते हुए दोहराता है.<br />
"..ठीक है, जाता हूँ पर याद रखना की मेरी बीवी को कुछ हुआ तो उसके जिम्मेवार आप होंगे आप."<br />
आदमी हताश सा बाहर निकल जाता है. उस आदमी की खाली पड़ी सीट पर मैं बैठ जाता हूँ. <br />
"क्या बात भाई सा'ब क्या हो गया था?"<br />
"अरे कुछ नहीं इन सब के तो हम यूज़ टू हो गए है सर. जब तक दो चार से लड़ न लो खाना नहीं पचता. देख नहीं रहे थे किस तरह से बात कर रहा था अभी जो आया था."<br />
"वैसे आप मदद कर सकते थे उसकी. नहीं क्या?"<br />
"देखिये मदद का तो ऐसा है जी हमारी तो दोनों पार्टी से.... समझ रहे हैं ना?लेकिन आदमी को बोलने का ढंग भी तो आना चाहिए न. अभी लाखों का काम हज़ार दो हज़ार में निपट जाना था उन भाई सा'ब का. अब करवाओ सफदरजंग में जाके इलाज़."<br />
"कभी किसी ने मारा वारा तो नहीं ना आपको? आई मीन हाथ पाई वगैरा. या कभी किसी ने झापड़ रसीद किया हो ?"<br />
"भाई सा'ब बीमार को देखेंगे लोग या मुझसे हाथापाई करेंगे? और फ़िर कोई अगर परेशानी में हो तो पाप पुण्य का डर ज़्यादा सताता है उसको. देख नहीं रहे थे कैसे गिड़गिडा के गया था अन्त में."<br />
"आपको दया नहीं आई ? आई मीन थोड़ी बहुत?"<br />
"आई न ! अपने २ बच्चों और अपनी बीमार माँ पे आई. और रोज़ आती है."<br />
वो व्यंगात्मक ढंग से मुह टेढ़ा करके मुस्कुराता है. और सर झुका के कुछ लिखने में व्यस्त हो जाता है.<br />
"कितने भोलेपन से आप अपने हरामीपन कि बातें कह रहें हैं ना?"<br />
मैं भी ठीक उसी की तरह ठहाका लगता हूँ. <br />
"जी ? मतलब ?" <br />
मेरे सर का दर्द बढ़ने लगता है. पूरा पोडियम घूमने लगता है. मैं अपने आपक को गिरते गिरते संभालता हूँ. <br />
.............................<br />
"पेशेंट नम्बर सेवनटी फाइव." <br />
<div style="text-align: center;"><br />
<u><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">XXX</span></b></u></div><br />
जब लोगों को हज़ार हज़ार के ढेर सारे नोट काउन्टर में देते हुए, पैसों को देने से पहले कई कई बार गिनते हुए देखता हूँ तो चीज़ों से वितृष्णा सी होने लगती है. काउन्टर का फिसलन वाला फर्श और उसपे फिसलते (लगभग उड़ते) नोट और टंग-टडंग, टंग-टडंग, छन छ्नाते चमकते सिक्के. बड़ा ही डरावना लगता है मुझे. बड़ा ही...<br />
कैसे कोई 'रिसेप्शनिस्ट' इतना मुस्कुरा सकती है. लगातार? क्या पहले दिन जब उसने ज्वाइन किया होगा उस दिन भी? या अब ये मजबूरी उनकी आदत बन गयी है? शायद 'यूज़ टू' होना इसे ही कहते हैं.मुझे यकीन है 'यार जुलाहे' की पहली बुनाई में कई कई गिरहें नज़र आती होंगी. पक्का!<br />
आखिर कैसे वो एक बीमार बेटे की माँ को इस तरह डांट सकती हैं?<br />
"नहीं माँ जी डॉक्टर सा'ब तो अपने टर्न पर ही देखने आयेंगे ना.और वैसे भी अब आपका बेटा एक दम ठीक है." <br />
"बेटी देख !! तूने माँ कहा है तो वो तेरा भाई हुआ ना? बोल ना डॉक्टर सा'ब से..."<br />
दो रिसेप्शनिस्ट एक दूसरे को देख के मुस्कुरा रही हैं. (लो एक और बीमार से रिश्ता !) <br />
बुढ़िया का बस एक दांत है, वो भी ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा, जब बात करती है तो वो बार बार होठों से बाहर निकल जाता है. आँखों के आंसू, झुर्रियों से अपना रास्ता खुद ढून्ढ रहे हैं इसलिए उनकी बूँदें नहीं बन पाती, साड़ी इस तरह से तितर बितर है कि माना कोई मोटी रस्सी लपेटी हो उसने अपने चारों ओर. हाथ में कागजों कि गंदली सी पोटली. संक्षेप में बुढ़िया का व्यक्तित्व करुणामय विभत्सता से ओत प्रोत है. <br />
"जाइये माँ जी आप जाके वहाँ बैठ जाइये."<br />
"पेशेंट नम्बर सेवनटी सिक्स."<br />
मेरा पूरा बदन एक झुरझुरी से काँप जाता है.<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></b></div><br />
"छोना ..."<br />
श्वेता डॉक्टर सा'ब के के साथ तेज़ तेज़ क़दमों से मेरे पास आती है.<br />
"...छोना, डोक्टर कहते हैं तुम्हें कुछ नहीं हुआ. बस कल गैस हो गयी थी तुम्हें शायद. ये देखो हिमोग्लोबिन १६.२, ब्लड प्रेशर...." <br />
"आय ऍम नॉट ऑल राईट छोना ! आय ऍम नॉट !! नॉट एट ऑल !!! मुझे ज़ल्द से ज़ल्द आई. सी. यू. में भर्ती करो. और तब तक रखो जब तक, जब तक मैं... मैं... 'यूज़ टू' नहीं हो जाता...<br />
हाँ 'यूज़ टू.'.... " <br />
मुझे पता नहीं क्यूँ चिल्लाना अच्छा लग रहा है. गर्दन टेढ़ी करके एक टक डॉक्टर को देखना चाहता हूँ. पर मेरी आँखें गोल गोल घूम रही हैं. मैं चाहता हूँ कि मेरे होंठ सूख जाएँ. पर उनमें से झाग निकल रहा है. मुझे पता है सबलोग मेरी तरफ देख रहें हैं. जहाँ हॉल मैं थोड़ी देर पहले एक सोफ़ेसटीकेटेड सा शोर था... चिड़ियों सा... वहाँ सन्नाटा है. मैं चुप हो जाना चाहता हूँ... चुप चुप....<br />
अपने से कहता हूँ... प्लीज़... प्लीज़... काम डाउन... प्लीज़ssss....<br />
पर...<br />
"मुझको भी तरकीब सीखा कोई...<br />
...भोसड़ी वालेsssss !" <br />
मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है, इसलिए अपने को रोकता नहीं हूँ. और तेज़ चिल्लाता हूँ, सोचता हूँ अपने बाल भी खींचूँ....<br />
हाँ... ऐसे... अरे वाह ! इसमें भी बड़ा मज़ा है ! रीलिफ ! स्ट्रेस बस्टर है ये तो, और तेज़ तेज़ चिल्लाना... <br />
"यूज़ टू ! यूज़ टू !! यूज़ टू !!!.... यूज़ टू... उस... उस... हरामी इंश्योरेंस एजेंट की तरह! कमीना साला !!"<br />
"क्या हो गया छोना तुम्हें."<br />
"मिसेज़ साह, यू वुड हेव कंसल्ट हिम टू अ साईकेट्रिस रादर."<br />
"साले भडुवे! तू बताएगा मेरी बीवी को. तू? जा ! जा के लोगों की किडनियां बेच भेन चोद ! बीमार लड़कियों से अपनी दिमाग की बीमारी ठीक करवाता है. और ये... ये जो... कॉल गर्ल्ज़ बिठा रक्खी हैं तूने काउन्टर में..."<br />
मुझे मन हो रहा है कि माईक में बोलूं...<br />
"कितना पैसा लेती हैं आप मैडम ! एक रात का?"<br />
मेरी आवाज़ चारों ओर के स्पिकर्ज़ से आ रही है. खुश हो के ताली बजाता हूँ. उछल उछल के. अपने कपड़े भी फाड़ना चाहता हूँ पर लोग मुझे पागल समझेंगे इसलिए नहीं फाड़ता. फ़िर माईक पकड़ लेता हूँ. <br />
"यूज़ टू ! यूज़ टू !! यूज़ टू !!!"<br />
मैं गिर पड़ना चाहता हूँ... उस फर्श पे. हटो हटो सब... मैं गिर रहा हूँ. <br />
कहीं दूर से आवाज़ आ रही है.<br />
"नर्स... आई. सी. यू..."<br />
............................<br />
शान्त ! सन्नाटा...<br />
फ़िर से, कहीं दूर से वही चिड़ियों की चहचहाने सी सोफ़ेसटीकेटेड शोर की आवाज़ आ रही है.मेरी आँखें बंद हो रही हैं...<br />
मैं अर्ध चेतन अवस्था में भी मुस्कुराता हूँ, और बड़ बड़ाता हूँ.<br />
"यूज़ टू... यूज़ मम्म... मम्म... मम्म... "<br />
......................................<br />
"पेशेंट नम्बर सेवनटी नाइन."<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u><b>XXX</b></u></span></div><br />
"क्या हो गया था तुम्हें कल?"<br />
"क्या?"<br />
"डॉक्टर कहते हैं कि तुमको ज़ल्द से ज़ल्द किसी साईकेट्रिस से.."<br />
"ह्म्म्म... मैंने कहा था ना कि मुझे नहीं आना यहाँ."<br />
"कुछ खाओगे?"<br />
"कमर में दर्द है.बड़ी ज़्यादा उफ़ !"<br />
"हाँ कल गिरे थे ना तुम. ना ना रहने दो उठो मत. सच पूरे नौटंकी हो! "<br />
श्वेता मेरी आँखों में मेरी गिल्ट पढ़ सकती है. इसलिए मुझे कम्फर्टेबल करने के लिए मुस्कुराती है. <br />
"आय ऍम सॉरी फॉर वटएवर आई डिड यसटरडे, एंड आय लव यू."<br />
इस वक्त उसका, अपना हाथ मेरे हाथ में फंसा के दबाना अच्छा लगता है.<br />
"इट्ज़ ओ.के. एंड मी टू."<br />
"भूख लगी है यार. कैन यू अरेंज अ कॉफ़ी? एंड यस... सम स्नैक्स, मे बी?"<br />
थोड़ी देर अपलक मेरी आँखों को देखती है. मेरे हाथ को और फ़िर दबाती है. हाँ में सर हिला के बाहर चली जाती है.<br />
"और सुनो... कॉफ़ी बाहर से लाना !"<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></b></div><br />
सामने वाले बैड में एक ६-७ महीने का बच्चा लेटा है. गोल गोल आँखें दूर से देखने में कहीं से भी बीमार नहीं लगता. उसे ग्लूकोज़ चढ़ रहा है. उसके बाप की आँखें लाल हैं. और चूंकि उसकी आँखें लाल हैं इसलिए यकीनन वो उसका बाप ही है. बच्चे के ऊँघते ही वो बच्चे के गाल थपथपाने लगता है. हर बार बच्चे के गाल थपथपाते वक्त वो अपनी आँख गीली कर लेता है.<br />
"उठ बेटा. उठ जा !"<br />
बाप के बगल में ही एक २५-२६ साल का युवक बैठा है. युवक चुप है. लगता है कि युवक ने भविष्य की डरावनी सच्चाई को स्वीकार कर लिया है. इसलिए उसकी आँखें पथरा गयी सी लगती हैं. पर बाप बोल रहा है उस युवक से लगातार...<br />
"ग्लूकोज़ का नशा है ना इसे इसलिए. हुआ कुच्छ भी नहीं है."<br />
पर युवक की पथराई हुई आँखों से आँख मिला के बाप सिहर जाता है. उसे युवक के चुप रहने पर भी खीज होती है.<br />
"तू ऐसा चूतियों सा चेहरा बना के क्यूँ बैठा है बे? जा ! घर जा अपनी मामी को भेज.... ...साला!"<br />
युवक चुपचाप उठ के चल देता है.<br />
बाप फ़िर बेटे के गाल थपथपाता है. एक नियत रोबोटिक प्रक्रिया सा...<br />
"उठ बेटा. उठ जा !"<br />
उसकी नज़रें मेरी नज़रों से मिलती हैं. सवाल करती सी, अनुनय करती सी, गिड़गिड़ाती सी...<br />
मानो कहती हों,"भाई साब... बात करो ना... इतना ही कह दो कि ये ठीक हो जाएगा."<br />
मैं भी चाहता हूँ उससे सच में पूछूं...<br />
"क्या हुआ आपके बच्चे को?"<br />
पर मैं, पता नहीं क्यूँ मैं नहीं पूछता हूँ. मैं वहाँ से नज़रें हटा लेता हूँ. मानो मैं उस बाप का अपराधी हूँ. <br />
<div style="text-align: center;"><br />
<b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></b></div><br />
"ढेंण ट ढेंण ! कॉफ़ी केपेचिनो एंड फ्रेंच फ्राइज़ लव !! "<br />
"उस आदमी को देखती हो?"<br />
"हाँ! क्या हुआ है उसके बच्चे को पूछा तुमने?"<br />
"ना!"<br />
"उसकी आँखें देखीं ? कितनी लाल हैं?"<br />
हम दोनों उसकी आँखें देखते हैं. उससे फ़िर नज़र मिलती है. हम तीनों मुस्कुराते हैं.<br />
"रात भर सोया नहीं होगा."<br />
"या रात भर रोया होगा."<br />
"बता सकती हो वो बच्चे को सोने क्यूँ नहीं दे रहा? बच्चा जब भी ऐसी कोशिश करता है. वो क्यूँ उसे थपथपा देता है?"<br />
"नॉट श्योर. डॉक्टर ने कहा हो शायद."<br />
"हाँ शायद!"<br />
"..........."<br />
"छोना कॉफ़ी तुम पी लो. मेरा मन नहीं है. सर में दर्द है. सोना चाहता हूँ."<br />
"तुमने कल से कुछ नहीं खाया."<br />
"प्लीज़ छोना"<br />
"पर..."<br />
"प्लीज़..."<br />
मैं बेड से तेज़ी से उठता हूँ. (जितना तेज़ भी हो सके)<br />
"चलो घर चलते हैं. फिज़िकली तो एक दम ठीक हूँ मैं."<br />
उठ कर तेज़ क़दमों से बाहर निकलता हूँ. पीछे श्वेता अपना पर्स और मेरा सामान समेट के बाहर आती है.<br />
"भाई सा'ब! जा रहे हैं?"<br />
हम दोनों पलट के देखते हैं.<br />
"थोड़ी देर बैठो ना मेरे पास. एक बार पूछ लो मुझसे क्या हुआ है मेरे बच्चे को. एक बार इसके गाल सहला दो. एक बार..."<br />
उसके बगल में बैठ जाता हूँ. उसके कंधे में हाथ रख देता हूँ. श्वेता बच्चे के बालों में हाथ फेरती है.<br />
"शो रहा है." सच बच्चा बड़ा स्वस्थ और बच्चों सा ही प्यारा था पर उसकी आँखें बंद थीं .<br />
"क्या... क्या कहा.. सो ?"<br />
बाप हैरत से अपने बच्चे को देखता है.<br />
श्वेता को कुछ नहीं सूझता, वो वहीँ पे अपना सामान छोड़ के कमरे से बाहर निकल जाती है.<br />
<div style="text-align: center;"><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><u>XXX</u></span></div><br />
बाहर निकलते ही उसकी चाल धीमी हो जाती है. बहुत धीमी.<br />
टी.पी.ए. काउन्टर में फ़िर चिल्ल-पौं मची है.<br />
"अरे कैसे कह सकते है आप की ये प्री एग्जिस्टिंग डिज़ीज़ है ?"<br />
"ये देखिये रिपोर्ट दिखाती है."<br />
"पर आपने तो..."<br />
मैं श्वेता की तरफ़ देखता हूँ, वो मेरी तरफ़. हम दोनों के बीच आँखों-आँखों में कुछ बातें होती हैं. उसकी गीली आँखों में ना जाने किस बात की चमक आ जाती है. मैं दौड़ के टी.पी. ए. काउंटर में चढ़ जाता हूँ, घुटनों के बल....<br />
काउन्टर ऊँचा है इसलिए मुझसे थोड़ी परेशानी होती है. मुझसे उस एजेंट को थप्पड़ रसीद करना बहुत अच्छा लग रहा है. स्ट्रेस-बस्टर. एक, दो, तीन...<br />
मुझे कोई नहीं रोकता...<br />
पूरे फ्रंट ऑफिस में थप्पड़ की आवाज़ें गूंज रहीं हैं. <br />
एक नर्स मेरी तरफ़ दौड़ती है,<br />
"ओ माई गोड. ही विल किल समवन."<br />
श्वेता काफी मेहनत करके बीच में ही उसे रोक देती है,<br />
"रहने दें नर्स साहिबा. ऐसा कुछ नहीं होगा."<br />
नर्स अपने को छुड़ाने की कोशिश करती है,<br />
"बट सीम्ज़ डेट युअर हबी निड्ज़ हेल्प एज़ वेल." <br />
"नो वरीज, वो अब बिल्कुल ठीक है. इनफेक्ट, ही इज फीलिंग मच बेटर नाऊ."<br />
"............." नर्स अब अपने को श्वेता से छुड़ाने की कोशिश नहीं करती. <br />
मुझे हॉस्पिटल से बाहर निकलते हुए देख श्वेता भी नर्स को झटककर मेरे पीछे दौड़ती है.<br />
"छोना... सुनो... सुनो ना... क्या मरे हुए बच्चे को गोद लिया जा सकता है?"<br />
"पेशेंट नम्बर ट्वेंटी वन."दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-87301049376749138342010-07-10T09:08:00.000-07:002010-09-13T09:08:47.766-07:00चेट रूम (लघु कथा)<div style="border: medium none;"><b><span style="color: #783f04; font-family: Times, 'Times New Roman', serif; font-size: large;">दिन 1(रिषभ का कंप्यूटर):</span></b></div><div style="border: medium none;"><br />
</div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> Buzzzzz...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> ह्म्म्म्म ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">क्या चल रहा है ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me: </span>बहुत बड़ा तूफ़ान ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif: </span>मतलब ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me: </span>कॉलेज गयी थी ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> नहीं तबियत, </span></div><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> दवाई ली ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> ख़राब है.</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">हाँ दो पन्ने पढ़ लिए थे तुम्हारी डायरी के ,</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">दिन में तीन बार .</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> :)</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> :)</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">तुम गए ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> कहाँ ?</span><br />
<div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> जेह्न्नुम . नहीं करनी है बात तो मैं जा रही हूँ ....</span></div><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ह्म्म्म्म.....</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> क्या बोली ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> कौन ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> ओके बाय ...</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> अरे रुको बाबा . कुछ नहीं ...</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">बस.. </span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> मतलब आँखों के बोलने को बोलना थोडी न कहते हैं...</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">:)</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me: </span>कहाँ गयी ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">ओफो... </span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me: </span>अच्छा बाबा..</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">पूछो क्या पूछना है?</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span><br />
<br />
<span style="color: #783f04; font-family: Times, 'Times New Roman', serif; font-size: large;"><b>दिन 2(रिषभ का कंप्यूटर):</b></span><br />
<br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span>मुझे पता है तुम ऑनलाइन हो...</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> ह्म्म्म ...</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">तुम्हें कैसे पता ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ये चेहरा तुम्हारा , हर बार की तरह </span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> मतलब ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> Facebook देखो अपना . </span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> अरे हाँ अभी.. </span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> याद है ४ साल पहले ? ये चेहरा ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Catchmeif:</span> अभी खोला था. </span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ह्म्म्म ...</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> गयी क्या ?</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Catchmeif is offline and can't receive your message right now]</span><br />
<br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"> </span><span style="color: #783f04; font-family: Times, 'Times New Roman', serif; font-size: large;"><b>दिन 3(रिषभ का कंप्यूटर):</b></span><br />
<br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">ऋचा:</span> सॉरी बाबा कल के लिए ....</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> नहीं कोई नहीं .</span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[ऋचा अभी व्यस्त हैं, आप शायद उनके कार्य में व्यवधान डाल रहे हैं]</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">ऋचा:</span> क्या कर रहे थे ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> आज हिंदी में ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">ऋचा:</span> तुम्हें पसंद है न हिंदी ?</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ह्म्म्म्म...</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">ऋचा: </span>अच्छा चलो मैं चलती हूँ शायद वो बुला रहे हैं . TK CR</span><br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> पहले से कहीं ज्यादा पसंद है अब तो </span><br />
<span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[ऋचा को आपकी ये चेट नहीं मिली ]</span><br />
<br />
<span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"> </span><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/__NTTW5WAxN0/SfWo2PNSDJI/AAAAAAAACDY/DSKd06iq-38/s1600/gtalk.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/__NTTW5WAxN0/SfWo2PNSDJI/AAAAAAAACDY/DSKd06iq-38/s320/gtalk.jpg" vr="true" /></a></div><div style="border: medium none;"><span style="color: #783f04; font-family: Times, 'Times New Roman', serif; font-size: large;"><b>दिन 4(ऋचा का कंप्यूटर)::</b></span></div><div style="border: medium none;"><br />
</div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> कहानी कैसी चल रही है तुम्हारी .</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ :</span> ह्म्म्म ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span>शादी कब है ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ :</span> बताया तो था .</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ह्म्म्म्म ....</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">तैयारियां शैयारियां ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ :</span> ह्म्म्म्म ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> क्या ह्म्म्म्म्म.. ह्म्म्म्म्म...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ </span> :)</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> ये झूठी हंसी हँसना बंद कर दो अब तो .</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">कब तक बच्चे </span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ :</span> झूठी हंसी बच्चे हंसते हैं क्या ?</span></div><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span>बने रहोगे ...</span><br />
<div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">रिषभ :</span> वेट ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><span style="color: #cc0000;">Me:</span> कहाँ चल दिए ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">आया होगा उसका फ़ोन...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">लंगडा लंगडा के उसे उठाने गए होगे ...</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">...अच्छा डॉक्टर क्या कहते हैं ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">कब तक ?</span></div><div style="border: medium none;"><span style="color: #cc0000; font-family: Times, 'Times New Roman', serif;">[Rishabh को आपकी ये चेट नहीं मिली]</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span></div><div style="border: medium none;"><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span></div><span style="font-family: Times, 'Times New Roman', serif;"><br />
</span><br />
<div style="border: medium none;"><br />
</div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-58791087820825005642010-07-08T21:46:00.000-07:002010-07-08T21:46:11.871-07:00योगक्षेमं वहाम्यहम (डायरी)<div style="color: red; text-align: left;"><i>मुख पृष्ठ :</i></div><div style="text-align: center;">१९८५</div><div style="text-align: center;">एल. आई. सी.</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://seshdotcom.files.wordpress.com/2008/04/lic_logo.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://seshdotcom.files.wordpress.com/2008/04/lic_logo.gif" /></a></div><div style="text-align: center;"> योगक्षेमं वहाम्यहम </div><br />
<div style="color: red;"><i>प्रथम पृष्ठ:</i></div><b><i>होम एड्रेस :</i></b><br />
एस.एस. द्विवेदी<br />
ऍफ़ २ - ११८ , पॉकेट आर<br />
दिलशाद गार्डन<br />
न्यू दिल्ली -९६<br />
<br />
<div style="color: black;"><i><b>ऑफिस एड्रेस:</b></i></div>सी. ई. ओ.-रुचिता गारमेंट्स<br />
५१२ ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज़ - ३<br />
नियर मोदी मिल <br />
न्यू दिल्ली-२०<br />
<br />
<b><i>दूरभाष : </i></b>२१४४८ ऑफिस : २२१११<br />
<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०१.०१.१९८५</i></div><div style="color: red;"><i>दशमी, शुक्ल पक्ष, पौष, मंगलवार</i></div>३१ स्ट होने के कारण कल की रात ज़्यादा ही पी ली. हैंगोवर अब तक है. ३-४ दिन पहले ही मेरे एल आई सी एजेंट ने मुझे ये डायरी गिफ्ट की है, आज तक तो कभी नहीं लिखी पर अब सोचता हूँ कि इसको रेगुलरली भरूँगा... <br />
राजेश और उसकी माँ मंदिर गए हैं.<br />
दो बातें समझ से परे हैं...<br />
पहली, यदि ज्योतिष विज्ञान हिन्दू पंचांग पर आधारित है तो इसका प्रभाव किस प्रकार अंग्रेजी कैलंडर के मंगल से शुरू होने पर होगा?<br />
और दूसरी, राजेश की माँ को इतना समझ क्यूँ नहीं आता कि राजेश का उसके साथ मंदिर जाने का कारण ईश्वर को नहीं बल्कि 'उसे' मक्खन लगाना है.<br />
गए आज ५०० रुपये और. मेरे मेनेजर की १० दिन की तनख्वाह...<br />
बहरहाल आज ऑफिस जाने का मन नहीं है. शीला भी, लगता है, कॉलेज चली गयी. वैसे भी उससे एक मोर्निंग टी एक्स्पेक्ट करना बेईमानी ही होगी. देखूं फ्रिज में कुछ ज्यूस - सोडा वगैरा... <br />
उफ्फ्फ ये माईग्रेन !<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०२.१.१९८५</i></div>ऑफिस आज भी नहीं गया, सर का दर्द और बढ़ गया. सुबह डायरी भी नहीं लिख पाया, चाहता हूँ कि रोज़ कुछ न कुछ लिखूं, नया मुल्ला जो ठहरा...<br />
शीला और राजेश की लड़ाई से नींद खुल गयी थी. पर मन और सर दोनों भारी रहे, सो लेटा रहा. बांग्लादेश वाली पार्टी से क्न्साइनमेंट फ़ाइनल करने के लिए कल ऑफिस जाना ज़रूरी है. सोचता हूँ आज शाम रुचिता को लेकर एस. आर. सी. हो आऊं . 'जिन ल्होर नि वेख्या.' <br />
कल कुछ लिखा था टाइपरायटर में ४-५ पन्ने बर्बाद करके भी मन माफिक नहीं बन पाया. और न ही सर दर्द ठीक हुआ...<br />
<b><i>"मंजिल इसको तो मिलती गयी,पर इसका ठिकाना कोई नहीं.</i></b><br />
<b><i>ये जानता सबको है लेकिन, इसका पहचाना कोई नहीं,</i></b><br />
<b><i>अब इसको जो पहचान सके, ये वो अनजाना ढूंढता है, ढूंढता है...</i></b><br />
<b><i>एक अकेला इस शहर में..."</i></b><br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०३.०१.१९८५</i></div>आज पूरा एक महीना बीत गया भोपाल की त्रासदी को, लेकिन अभी तक अखबार के पन्ने भरे पड़े हैं, हाँ बेशक खबरें अन्दर के पन्नों में चली गयी हैं और धीरे -धीरे छोटी होती जा रही हैं. लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि हिरोशिमा-नागासाकी कि मानिंद ही न केवल इसका प्रभाव दशकों तक रहेगा बल्कि वो लोग पूरी तरह से इसके दूरगामी परिणाम को नापने में अक्षम हैं. परिणाम? वो हमेशा सोच से भयावह ही होते हैं.<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०६.०१.१९८५</i></div>ठण्ड बढ़ गयी है. दिल्ली में अन्य रसद की तरह ही मौसम भी आयातित है, गर्मी जयपुर की, सर्दी शिमला की.<br />
डायरी में रविवार के लिए इतना कम स्पेस क्यूँ है? तब जबकि सबसे ज़्यादा 'क्वालिटी टाइम' रविवार को ही बीतता है. फुरसतें, तन्हाई, करने को कुछ नहीं...<br />
अखबार में तक तो कितने ढेर सारे सप्लीमेंट आते हैं.<br />
अगले साल जब 'रुचिता गारमेंट्स' की डायरी छपवाऊँगा तो सबसे ज़्यादा स्पेस शनिवार, रविवार और ज़िन्दगी को दूंगा.<br />
पूरा एक पन्ना...<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१४.०१ .१९८५</i></div>बीते रविवार, सपरिवार मूवी देखने जाना चाहता था पर लगता है मैं और रुचिता अब इतने बूढ़े हो गए हैं कि बच्चों को शर्म आती हो हमारे साथ. वैसे अच्छा ही हुआ बुढौती का प्रेम-प्रदर्शन और उससे होने वाली शर्म... रुचिता के शब्दों में कहूं तो...<br />
"हाय राम ! कुछ तो आगे पीछे की सोचा करें आप...".<br />
...............................<br />
...............................<br />
..............मुस्कुरा रहा हूँ.<br />
उसके हाथों में हाथ डाल के मूवी देखना मेरी ज़िन्दगी को ईश्वर द्वारा दिए कुछ अच्छे वरदानों में से एक है.<br />
...एनी टाइम !<br />
सोचता हूँ कि ऑफिस और काम की वजह से मैंने उसे जितना समय देना चाहिए था नहीं दे पाया. राजेश को कभी अपने अनुभव के आधार पर वैवाहिक जीवन के सफलता-असफलता के सूत्र ज़रूर बताऊंगा. पर...<br />
पर, वो सुने तब ना...<br />
अ पेसेज़ टू इंडिया अच्छी मूवी है, गोलचा वैसे बहुत स्पेशियस थियेटर नहीं है, पर चूंकि रीगल में अब तक शराबी लगी थी. तो दोबारा देखने से अच्छा सोचा अंग्रेजी मूवी ही सही. वैसे रुचिता को अंग्रेजी मूवी पसंद नहीं. खुश होने का कारण यही है कि रुचिता ने मेरा हमेशा साथ दिया. यहाँ भी. <br />
गोलचा के बाहर पान वाला गुम्चा पिछले साल हटा दिया था, पता नहीं हटा दिया था या दुकानदार गाँव चला गया ?<br />
राजेश बोलता है "पापा फिल्टर वाली सिगरेट पिया करो ". पर मुझे तो बस पनामा चाहिए.<br />
आते आते 'मासूम' का रिकॉर्ड उठा लाया, पार साल देखी थी. नैनीताल जाने का प्रोग्राम इसी को देख के बनाया था...<br />
तब भी सपरिवार...<br />
बट ऐज़ यूज्वल डेट आल्सो टर्न्ड ऐज़ प्लानिंग डिज़ास्टर.<br />
पता नहीं जो इंसान पोर्फेशनली इतना सफल है वो पारिवारिक स्तर पर इतना नाकामयाब क्यूँ? शायद दोनों का कारण एक ही हो या दोनों एक दूसरे के कारण...<br />
"तुझसे नाराज़ नहीं" मेल वर्जन कम्प्रेटिवली ज़्यादा अच्छा लगा.<br />
उठूँ अब...<br />
सोमवार इसलिए ही अच्छा नहीं लगता.बट... यू गोट्टा डू वट यू गोट्टा डू !एंड आई ऍम डूइंग इट सिंस...<br />
...डोंट ईवन रिमेम्बर सिंस व्हेन ?<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०७.०३.१९८५</i></div>होली के दिन बस इतना अंतर आता है कि सुबह से ही शुरू हो जाता हूँ, रंग-अबीर-गुलाल से तो एलर्जी सी है. इसलिए रुचिता ही हर आने जाने वालों से मिल लेती है. <br />
"तुम्हें तो बिल्कुल भी चिता नहीं. असामाजिक प्राणी !! हुंह..." सुबह से तीसरी या चौथी बार चाय बनाते बनाते चिल्लाती है. <br />
काम वाली होली के दिन आये ये एक्स्पेक्ट करना भी बेईमानी होगी. शीला, घर में नहीं है. होती भी तो माँ का हाथ तो क्या ही बटाती?...<br />
...उसे अपने को लड़का समझने और परिणामतः वैसा ही व्यवहार करने का फितूर है.<br />
"पोप्स यू टेल मी व्हय ओनली बोयज़ शुल्ड हव दी फन? आंट दी गर्ल्स ह्यूमन बींग एज वैल?"<br />
<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१०.०३.१९८५</i></div>गाईड की वी सी पी लेकर आया हूँ. जब पहली बार देखी थी तब भी अंत ने बहुत प्रभावित किया. इतनी रूमानी सी मूवी का इतना दार्शनिक अन्त? रोज़ी (वहीदा) की सेक्सुअल डिजायर को बिना मूवी को अश्लील बनाये दिखाने में विजय आनंद पूर्णतया सफल रहे हैं. बेशक इसका उपन्यास नहीं पढ़ पाया आज तक, पर मेरी 'टू डू' लिस्ट में हमेशा से ही है. मि. मल्होत्रा कहते है, <br />
"यू मस्ट रीड इट. इट'स अ जेनुइन इंडियन क्लासिक. मूवी में वो बात कहाँ?".<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१५.०३.१९८५ </i></div>राजेश की चिंता लगी रहती है. मेरे मेनेजर ने बताया की नशा उन्मूलन केंद्र इतने सफल नहीं हो पाते. तब तो और भी जबकी आदमी खुद दृढ संकल्प ना हो जाये. और फ़िर ड्रग्स के राक्षस ने तो कितने अच्छे अच्छे खाते पीते घर लील लिए.<br />
<br />
<div style="color: red;"><i><br />
</i></div><div style="color: red;"><i>०१.०४.१९८५</i></div>दी गाडफादर पहले ही पढ़ चुका था आज द सिसिलियन उठा लाया. १०-१२ पन्ने पढने के बाद आगे पढने का मन नहीं हुआ.<br />
राजेश के कमरे से रिकॉर्ड की आवाज़ आ रही है, पर्पल रेन का गाना होंट करता है, व्हेन डव्ज़ क्राय...<br />
<b><i>"तुम मुझे ऐसे अकेले कैसे छोड़ सकती हो,</i></b><br />
<b><i>तब जबकि ये दुनियाँ इतनी निस्सार है?</i></b><br />
<b><i>शायद मैं तुमसे कुछ ज़्यादा ही आशाएं रखता हूँ,</i></b><br />
<b><i>शायद मैं अपने पिताजी की तरह ही कुछ ज़्यादा ही धृष्ट हूँ,</i></b><br />
<b><i>और शायद तुम मेरी माँ की तरह,</i></b><br />
<b><i>...हमेशा असंतुष्ट."</i></b><br />
क्या राजेश भी मेरी तरह ही धृष्ट.....<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>०२.०४.१९८५</i></div>आज फिर टी. वी. देखते वक्त रुचिता के रोने की बहुत मज़ाक बनाई गयी. कई बार तो वो सब्जी जल गई कहकर रसोई में भाग जाती है.<br />
राजेश बोलता है, "आज फिर सब्जी में नमक और पानी डालने की ज़रूरत नहीं है. रि-साईक्लिंग यू सी." <br />
शीला ठहाका लगा के राजेश की बात में हामी भारती है...<br />
"ममा इज वैरी इक्नोमिकल ओन देट पार्ट."<br />
"एंड वैरी इमोशनल ओन रेस्ट."-राजेश<br />
बेशक मैं भी शीला और राजेश की तरह ही 'हम लोग' के परिवार को अपने और अपने परिवार से रिलेट नहीं कर पाता पर इससे प्रभावित नहीं हूँ ये कहना बेईमानी होगी. लगता है कि मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों कि ज़्यादातर दिक्कतें आर्थिक ही हैं, पैसों को लेकर. मैंने शायद इसका हर एपिसोड देखा है और लुत्फ़ उठाया है. पता चला है कि दूरदर्शन इसे १ साल से भी आगे बढ़ाने के मूड में है.<br />
इट'स ऑल बाउट डिमांड एंड सप्लाई.<br />
<div style="color: red;"><i><br />
</i></div><div style="color: red;"><i>१२.०४.१९८५</i></div>पहली बार डायरी लिख रहा हूँ इसलिए नहीं जानता कि क्या लिखना चाहिए क्या नहीं. फ़िर भी ये एक ओब्सेशन सा बनता जा रहा है.सोच रहा हूँ जब डायरी इतनी निजी सम्पदा है तो इसको लिखा ही क्यूँ जाता है?<br />
शायद अपने पढने के लिए...<br />
...कभी बाद में.<br />
हो सकता है हिसाब किताब रखने के लिए या कोई चीज़ याद रखने के लिए. पर मुझे याद नहीं आता की मैंने कभी इसमें कोई 'ऑफिशियल' या 'रिमाइन्डर' जैसी कोई चीज़ लिखी हो. ठीक ही तो है...<br />
...निजी सम्पदा... आफ्टर ऑल !!<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२०.०४.१९८५</i></div>अखबार की एक खबर को पढ़ कर बचपन का किस्सा याद आता है, धुंधला सा...<br />
कक्षा ६-७ की बात होगी, इतना बड़ा नहीं था कि 'प्रेम-अनुभूति' को समझ सकूँ, पर इतना बड़ा तो हो ही गया था कि किसी लड़की के साथ बात करना, बैठना सिलेबस डिस्कस करना और ढेर सारा समय बिताना बहुत भाता था.<br />
तीन लड़कियों में सबसे बड़ी लड़की...<br />
गीतिका... या गीतू...<br />
सोचता हूँ कि तब थोड़ा बड़ा होता तो क्या कहता उसे? गीत... शायद !!<br />
<br />
गीतू के पिताजी को ३ बच्चे पैदा करने के बाद संन्यास की याद आई. जब उसके घर गया २ महीने बाद तो उसकी माँ ने बताया कि गीतिका को आगे पढाना मुश्किल होगा... <br />
ऐसी कौन सी महाखोज थी जिसकी कीमत घर को त्याग के चुकानी पड़ी? कौन सा महाप्रकाश पाने के लिए ३ बच्चों की ज़िन्दगी में अँधेरा कर दिया? क्या ख्याल आया होगा बच्चों को सोते छोड़ घर से रात को चुपके से जाते वक्त? ये सब बातें मैं तब नहीं सोच पाया था. बस इतना जानता था कि अब गीतू मेरे साथ स्कूल में नहीं होगी. उसके साथ के लिए मैंने उसकी माँ से उसकी फीस देने की बात कब और कैसे की ये भी याद नहीं.<br />
मेरी जेबखर्ची बहुत थी उसके लिए.<br />
मेरी इस कोशिश के बावजूद गीतू मेरे साथ बस एक साल ही स्कूल में रही. <br />
अब सोचता हूँ उसके बाप के बारे में...<br />
<br />
पहला प्यार भूला नहीं जाता, पहली नफरत भूलनी नहीं चाहिए. <br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२३.०४.१९८५</i></div>सोचता हूँ बूढ़ा हो रहा हूँ तेज़ी से, पर राजेश को आवारागर्दी से फुर्सत मिले तो न वो फेक्ट्री का काम समझे. कल वो तीसरी बार 'सैसेशन सेंटर' से भाग आया. लगता नहीं कि उसकी आदत ज़ल्द ही सुधरने वाली है. <br />
गर्मियां बढ़ गयी हैं, असहनीय...<br />
आज शाम को ऑफिस से आने के बाद रुचिता के साथ टहलने निकल गया था...<br />
और आज ही पता चला कि इस शहर में खासकर दिलशाद गार्डन में ढेर सारे बूढ़े और उससे भी ज़्यादा पालतू कुत्ते हैं, <br />
दिलशाद गार्डन शायद दिल्ली के उन चुनिन्दा पॉश इलाकों में से एक है जहाँ पे अल्सिसियन या पोमिरियन नैतिकता गले में पट्टा डाले शाम ढले ए.सी. की हवा से बाहर निकलती है.शायद मल विसर्जन करने को या दूसरी नैतिकताओं का पिछवाड़ा सूंघ के उनकी जेनुइन होने की पुष्टि करने. इन नैतिकताओं का अपनी जमीन (जो कि महज़ इनकी चारदीवारी तक सीमित है) के अलावा पूरी दुनिया के बारे में 'कोऊ नृप होऊ' की भावना है और 'टांग उठाने' तक का सम्बन्ध है. ये नैतिकताएं कभी कभी अपने मालिक को भी दूर तक दौड़ा देती हैं. अगर नैतिकताओं का मालिक 'विचार', बूढा, बीमार या दोनों हों तो इसकी सम्भावना अधिक है. और अपने घर पहुँच के यही नैतिकताएं उन बूढ़े मालिकों से मार खा के 'कूँ कूँ' करके सो जाती हैं. <br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२४.०४.१९८५</i></div>कल शीला बड़ी देर से घर आई.<br />
मैं तो उससे कुछ कहता नहीं, हक़ ही खो दिया शायद, पर रुचिता का कहना भी बेकार ही गया मानो. या तो बच्चे डांट से सुधर जाते हैं (शायद). या और धृष्ट (ज़्यादातर).<br />
पर राजेश को जाने क्या होता जा रहा है, उसे तो कभी डांठा भी नहीं ? <br />
लगता है कि कहीं कुछ छूटता जा रहा है....<br />
मन निर्वात की ओर बढ़ रहा है. और रफ़्तार बहुत तेज़ है...<br />
कुछ बुरे की आशंका हमेशा ही रहती है. हमेशा...<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१६.०६.१९८५</i></div>पता नहीं क्यूँ मेरा फेवरेट संडे-आउटिंग-आईडिया 'मूवीज' और 'पब' से हटकर 'थिएटर' होता जा रहा है?<br />
...शायद उम्र का तकाजा है.<br />
नाट्य-मंचन के बाद दर्शकों और निर्देशक के इजलास से पता चला कि 'पैर तले कि ज़मीन' मोहन राकेश के मरणोपरांत उनके मित्र कमलेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया था.<br />
सोचता हूँ अगर मोहन राकेश ने खुद इसका अंत लिखा होता तो वो क्या होता...<br />
...शायद इसी लिए हम 'पैर तले की ज़मीन' के मानिंद न ज़िन्दगी को अपने मायने दे पाते हैं न औरों को उनकी के, देने देते हैं. सबसे बड़ा हस्तक्षेप यही तो है...<br />
...और फ़िर जो न हुआ हो उसे सोचना अच्छा तो लगता ही है. क्यूंकि वो, लगता है कि, हमारे बस में था. बस वही तो हमारे बस में था जो नहीं हुआ...<br />
बहरहाल पैर तले की ज़मीन एक विपदा (बाढ़) से उपजे मनोविज्ञान की कहानी है. और मैं खुद को, अभी, इन बातों को समझने के लिए बहुत इम-मच्योर मानता हूँ (५५ साल और इम-मच्योर !!) .अगले हफ्ते विजय तेंदुलकर आ रहे हैं 'सखाराम बाइंडर' और 'खामोश, अदालत जारी है' दोनों का ही मंचन एन. एस. डी. में होना है. और यहाँ पर 'अ सोलज़र'स प्ले'.<br />
वैसे अपने अनुभव, जो कि बहुत कम है, के आधार पर कह सकता हूँ कि श्री राम सेंटर के बनिस्पत एन. एस. डी. ज़्यादा डिवोटेड लगता है इसलिए वहां ज़्यादा मज़ा आता है. एंड बिसाइड डेट, वहाँ की दर्शक दीर्घा भी अच्छी खासी स्पेशियस है. <br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१७ .०६.१९८५</i></div>आज कुछ लिखने का मन हुआ, कविता सा कुछ, या कोई विचार...<br />
देर से डायरी पड़ी हुई है, डेस्क में, मुंह चिढाती हुई..<br />
योगक्षेमं वहाम्यहम यानी आपका लाभ और सुरक्षा मैं सुनिश्चित करता हूँ...<br />
सच ! उम्र के इस दौर में सोचता हूँ, क्या मैं बच्चों और रुचिता के लिए लाभ और सुरक्षा सुनिश्चित कर पाया ? और क्या यही दो चीज़ें आवश्यक हैं बस ?<br />
योगक्षेमं वहाम्यहम !<br />
नहीं... नहीं...<br />
ये वास्तव में किसी वित्तीय संस्था की ही टैग लाइन हो सकती है...<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२५.०६.१९८५</i></div>कल बी बी सी से सुना की ३२९ में से कोई भी नहीं बचा, सोचता हूँ, ३१००० फीट की ऊंचाई में मरना कैसा लगता होगा, और विस्फोट से मरना? क्या विस्फोट के बाद भी उन लोगों की सासें चलती रही होंगी? शायद कुछ देर तक? दर्द भरी सासें. सासें कहो या सिसकियाँ कहो? भगवान उन सबकी आत्मा को शांति दे. शायद ठीक उसके बाद नरेटा एअरपोर्ट में भी ऐसा ही कोई हादसा हुआ है.<br />
न जाने कब ये वैश्विक आतंकवाद समाप्त होगा? शायद ज़ल्दी ही....<br />
...आमीन ! <br />
खैर, मरने वालों में अपना कोई नहीं था.<br />
<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२५.०७.१९८५</i></div>नेशनल ज्योग्राफिक का लेटेस्ट एडिशन हाथ लगा है, मुख पृष्ठ में छपी 'शरबत गुला' की तस्वीर पूरे संसार में धूम मचा रही है. शरबत गुला एक अफगानी लड़की है जो अफगानिस्तान में हुए गृह युद्ध में अनाथ हो गयी थी. ये गृह युद्ध सोवियत संघ द्वारा पोषित है. अमेरिका की सहायता से शरबत गुला को ढूँढने में सफलता हाथ लगी. लगता है अमेरिका की सहायता से ही कभी अफगानिस्तान में चैन - ओ - अमन कायम होगा.बढ़िया बात है कि अमेरिका की वजह से ही, धीरे धीरे ही सही अफगानिस्तान के हालात उत्तरोतर सुधर रहे हैं.<br />
<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२७.०७.१९८५.</i></div>बेक टू दी फ्यूचर...<br />
वैसे था ये मज़बूरी का सौदा ही. रुचिता नाराज़ है वो कहती थी कि 'राम तेरी गंगा मैली' के टिकट अडवांस में ही खरीद लेने थे. रुचिता तो आधी मूवी में ही सो गयी थी, फिर घर आकर उसे पूरी कहानी सुनाई. किसी बोरिंग रिवीजन की तरह.<br />
<br />
और मज़े की बात कहानी सुनते सुनते उसे फिर नींद आ गयी है, मैं टेबल लेम्प जला के डायरी लिख रहा हूँ, नींद नहीं आ रही, पर सोने की कोशिश करता हूँ...<br />
कितना क्रिएटिव नाम है...<br />
...बेक टू दी फ्यूचर !<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>१८.०८.१९८५</i></div>शीला फिर देर से घर आई है, उसके कमरे से उसकी और उसकी माँ की चिल्लाने की आवाज़ें आ रही हैं...<br />
"...इफ यूअर एंड पापा'ज़ ओनली मोटो बिहाएंड सेक्स वज़ प्लेज़र, देन व्हय डिड यू गेव बर्थ टू अस? आए ऍम प्रिटी मच श्योर डेट कंडोम्स एंड अदर रिसोर्सेस वर रेडिली अवेलेबल एट योर टाइम एज वेल.<br />
दे वर ! राईट? देन व्हाय वी ममा? व्हाय वी? क्यूँ ममा क्यूँ?"<br />
आवाजें बंद हो गयी. डायरी भी बंद करके रख देता हूँ , शायद रुचिता इधर ही आ रही है. <br />
<br />
<br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२०.०९.१९८५ </i></div><b><i>भागते फिरते,</i></b><br />
<b><i>शहरी सभ्यता से.</i></b><br />
<b><i>गंवार खेतों से होते हुए...</i></b><br />
<b><i>...गुलमोहर के झुरमटों में,</i></b><br />
<b><i>किसी पहाड़ी पे चढ़ते चढ़ते,</i></b><br />
<b><i>साथ साथ गहरे होते गड्डों से डरते...</i></b><br />
<b><i>अपनी ही आवाज़ की गूँज सुनके...</i></b><br />
<b><i>खिलखिलाते !</i></b><br />
<b><i><br />
</i></b><br />
<b><i>किसी तह किये कागज़ की सिलवटों में पड़े,</i></b><br />
<b><i>छत के किसी कोने में ...</i></b><br />
<b><i>...उंघते पीपल जैसे.</i></b><br />
<b><i>कुछ उड़ती धूल की नींव में रखे गये...</i></b><br />
<b><i>कभी ,</i></b><br />
<b><i>'गृहों की मनोदशा' की भेंट चढ़े.</i></b><br />
<br />
<b><i>या,</i></b><br />
<b><i> किसी शिलालेख के पत्थर जा हुए ...</i></b><br />
<b><i>...</i></b><br />
<b><i>...</i></b><br />
<b><i>बिखरते रहे....</i></b><br />
<b><i>...कागजों से उतरकर,</i></b><br />
<b><i>..ये सपने.</i></b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://seshdotcom.files.wordpress.com/2008/04/lic_logo.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://seshdotcom.files.wordpress.com/2008/04/lic_logo.gif" /></a></div><br />
<br />
<div style="color: red;"><i>२०.१०.१९८५.</i></div>कितनी अजीब बात है कि आज फ़िर रविवार है लिखने को बहुत कुछ...<br />
और स्पेस?<br />
ये नहीं कहूँगा कि मुझे इस बात का अंदेशा ही नहीं था, पर जिस तरह से मैंने सोचा था वो थोड़ी मोडरेट... थोड़ी कम चुभन वाला था.<br />
परिणाम? वो हमेशा सोच से भयावह ही होते हैं.<br />
मुझे अब भी यकीन नहीं होता कि ऐसा मेरे साथ हुआ. और उससे ज़्यादा इस यकीन उस बात पे नहीं हो रहा जो मैं करने जा रहा हूँ....<br />
...एक ओर अपने भविष्य (?) को लेकर उठाये कदम को पूर्णतया गुप्त रखना चाहता हूँ, दूसरी ओर ये डायरी लिख रहा हूँ, जिसको कभी न कभी किसी न किसी के द्वारा पढ़ा ही जाना है, इसको अपने साथ ले जान अपने साथ बेईमानी होगी और इसे नष्ट कर देना मेरे लास्ट ओबसेशन की हत्या.<br />
एक, मुझे याद नहीं आता कि मैंने कब अपने होश-ओ-हवास या नशे-पत्ते में भी राजेश पर हाथ उठाया ?<br />
दूसरा, मुझे ऐसा कोई घर भी नहीं जान पड़ता जहाँ बेटे ने अपने बाप को...<br />
शायद ये दो बातें संयोगवश एक साथ लिख दी गयी हैं इसलिए इनके सम्बन्ध पर अब गौर कर पा रहा हूँ....<br />
इसीलिए शायद मैं, जब इस घटना को अपने पूर्व के कार्यों से जोड़ के देखता हूँ, और उसके बाद के परिणाम, तो सच कहूँ,तो राजेश के किये पर नहीं... अपने न किये पर घृणा होती है.<br />
चोट तो कल रुचिता को भी लगी थी, बातों की...<br />
तब शायद रुचिता ने बात बढाई होती तो...<br />
तो शीला भी उसके साथ...<br />
...मुझे मालूम है,रुचिता आज भी नहीं सोयी होगी.वो इतनी मजबूत नहीं है कि इस सब को बार बार सह सके.उसका कहना अच्छा एक्सक्यूज़ था बहलाने को...<br />
"नशे में हो जाता है. बच्चे अब बड़े हो रहे हैं. उन्हें उनका स्पेस दो.वैसे आपने भी तो इस उम्र तक कोई एब नहीं छोड़ा था."<br />
"हाँ पर बाप को थप्पड़?"<br />
ऐसा कुछ तीसरी बार न हो इसके लिए मुझे ही कुछ करना होगा...<br />
..पहले शायद वक्त रहते में बहुत कुछ कर सकता था, पर अब विकल्प कम हैं, या शायद एक ही विकल्प है...<br />
मुझे ही सुनिश्चित करना होगा...<br />
...योगक्षेमं वहाम्यहम !<br />
<div style="color: red;"><i><br />
</i></div><div style="color: red;"><i>दायें पन्ने में बड़ा सा क्रॉस किया हुआ है.निशान कई बाद के पन्नों में भी है.शायद आज तक के पन्नों में.</i></div>दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7479892021808539083.post-2853525535953379632010-05-13T09:24:00.000-07:002010-09-13T09:26:10.208-07:00शोनाघोड़ा कैसे चलता है? वादा किया था न तुमसे...ऐसे ही शुरुआत होगी मेरी पहली किताब की?<br />
<br />
"अच्छा, लिखूंगा क्या उसमें?"<br />
"कुछ भी लिख दो, कौनसा कोई पढने वाला है?"<br />
"और तुम?"<br />
"मैं पढूंगी ना..."<br />
"अच्छा? वाह ! पूरी ?"<br />
"अब इसका वादा मैं नहीं कर सकती."<br />
"....."<br />
"हाँ बाबा पूरी, बार बार."<br />
<br />
जब तुम्हारे साथ थक के बिस्तर पर लेटा था, धीरे धीरे थके हुए पंखे को एक टक देखना, वो पंखा ऐसा हुआ चाहता था मानो अभी सब कुछ उसी ने किया था. तुम्हारी संतुष्ट सासें जब मेरे सीने से लगती तो अपने आप ही, एक सतत प्रक्रिया के तहत मेरे हाथ कंघी बन जाते थे. तुम्हारे तो पहले ही थे.<br />
<br />
"सनसिल्क ?"<br />
"ऊँ हूँ ! क्लिनिक ऑल क्लेअर"<br />
<br />
तुम बोलती तो तुम्हारे होंठ एक अजीब सी हरकत करते थे मेरे सीने में.<br />
<br />
"हम्म.."<br />
"तुम तो कहते थे की मैं खुशबू से दुनियाँ को पहचानता हूँ?"<br />
"एकच्युली यू आर आउट ऑव दिस वर्ल्ड ना. और तुम्हारी खुशबूएं भी "<br />
<br />
इस स्थिति में इससे अच्छा जवाब नहीं ढूँढ सकता था मैं.पर तुम सच्चाई जान लेती थी की मैं थका हूँ और मेरा पेट (मन) भरा हुआ है.<br />
<br />
"हाँ, दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है."<br />
<br />
पलटी, सिगरेट का डिब्बे में से एक सिगरेट निकाल के मेरे होठों में लगा दी और लाइटर जलना तुम्हारा,१०-१२ असफल प्रयास के बाद, मानो कोई बम दे दिया हो हाथ में, गुलज़ार साब से माफ़ी मेरी बीवी वाकई गुस्से में बम बनती है.<br />
<br />
"ग़ालिब"<br />
"गालीब"<br />
"ग़"<br />
"ग़"<br />
"ग़ालिब"<br />
"ग़ालिब"<br />
"दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है."<br />
"दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है."<br />
"ख़्याल"<br />
"ओफ्फो क्या मुसीबत है? दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है."<br />
"परफेक्ट"<br />
<br />
शायद तुम लड़की की ख़ूबसूरती के साथ उसके दिमाग का समीकरण जानती थी. और उसके साथ साथ तीसरी अचर राशी 'हंसी' . तुमने कभी कहा था की मुझे बीज गणित से डर लगता है. मैं नहीं मानता.<br />
<br />
"खाना लगा दूं?"<br />
"क्या बनाया है?"<br />
<br />
बड़ी मुश्किल होती थी गर्दन को मोड़कर धुंआ तुमसे दूर छोड़ने में.<br />
<br />
"कुछ नहीं." (तीसरी अचर राशी, हंसी ).<br />
"अच्छा बताओ तुम्हारे एहसासों का रंग कैसा है?"<br />
"मम्म लाल? नहीं क्या?"<br />
"ऊँ हूँ ! गुलाबी."<br />
"हाँ वही."<br />
"तुम तो कहती थी की मैं रंगों से दुनियाँ को पहचानती हूँ ? "<br />
<br />
सिगरेट में ऐश ज़यादा हो गयी थी तो तुमने मुझमें उलझे बालों को सुलझाते हुए मेरी साइड टेबल में ऐश-ट्रे रख दिया.<br />
<br />
"एकच्युली आइ ऍम आउट ऑव दिस वर्ल्ड ना." (तीसरी अचर राशी). <br />
"और एनी-वे, मैंने ही कहा था न कि में रंग जानती हूँ नाम नहीं, तो तुम्हारा 'गुलाबी' मेरा 'लाल' ही तो है."<br />
<br />
बीजगणित के समीकरण अब भी सही थे पर उत्तर वो नहीं थे जो होने थे.<br />
<br />
"ओफ्फो इस लाइट को भी इसी वक्त जाना था."<br />
<br />
अबकी बार न तुम्हें लाइटर ढूँढने में परेशानी हुई न उसे जलाने में. इसका क्या मतलब? शायद मैं सोचता बहुत हूँ.अब भी मेरे हाथ तुम्हारे बालों में उलझे हुए थे, पर तुम्हारे बाल नहीं.<br />
<br />
"जॉब का क्या हुआ?"<br />
"ढूँढ रहा हूँ."<br />
"तुम्हे पता है न.."<br />
"हाँ पता है"<br />
"जितनी मेहनत मुझसे ये सब करने में करते हो अगर उसकी आधी मेहनत भी जॉब ढूँढने में करते तो ये दिन.... खैर छोड़ो."<br />
<br />
दृश्य पटल कैसे बदलता है ना, मानो ये कमरा भी कोई रंग मंच हो,पंखा धीरे धीरे बंद होते होते बंद हो चुका था, ग़ुलाम अली की सी. डी. बंद कंप्यूटर दूसरे कमरे से मानो बुझने से पहले कुछ और तेज़ हो गया हो... टूं टूं टूं टूं. रौशनी थोड़ी नीची हो गयी थी.<br />
शायद मंच कि इस सजावट के कारण ही मन किया कि कह दूं...<br />
तुम्हें क्या मतलब.<br />
पर मैं अब भी जल रहा था, शायद अभी इस कैरक्टर को आत्मसात नहीं किया था, अब भी दिमाग तुम्हें छू रहा था,मन पुराने लम्हों में कुंडली मार के बैठा था, जितना तेज़ है ये मन उतना ही धीमा भी, बहुत हल्का है शायद इसलिए.<br />
<br />
'अच्छा तुमने तुलसीदास और उसकी पत्नी की कहानी सुनी है? पत्नी का नाम तो मैं भी नहीं जानता, रुको गूगल करने दो.'<br />
<br />
सिगरेट को बुझाते हुए उठने कि कोशिश की.<br />
<br />
'हाँ ! वो सांप वाली? कंप्यूटर बंद हो गया है.'<br />
<br />
सर नहीं हटाया तुमने अपना.तुम्हारा वो सच्चे गुस्से को अपने प्रेम के एहसासों से समतल करना भी अच्छा लगता था.<br />
<br />
"सोचो अगर वो तुलसीदास जी से राम का नाम जपने के लिए न कहती तो क्या होता?"<br />
"क्या होता ? रामायण नहीं लिखी जाती और क्या? उईईई बाबा."<br />
<br />
तुम्हारे उठने के प्रयास ने तुम्हारे बालों को उलझा दिया था.<br />
मैंने अपने दोनों हाथों की तकिया बनाकर सर के पीछे रख लिया था. तुम अंधरे में भी बड़ी आसानी से किचेन में चली जाती थी. अँधेरे में ऐसा लगता है कि आवाज़ अपने आप अच्छी सुनाई देती है फिर भी मैंने आवाज़ बढ़ा दी थी.<br />
<br />
"हाँ फिर?"<br />
"फिर मेरा सर. खाना यहीं खाओगे या..."<br />
"फिर शोना, देवदास, गुनाहों का देवता या शायद रश्मिरथी टाइम लाइन में थोड़ी पीछे होती. या फिर उससे भी बेहतर कृति. कितने लोग पढ़ते हैं रामायण?"<br />
"हाँ पर पूजते तो हैं, गरम करूँ दाल या ऐसे ही?"<br />
"हाँssss पूजते तो हैं ! यही तो विडम्बना है."<br />
<br />
चप्पल अपने पांव से सीधी की और तुम्हारी रोशनी का पीछा करते हुए तुम तक जा पहुंचा. तुम शायद सुबह कि दाल गर्म कर रही थी. और मैं अभी अभी बासी हुई अपनी केफियत. तुम्हें पीछे से पकड़ लिया तुम अचक गयी और फिर कितन तेज़ मारा था तुमने कुहनी से मेरे पेट में बिना पल्टे ही?<br />
<br />
"ओ मम्मा"<br />
"क्या हुआ?"<br />
<br />
पीछे पलटती न तुम तो शायद चूल्हे में रखी दाल न गिरती.<br />
और हम उसे २ सेकंड तक देखकर एक दूसरे को बाँहों में न भरते.<br />
अभी भी याद नहीं है मुझे हमने उस दिन क्या खाया था? कुछ खाया भी था कि नहीं?<br />
<br />
<br />
"अच्छा शोना, घोड़ा कैसे चलता है बताओ न?"<br />
"बकवास बंद करो."<br />
"और तुम अपनी आँख."<br />
<br />
<br />
घोड़ा ऐसे चलता है...<br />
......तगड़ तगड़ तगड़, तेज़ और तेज़.दर्पण साहhttp://www.blogger.com/profile/14814812908956777870noreply@blogger.com0