शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

पूर्ण भ्यास

मानने में बेशक ना हो पर कहने में बड़ी द्विविधा है कि इसे लिखते वक्त मैं मनोहर श्याम जोशी जी से इंस्पायर्ड हूँ. कारण, यदि मैं कहता हूँ तो साहित्य की बहती गंगा में  हाथ धोना कहा जाएगा. ना कहता हूँ तो ड्यू क्रेडिट्स ना दिए जाने का दोषी ठहराया जाऊँगा. हाँ पर ये ज़रूर है कि भाषा जोशी जी से पुरानी  और घटनाएं उनसे नयी  होने के बावजूद भी, 'कसप', 'कुरु कुरु स्वाह' और 'क्याप' पढ़े बिना इसको लिखना और इस तरह से लिखना असंभव था. बाकी पाठकों का सोल डिसक्रीशन...



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भ्यास (bhyaas) noun, adjective : Bhyaas is a two syllabic (2-1) word originating from (and residing in as well) kumaon which literally means 'Dumb' . Bhyaas, though, generally is used in negative terms /meaning, however women, girls use this word for expressing love by giving stress to the first syllable (i.e. भ्याआआस).

Verb: भ्यास-योली




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"गोलू द्याप्ता (देवता ) की ही मर्ज़ी ठहरी. आज ही राकेश दा कह रहे थे कि तुझे तेरा वो मिलेगा. उनके अंग भी तो गोलू द्याप्ता आने वाले हुए. छिः मैं तो कहाँ मानने वाली हुई ये सब. पर, फ़िर, हर इन्सान के चौबीस घंटे मैं एक बार तो सरसती आती ही है. मैं जो उनकी बात मजाक में टाल गयी. दौ राज दा ! तुम भी कैसी कैसी बात कर देने वाले हुए कहा. यहाँ नैनीताल में जौन मिल रहा होगा? फ़िर मुझे क्या पता तुम्हें मिलना है मुझसे. जैसे तैसों को में मुंह नहीं लगाने वाली हुई और मिला कौन मुझे तुम जैसा भ्यास !"


किसी भी प्रेम कहानी या किसी भी कहानी कि शुरुआत बड़े सामन्य ढंग से होती है. फ़िर घटनाओं के ताने बाने से होकर, चरम से होकर, अपनी परिणिती तक पहुँचती है. लेकिन उफ्फ ! ये वास्तविकता !! कहानी के रचनाशिल्प के सारे नियमों को बारी बारी से तोड़ते हुए आगे बढती है. इतनी सामन्य सी स्थिति में समाप्त होती है कि यदि उसके बाद कोई चीज़ जोड़ी या घटी जाए तो भी कहानी के कथन में, भाव में कोई अंतर नहीं आना. हाँ लेकिन इसका प्रारब्ध बड़े ही अविस्मरणीय ढंग से हुआ.

मैं कहाँ जानता था कि तुम मेरी बहन सबसे अच्छी सहेली हो ?और जानता भी तो डरपोक भी तो हद दर्जे का था. इतना कि कोई लड़की अगर फ्रेंडशिप का कार्ड दे दे तो तुरंत पढ़े बगैर फाड़ के फैंक दूं. ऐसी जगह जहाँ रवि तो क्या कोई कवि (इन्क्लुडिंग साग़र ) भी ना पहुंच सके. वो तो अपने शहर से इतने दूर नैनीताल आया हुआ था तो थोड़ी डर कम थी. यहाँ हम अल्मोडियों को कौन जानता है. इसलिए उस शादी में बने कुछ दोस्तों के साथ मॉल रोड घूमते घूमते तुम्हें छेड़ दिया था. क्या पता था कि उसी दिन तुम्हारे राज दा ने, जिनके अंग द्याप्ता आते हैं, तुमसे कहा था कि कोई मिलने वाला है तुम्हें. मुझे क्या पता था कि तुम भी मेरी तरह अल्मोडिया हो. मुझे क्या पता था कि १२-१३ साल बाद तुम्हें इस तरह याद करूँगा. मुझे क्या पता था कि प्रेम बस....

...हुआ चाहता है !




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किसी कहानी के लिए बेहतरीन प्लॉट था हमारा तुम्हारा प्रेम. लेकिन किसी प्रेम कहानी के लिए नहीं, किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी कहानी के लिए. जहाँ नायिका 'दलित' है नायक 'सवर्ण' सारे बन्धनों को तोड़कर सारे जहाँ को दुत्कार कर सारे सड़े-गले रिश्तों को धता बतलाकर नायक नायिका को अपनाता है और सारे ज़माने से लड़कर नायिका को जीतता या हारता है...
..अपने दम पे.
...नायिका उसकी एक मात्र संबल और एक मात्र कमजोरी.
और अन्त में...
..दे लिव हेपिली एवर आफ्टर, या दे डाइड हेपिली टू लिव एवर आफ्टर.
मग़र जानती हो? हम मूलतः बड़े डरपोक लोग हैं. जब हमें नायिकाओं को लेकर घर से भागना होता है तो हम अकेले घर से भागते हैं. और जब हमें कभी भी वापिस नहीं आना चाहिए हम अगले दिन ही घर वापिस आ जाते हैं. और फ़िर भागने के प्रयास भी तो आत्महत्या सरीखे होते हैं. एक बार असफल हुए तो दूसरी बार कम ही प्रयास होता है इनका .
वैसे भी मैं बचपन से लकर आज तक अपने को किसी कहानी या मूवी के नायक से कभी रिलेट नहीं कर पाया . हमेशा पीछे नाचने वालों या नायक के दोस्तों मैं ही ढूंढा अपने को जो अधिकतर लूज़र्ज़ ही होते हैं, क्रमशः शाहीद कपूर और करण जौहर को छोड़कर. मग़र दुनिया में नायकों को नायक कहने वालों की भी आवश्यकता होती है. टाईम जैसी विश्व - प्रतिष्ठित पत्रिका भी इस कम्युलेटिव 'यू' को पर्सन ऑव दी एयर बताती है. तो जब मैं तुम्हें अपनाकर इस कहानी को 'सामाजिक सरोकारों की कहानी' बना सकता था, मैं इसे घिसी पिटी प्रेम कहानी बनाने में ही सफल (?) रहा बस. जब मैं एक इंडिविजुएल नायक बन सकता था, मैं कम्युलेटिव 'यू' का एक हिस्सा बन के रह गया बस.
सही तो कहती थी तुम मुझे...
..भ्यास !


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कितना अज़ीब सा प्रेम था ना?
..किस्से कहानियों में पढ़ा गया जैसा. फ़िर भी नया सा. बेवकूफी भरा दरअसल...
भला दो पन्नों के ऊल-ज़लूल ख़त को 'कहो ना... प्यार है' नहीं नहीं 'से ना.. ..लव है' पे समाप्त करना बेवकूफी नहीं तो और क्या है ? और तुम्हारा तीन पन्नों का ज़वाब? 'कहा ना.. ..प्यार है' पे ख़त्म होता ख़त. पर अज़ीब सी बात एक और भी है, क्यूँ याद नहीं मुझे उस ख़त का मज़मून? क्यूँ बस अपनी और तुम्हारी बेवकूफियां ही याद हैं मुझे? हाँ बेवकूफियों भरा ही तो था हमारा प्रेम. तभी एक चुम्बन तक सिमट कर रह गया.
जानती हो उस प्रेम की सबसे बड़ी बेवकूफी क्या थी? तुम कैसे जानोगी? करता तो मैं था...

...जब, तुम कहती थी शायद हम दोनों को अलग हो जाना चाहिए, या क्या हम दोस्त बनकर नहीं रह सकते? या मुझे जाना है... और हर बात पे मेरा हाँ कहना थी सबसे बड़ी बेवकूफी.
अगले ही दिन तुम कहने वाली हुई... ".ऊजा (ओ ईजा ! ओ माँ !) ऐसा भी कहाँ हो सकने वाला हुआ? हम दोनों दोस्त ? मैं भी कितनी वैसी हुई ना? और तुम भी ना मेरी हाँ मैं हाँ जैसे मिला देते होगे? भ्यास जैसे जो होगे तुम कहा."
ठहरा तो मैं भ्यास ही वैसे. उन दिनों में भी जब तुम्हारे लिए नाइंथ क्लास के नए सिलेबस के 'मॉडल पेपर्स' काट के सहेजता था. दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों में से.
गणित और विज्ञान के भी. आर्ट साईड के लिए ! तुमको पता है जान बूझ के किया था मैंने ऐसा. जिससे वो बंडल मोटा हो जाए. (देखा मैं भ्यास नहीं चंट था बहुत.) हद्द है ! मॉडल पेपर की मोटाई से भी कहीं प्यार नापा जाने वाला हुआ भला? अब बताओ जहाँ कहीं भी सोचकर बताओ क्या ये बेवकूफी नहीं?
और वो? कितना फ़िल्मी कितना सुना सुना सा लगता है ना ? बैडमिनटन खेलते वक्त जब सब बच्चे अपनी बारी का इंतज़ार करते थे मैं तुम्हारे साथ अपना खेल जमाता था. सब बच्चों ने चिढना ही था, और ऊपर खड़ी हमारी माओं को श़क होना ही था. "चेली ! बोर्ड के इग्जाम हैं. पढ़ना लिखना सब हराण. खेल में ही लगे रहो तुम लोग दिनमान भर."
कैसे रैकेट पटककर जाती थी तुम बच्चों को घूरकर. "सालों तुम्हारी ही नज़र लगी होगी फ़िर. कितना अच्छा खेल जो जम रहा था हमारा."
कितना अच्छा प्रेम चल रहा था हमारा इसको किसकी नज़र लगी होगी फ़िर?



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जब बेवकूफियों को याद कर रहा हूँ तो वो दिन कैसे भूल सकता हूँ? याद है? जून का महीना था...
...चितई मन्दिर के नीचे बैठे थे हम. तब तुम्हें छूने कि हिम्मत ही कहाँ थी? वैसे ऐसे एहसास भी कहाँ जगे थे तब? लगता था प्रेम के मायने देर तक एक दूसरे के साथ बैठे रहना है बस. और यकीन करो यहाँ देर के मायने केवल 'ज़िन्दगी भर' ही हो सकता है. क्यूंकि उससे कम समय...
...कम, बहुत कम ही लगता हमें. तुम्हीं देख लो ! अगर अब तक भी बैठे रहते हम दोनों साथ साथ और ठीक इस वक्त उठ के जाना होता...
... तेरह साल बाद भी. क्या नहीं लगता बहुत थोड़े समय हम साथ बैठे?

हाँ तो चितई मंदिर...
...कहाँ पता था हमें कि उस 'पुलिस-मिलट्री' या 'जंगल-पुलिस' या जो कोई भी...
...उसके बस का कुछ नहीं. कैसे अलग अलग ले जाकर हमारे बयाने लिए थे हमारे. कहता था कि उसने हमें एक दूसरे को देखते हुए रंगे हाथों देख लिया है. फिल्मों का उन दिनों मुझपे ऐसा असर था कि सोच रहा था हमें ब्लैकमेल करके तुम्हारे साथ कुछ कर ही ना दे वो. हंस रही हो ना तुम? अब तो मैं भी हंस रहा हूँ ख़ैर. क्यूंकि अब मैं होमगार्ड का मतलब जानता हूँ. उस दिन कैसे दहाड़ मार मार के रो रही थी तुम. क्या कहती थी? हाँ... " अब तो हम बदनाम हुए ही समझो. अल्मोड़ा कोई बहुत बड़ा थोड़ी ना हुआ. कल तक औरी-बात हो जानी है पूरे शहर में. चलो इससे बढ़िया आज ही आत्महत्या कर लेते हैं. हमारे मरने के बाद किसको क्या पता?"
शायद पहली बार मैंने तुम्हें भ्यास कहा था "ओ भ्यास ! तब भी सबको पता चल जाएगा."
"पर हमको क्या पता.तो चलो आत्महत्या कर ही लेते हैं."
पर हमारे प्रेम को शायद अमर होना लिखा ही ना था. वहाँ जंगल में आत्महत्या करने का कोई जुगाड़ ही ना हुआ. और हमें अगली सुबह अखबार का इंतज़ार करना ही पड़ा. पिछले २०-२५ दिनों में शायद पहला मौका था जब तुम्हारे लिए मॉडल पेपर्स काटना भूलकर सारी खबरें पढ़ डाली थीं. 'दुःख' से विपरीत 'डर' समय के साथ साथ बढ़ता चला जाता है. तभी तो 'होमगार्डों की भर्ती' वाले विज्ञापन में भी होमगार्ड पढ़ते ही पसीना चूने लगा मुझे. और वो खबर...
...'खाई से कूदकर औरत ने आत्महत्या की.' पूरी पढ़ी थी मैंने. ये भी नहीं ध्यान दिया कि औरत तो तुम इस बात को लिखते वक्त होवोगी ! १३ साल बाद....
..ख़ैर ! हम बच गए. जुदा होने के लिए. तुमने कभी इस बात को बाद में याद करके कहा भी था. "कितना अच्छा जैसा होता ना हम बदनाम ही हो जाते साला. हमारे इजा-बोज्युओं होरों को हमारा ब्याह करना ही पड़ता.कैसे ना कैसे करके. नहीं फ़िर?"
वैसे तो उसके बाद भी आत्महत्या के कितने ही मौके आए, रोज़ ही आते हैं. पर यकीन करो आत्महत्या करना मुझे 'उतना' अच्छा फ़िर कभी ना लगा.



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एक तो जब तुसे प्रेम हुआ था तभी बोर्ड के इग्जाम ! यू. पी. बोर्ड ! जहाँ पिताजी का नाम और अपनी जन्म तिथि भी सही सही लिखने के २००-३०० पन्नों का फ्लो चार्ट होता था, उसी से तो प्रेरित होकर एयरक्राफ्ट उड़ाने का मैनुएल बना बाद में. और तिस पर कल्याण सिंह की सरकार.
लोग कहते हैं, प्रेम करने की 'कोई; उम्र नहीं होती. ना ना ग़लत ! प्रेम करने की 'कोई भी' उम्र नहीं होती साली !! तीनों उम्रों में प्रेम की कोई उम्र नहीं. चारों आश्रमों में प्रेम का कोई आश्रय नहीं. पाँचों सब्जेक्ट में प्रेम का कोई सब्जेक्ट नहीं.
जब प्रेम हो तो युगल को २-३ साल का ब्रेक मिलना ही चाहिए मेरा ये मानना है. कम से कम जो लेना चाहें उनके लिए तो. मन लगाकर पढ़ाई, मन लगाकर नौकरी और मन लगाकर जीने के बीच में मन लगाकर प्रेम करने के लिए एक ब्रेक तो बनता ही है.

यकीनन प्रेम एक कला है. प्रेम करना और प्रेम होना भी. सिंस इट कम्स विदइन एंड इट हैपन्स बाई दी ग्रेस ऑव गॉड रिस्पेकटिवली. तो इसलिए साइंस के रसायनों से उसर हुई ज़मीन में भी प्रेम प्रस्फुटित हुआ ! इस तरह की 'शून्य की महिमा' गणित की बजाय 'फिजिक्स' बखान करती थी मेरी मार्क शीट (या आई नो माई मार्क-शीट वज अ पेपर ऑव शिट.)
अरे हाँ बतान भूल गया, ये वो उम्र भी थी जब एक तीसरी ही परेशानी से दो चार हो रहा था. कासे कहूँ? बताने में भी शर्म आती है. पर जैसा की बड़े बड़े हकीम कह गए है और आज भी गाहे बगाहे कहते रहते हैं कि 'उन' गलतियों के लिए शर्मिंदा ना हों...
...पर यकीन करो 'उन' दिनों में भी प्रीटी जिंटाओं, एश्वर्याओं और तुम्हारी सहेलियों के सहारे सोच में भी तुम्हारा कौमार्य बचा लिया था मैंने. बट यू नो इट वज़ वैरी नेरो इस्केप ! तो अब भी तुम्हें जब भी सोचता हूँ वर्जिन ही.
हाँ तो, बेशक धन (पिताजी का ) पढ़ाई में खर्च हो रहा था, तन प्रीटी जिंटाओं में पर मन सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा था. (फ़िल्मी !वैरी फ़िल्मी )
...आई विश ऊधो 'मन' ना भये दस बीस !



हुआ दरअसल यूँ था की हमार प्रेम कोई बहुत बड़ी तोप चीज़ नहीं था. किसी का भी नहीं होता वैसे. पर हम यही मानते भी थे. इसलिए जब हम साथ साथ थे उन दिनों भी धीमी आंच में पकता रहा कुछ हमारे बीच . कोई पेशन नहीं था. पर प्रेम था...












...और इस प्रेम का पता भी जाने कब लगा ? या पता ही नहीं लगा शायद. उबलते पानी में सीधे डाल दिए गए और धीरे धीरे गर्म होते पानी में पहले से डाले गये दो मेढकों की कहानी सुनी है तुमने? ख़ैर छोड़ो ये सब, तुम ये बताओ कि ये इश्क का दरिया तब कितना गर्म था जब दहाई के अंकों में आने वाले हमारे घर के फ़ोन के बिल में 'देय राशि' वाले क्षेत्र में इतनी ढेर सारी संख्याएं देख कर मेरे पिताजी उसे भी किसी फ़ोन नम्बर से मिसइंटरप्रेट कर गए. "उजा ! किसका नम्बर है रे ये दर्शन? उसीका होगा." तुमको पता है पापा ने किपेड लॉक कर दिया था, एक छोटे से ताले से. पर प्रेम ! उसे तो बड़ी बड़ी बेड़ियाँ भी नहीं बाँध पायी फ़िर ये छोटा सा ताला क्या चीज़ है....
...ये जुनून-ए-इश्क के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या?
पर साला वो चाइनीज़ ताला ! मम्मी के का हेयर-पिन से भी नहीं खुला. पर प्रेम था, सच्चा ही रहा होगा, तभी तो जाने कैसे मैंने डिस्कनेक्ट के बटन को बार बार दबाकर नम्बर डायल करना सीखा. मेरे रकीब थे तुम्हारे फ़ोन नम्बर के वो दो ज़ीरो, वो जिनकी वजह से दस बार तेज़ी से डिस्कनेक्ट का बटन दबाना पड़ता था, दो बार !
यकीनन प्रैक्टिस मेक्स मैन परफेक्ट. बट इट इन्क्रिज़ेज़ यॉर फ़ोन बिल टू फोल्ड.



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हमारा घर संस्कारिक रूप से बड़ा कन्फ्यूज्ड था. यही संस्कारों का कन्फ्यूजन मुझे भी विरासत में मिला. एक ऐसे घर में जन्म हुआ जहाँ मेरा किसी मुस्लिम या दलित मित्र को लाना कभी मना नहीं था. अपितु, था तो ये कि जूता खोल के बैड में घुस जाने वाले मित्रों में इनकी ही संख्या सबसे ज़्यादा थी. और उन्हें भी आस पड़ोस कि आंटियों में मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा पसंद थी. सारे अंकलों में मेरे पिताजी.
हो भी क्यूँ ना ? जहाँ सारे दोस्तों के घर में ताश खेलने की मनाही थी वहीँ मेरे घर में विशेष आयोजन होते थे. दिवाली ,होली,सन्डे विशेषांक अलग. जब बाज़ी १ रूपया राउंड वोट से बढ़ा कर ५ रूपया फुल वोट कर दी जाती. ऐसे ही कितने और घरों के टैबू काम मेरे घर में ऑव्यस थे. जिनमें अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बात करना नयी रिलीज़ हुई मूवी (और उसकी हिरोइन की समीक्षा भी) शामिल थे. पर 'उन' दोस्तों के घर से बाहर निकलने के बाद पूरे घर में 'अपवित्रो - पवित्राम' का उच्चारण करते हुए गंगाजल का छिडकाव भी उसी घर के रयूटलस का अभिन्न हिस्सा थी. पहले पहल तो मेरी आमा (दादी) के ऐसा करने पर मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा हँसी उड़ाती थी,"देख लो हो दर्शन के बोज्यू ! फ़िर शुरू हो गयी तुम्हारी खानदान की नौटंकी. एक होता, दो होता, किसी के ख्वार(सर/ खोपड़ी) में मारी ही जाती यहाँ तो पूरी पोटली ही खोटी है. किसके ख्वार जो मारो फ़िर? " और इस तरह मेरी माँ जब मुझे सबसे उपयुक्त लगी अपने प्रेम को रिश्तेदारी में बदलने के मसले पर बात करने के लिए ...
...किसी एक दिन हरेला बोने की तरह, क्न्क्वारी पूजने की तरह 'अपवित्रो - पवित्राम' वाला 'कार्यक्रम' भी माँ ने संस्कारी (कन्फ्यूज्ड-संस्कारी) विरासत की तरह आमा से ले लिया.
..सच! मैं अभी तक ये नहीं जान पाया कि मेरा घर और मेरे घर वाले रुढ़िवादी हैं या तरक्की पसंद? तुम ही बताओ, तुम्हें तो पता ही है वो मेरा तुम्हारे साथ कहीं जाना या तुम्हारा घर आना कभी नापसंद नहीं करते थे. पर क्या तुम ये जानती हो कि तुम्हारे ना होने पर वो ये कहना भी नापसंद नहीं करते थे, तुम्हारे ताने देकर ,"ठीक है भई !अपने मन के बच्चे ठहरे तुम. हम कौन होते हैं. पर उससे शादी करनी ही है तो पहले हमारा क्रिया-कर्म कर देना.हमें गंगा में बहा देना फ़िर निगरगंड होकर जो चाहे करना." और अनूप जलोटा के शब्दों में कहूँ "दुनिया का कोई बेटा अपने माँ की ये बात नहीं सुन सकता, फ़िर मैं तो इकलौता ठहरा! मैं कैसे ? तो मैंने ही कह दिया बापू मोरे, मैया मोरी, तू चिंता मर कर मैं सोज्युओं की लड़की से ही शादी करूंगा."
ये अलग बात थी कि एक-एक करके मोहल्ले भर की, शहर भर की और कुमाऊं भर में सोज्युओं कि लडकियाँ ही सबसे ज़्यादा घर से भागने लगी. एक दौर तो वो भी आया (जो अब तक जारी है) कि सोज्युओं के घरों में लड़कों की बाढ़ और लड़कियों का अकाल भारत के ही दो राज्यों यू. पी. और बिहार की एक ही समय में उत्पन्न हुई दो विपरीत नेचुरल-डिजाज़स्टरज़ की तरह आया.



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अच्छा तुम्हें ये पता है कि खुद से किये दो ही वादे निभा पाया हूँ मैं. एक तो अब तक शाकाहारी हूँ. दूसरा अब तक होली नहीं मनाई. लोगों से कहता हूँ कि रंगों से एलर्जी है. पर झूठ कहाँ कहता हूँ, लोग ही रंगों का अर्थ अबीर-गुलाल से लगाते हैं.
वो कहते हैं ना कि हर एक को खुशियाँ, आंसू, सासें और सपने भी इश्वर गिन के देता है.
रंग भी गिनकर ही मिलते हैं क्या सबको? और क्या मैंने अपने रंग एक ही होली मैं खर्च डाले थे? नीचे खड़ा था मैं. मुझपे रंग डाले जा रही थी तुम...
और... और...
'बंदी चेला' जो मैं भी हट जाता वहाँ से. डालो डालो. कितना डालोगी. "छि: कहा ! भ्यास जैसे तुम ! सब भाभियाँ कैसे मजाक उड़ा रही थीं मेरा. भांग पी रखी थी क्या तुमने? तुम तो पीने वाले नहीं हुए कहा? उस दिन जो क्या हुआ तुम्हें?"
क़ाश कोई बताने वाला होता तब. मैं खुद वहाँ से हट जाता या आवाज़ देकर तुम्हें रोक लेता "बस भी करो ! इन रंगों को ज़िन्दगी भर चलाना है हमें."
तुम्हें उस दिन नहीं रंग पाया था. पर तुम्हारे गालों को गुलाबी करने का मौका मिल गया था मुझे एक दिन....



...बहरहाल तुम भी तो कुछ बोलो? मैं ही अपने बारे में कहे जाऊँगा? बताओ कि तुम्हें कब लगा तुम मुझसे प्रेम करती हो? लगा भी कि नहीं? तुम्हें कब लगा कि मेरे बिना तुम नहीं जी पाओगी? लगा भी कि नहीं?
सब छोड़ो...
...ये बताओ, तुम्हें कैसे पता लगा कि अब तुम मेरे बिना 'बैटर' जिओगी कम्परेटिवली ?
...ना ना जब अंतिम बार बात हुई थी हमारी तब पूछना भूला नहीं था. बस सामान्य नहीं रह पाया था तब . ऐसी स्थितियों में आदमी सामन्य रह भी कहाँ पाता है? या तो सामान्य से कुछ अधिक हौसला आ जाता है उसमें या कुछ और कायर हो जाता है वो. और कायर हो जाना उन परिस्थितियों में सबसे आसान था मेरे लिए. क्यूंकि मैं इन सब पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहता था जो तुम्हारे 'साथ' के साथ आने ही आने थे.(लव आफ्टर ऑल इज़ अ कम्प्लीट पैकेज एंड यू वर जस्ट अ ल्युकरेटिव पेकेजिंग.)
कायर होने से 'सेल्फ पिटी' (जो अब तक जारी है ) का एडवानटेज भी था. हाँ तुम्हारे और अपने रिश्ते के बारे में भी में सोचता इन सब के बीच अगर...
...अगर तुम्हारे ना होने का एहसास ठीक उस वक्त भी इतना ही होता जितना बाद में कभी बढ़ते बढ़ते हो गया था, अगर तुम्हारी खाली की हुई जगह ठीक उस दिन भी उतनी ही ज़्यादा लगती जितनी बाद में कभी लगी (जब आँखों को अँधेरे में देखने की आदत हुई जा रही थी), और अगर तुम्हारा दूर जाना उस दिन भी 'जन्म भर वाली कुट्टी' सा बच्चों का खेल ही ना लगता...
..अगर !
बता सकती हो इन चार घटनाओं में से वो कौनसी घटना थी जब हम वाकई, वाकई अलग हो गए थे? या अलग होना एक 'प्रोसेस' जिनका ये चार घटनाएं अभिन्न हिस्सा थीं? हम स्टेप बाई स्टेप बिछड़ रहे थे....
घटना १)
मेरे चाचा तुम्हारे पिताजी को फ़ोन करते हैं,उन्हें भला बुरा सुनाते हैं (भला भला मेरे बारे में बुरा बुरा तुम्हारे बारे में ).तुम्हें क्या याद दिलाना तुम तो जानती ही हो अमूमन ऐसी बातें "समझा के रखो" से शुरू होकर "नहीं तो समझ लेना" पे ही खत्म होती हैं. और किसी एक पक्ष की तबियत नासाज हो ही जाती है. इस तरह तुम्हारे पिताजी को दिल का दूसरा दौरा पड़ता है. तुम्हारा भाई जिसने चूड़ियाँ नहीं पहनी होती हैं मेरी कुटाई करने के लिए मेरी खोजबीन करता है. मैं फेल होने का बहाना बनाकर घर से भाग जाता हूँ. १ दिन का 'फुटेज' और 'सेल्फ पिटी' खाकर 'आशाराम जी से मिलने की आशाओं' से मोह भंग करवाकर हरिद्वार छोड़ के अपने नश्वर शरीर को लाकर वापिस अल्मोड़ा प्रस्तुत होता हूँ. तुम्हारे भाई से पिटता हूँ. तुम्हारे ग्रीटिंग कार्ड जो स्टेपल करके दीवार मैं टाँगे थे उन्हें सधन्यवाद तुम्हें वापिस करता हूँ. तुम्हारी सहेली के हाथों (हाँ मग़र इस प्रक्रिया में उसका हाथ नहीं छूता मैं.)
...वैसे तुम्हें तो पता ही होगा कि तुम जैसे लोगों का 'अपवित्रो-पवित्राम' करने के लिए ही धरा में जन्मा था मेरे 'उन्हीं' चाचा ने अपनी लड़की को भी. बेशक इस सामजिक कार्य के लिए उसे घर छोड़ना पड़ा. या साफ़ साफ़ कहूँ तो उसे घर छोड़ के भागना पड़ा. किस भी सामन्य सोजुओं कि चेली की तरह ही. और तिस पर कोई उसे कोई गौतम बुद्ध भी नहीं मानता. 'चालू' बेशक लोग गाहे बगाहे कह देते हैं उसे. ये सुन के खुश तो बहुत हुई होगी ना तुम. नहीं ?
...झूठ क्यूँ बोलूं? मैं तो हुआ था.
बहरहाल....

२)
दो महीने बाद तुम्हारा फ़ोन आता है...
"और जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत हुई तभी तुम भाग गए ठहरे, यहाँ मेरे बोज्यू मरने मरने को हो गए थे, और क्या? कितना बड़ा पाप चढ़ेगा कहा मेरे ऊपर. तुम्हारे चाचा को जो क्या पड़ी होगी मेरे बोज्यू से ये सब कहने की फ़िर? इतना ही लम्बा नाक था तो अपने भतीजे को समझाते. कम हो रा था तो मुझे कह देते सब कुछ. मुझे दिपुली ने बताया तुम भाग गए करके घर से. वहाँ मेरे बोज्यू ऐसे हो गए ठहरे यहाँ मैं तुमसे बात करने को भागी भागी कभी इस बहाने कभी उस बहाने एस टी डी. द कहा ! फ़ोन में तुम्हारे चाचा ने पोहरा दे रक्खा हुआ. मुझसे कहने वाले हुए खबरदार डुमरी जो तुमने फ़ोन किया. डूम कहने वाले हुए मुझसे. डूम. मैंने ऐसा अनम सुना ना जन्म. लेकिन उस दिन, उस दिन सब सुना मैंने. मैंने ये भी सोचा फ़िर तुम्हारी गलती थोड़े ना हुई. और कौनसा जो मैंने तुम्हारे चाचा के साथ रहना है ? पर दो महीने होने को आते हैं. तुमको जो मेरा जरा भी निशाश लगा ठहरा. फ़िर में कैसी हूँ जिन्दा भी हूँ कि नहीं..." और भी पता नही क्या क्या कहती हो तुम. मुझे कुछ याद नहीं. हाँ मुझे पीछे से आती तुम्हारी सहेली ही आवाज़ अब तक याद है, "आंसू देखो ढ्वाला के फ़िर ! रो तो ऐसे रही है जैसे अब जन्म भर बात नहीं करेगी."
बेशक तुमने जो जो कहा वो याद नहीं पर एक बात जो नहीं कही वो ज़रूर याद है. इतने लम्बे कनवरसेशन में तुमने एक बार भी मुझे 'भ्यास' नहीं कहा.
ये होली से ठीक एक दिन पहले की बात थी.


३)
तुम्हारा जन्म दिन २७ अक्तूबर....
वो गणित वाले मा'साब क्या कहते थे, "च्यालों ! कुंजी से देख कर सवाल लगाओगे तो कुछ याद नहीं रहेगा. मेहनत करोगे तो कभी नहीं भूलोगे...."
...मोबाइल के इस दौर में भी तुम्हारा नम्बर बस इसलिए याद था कि कुछ महीने पहले बड़ी मेहनत लगती थी इसे मिलाने में.
"हेलो कौन"
.......
"छिः जाने कौन जो होगा फ़िर. आपने बात नहीं करनी तो फ़ोन जो क्यूँ किया. बिल आ रा होगा आपका."
.......
"धर दे कहा फ़ोन. इस फ़ोन के वजह से कितनी नोटंकी हुई ठहरी और तू अब भी..."
.......
"धर कहा ना मैंने"
"हाँ मैं राकेश."
"अरे राकेश दा. बोल क्यूँ नी रे ठहरे फ़िर? आज जो कैसे फ़ोन कर दिया?"
"तेरा जन्मबार हुआ. बरस दिन का दिन."
"हो गया कहा ! तुम भी ना. तुमको जो कैसे याद रही फ़िर?"
"मैं राकेश नहीं दर्शन...."
"..........."

ना तुमने कहा कि आइन्दा कभी फ़ोन मत करना ना मैंने आज तक किया...
नहीं तो होने को क्या थे छह नम्बर बस 200143. (05962 के बाद.). और अबकी तो किपेड भी लॉक नहीं था.
...यकीन करोगी इतने सालों बाद भी लगता है कि तुमको फ़ोन करूंगा तो बात वहीं से शुरू होगी जहाँ पे खत्म हुई... ..ना ना बात ख़त्म ही कब हुई?


४ )
जब मैं ये सब लिख रहा हूँ. इस रिश्ते के 'डोक्युमेनटेड एडिशन'.अपने आप को भी साथ साथ पूर्ण विश्वाश दिला रहा हूँ कि बस हो गया. बहुत हो गया. एवरीथिंग इस पास्ट नाऊ. एवरीथिंग...

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर! इतनी प्यारी प्रेम कहानी! काश सुखांत होती!!!! अब भी हो सकती है क्या?? or everything is past now?

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  2. बेशक तुमने जो जो कहा वो याद नहीं पर एक बात जो नहीं कही वो ज़रूर याद है!!
    ख़ैर ! हम बच गए.. जुदा होने के लिए...
    पर यकीन करो आत्महत्या करना मुझे 'उतना' अच्छा फ़िर कभी ना लगा..
    मैं राकेश नहीं 'दर्शन' (या दर्पण)
    और अबकी तो किपेड भी लॉक नहीं था!!!

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  3. ...यकीन करोगी इतने सालों बाद भी लगता है कि तुमको फ़ोन करूंगा तो बात वहीं से शुरू होगी जहाँ पे खत्म हुई...!!

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  4. बहुत ही खूबसूरत कहानी, खूबसूरती से शब्दों में पिरोई गयी..!! कहानियां ख़त्म हो जाएँ भले ही लेकिन प्रेम ख़त्म नहीं होता, ये तो बस शुरुवात जानता है., तभी तो १३ साल बाद अचानक उसकी याद चौंका जाती है।
    "...यकीन करोगी इतने सालों बाद भी लगता है कि तुमको फ़ोन करूंगा तो बात वहीं से शुरू होगी जहाँ पे खत्म हुई... ..ना ना बात ख़त्म ही कब हुई?"....... आप आज भी वही हो और शायद वो भी ...???
    अंत सुखांत या दुखांत नहीं होता , अंत होता है बस।

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  5. I know dat reading dis blog will make me nostalgic (or upset) .. bt nw it is kinda addiction.... i just cnt stop myself... i read.. i get upset.. i go n slp... n den i cum again.. to read....

    marvelously written stories... truly marvelous ...

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  6. वो कहते हैं ना कि हर एक को खुशियाँ, आंसू, सासें और सपने भी इश्वर गिन के देता है.
    रंग भी गिनकर ही मिलते हैं क्या सबको? और क्या मैंने अपने रंग एक ही होली मैं खर्च डाले थे? नीचे खड़ा था मैं. मुझपे रंग डाले जा रही थी तुम.............ek anokhi kahani ......adbhut

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  7. लोग कहते हैं, प्रेम करने की 'कोई; उम्र नहीं होती. ना ना ग़लत ! प्रेम करने की 'कोई भी' उम्र नहीं होती साली !! तीनों उम्रों में प्रेम की कोई उम्र नहीं. चारों आश्रमों में प्रेम का कोई आश्रय नहीं. पाँचों सब्जेक्ट में प्रेम का कोई सब्जेक्ट नहीं.
    sach agar aisee umra aisa subject aisaa dhaam ya aasray mil jaaye toh post jaroor kariyega

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  8. बहुत ही अच्छी रचना दर्पण दा, बहुत अच्छा लगा पढ़ कर, बहुत बहुत धन्यवाद।।

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