गुरुवार, 13 मई 2010

शोना

घोड़ा कैसे चलता है? वादा किया था न तुमसे...ऐसे ही शुरुआत होगी मेरी पहली किताब की?

"अच्छा, लिखूंगा क्या उसमें?"
"कुछ भी लिख दो, कौनसा कोई पढने वाला है?"
"और तुम?"
"मैं पढूंगी ना..."
"अच्छा? वाह ! पूरी ?"
"अब इसका वादा मैं नहीं कर सकती."
"....."
"हाँ बाबा पूरी, बार बार."

जब तुम्हारे साथ थक के बिस्तर पर लेटा था, धीरे धीरे थके हुए पंखे को एक टक देखना, वो पंखा ऐसा हुआ चाहता था मानो अभी सब कुछ उसी ने किया था. तुम्हारी संतुष्ट सासें जब मेरे सीने से लगती तो अपने आप ही, एक सतत प्रक्रिया के तहत मेरे हाथ कंघी बन जाते थे. तुम्हारे तो पहले ही थे.

"सनसिल्क ?"
"ऊँ हूँ ! क्लिनिक ऑल क्लेअर"

तुम बोलती तो तुम्हारे होंठ एक अजीब सी हरकत करते थे मेरे सीने में.

"हम्म.."
"तुम तो कहते थे की मैं खुशबू से दुनियाँ को पहचानता हूँ?"
"एकच्युली यू आर आउट ऑव दिस  वर्ल्ड ना. और तुम्हारी खुशबूएं भी "

इस स्थिति में इससे अच्छा जवाब नहीं ढूँढ सकता था मैं.पर तुम सच्चाई जान लेती थी की मैं थका हूँ और मेरा पेट (मन) भरा हुआ है.

"हाँ, दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है."

पलटी, सिगरेट का डिब्बे में से एक सिगरेट निकाल के मेरे होठों में लगा दी और लाइटर जलना तुम्हारा,१०-१२ असफल प्रयास के बाद, मानो कोई बम दे दिया हो हाथ में, गुलज़ार साब से माफ़ी मेरी बीवी वाकई गुस्से में बम बनती है.

"ग़ालिब"
"गालीब"
"ग़"
"ग़"
"ग़ालिब"
"ग़ालिब"
"दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है."
"दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है."
"ख़्याल"
"ओफ्फो क्या मुसीबत है? दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है."
"परफेक्ट"

शायद तुम लड़की की ख़ूबसूरती के साथ उसके दिमाग का समीकरण जानती थी. और उसके साथ साथ तीसरी अचर राशी 'हंसी' . तुमने कभी कहा था की मुझे बीज गणित से डर लगता है. मैं नहीं मानता.

"खाना लगा दूं?"
"क्या बनाया है?"

बड़ी मुश्किल होती थी गर्दन को मोड़कर धुंआ तुमसे दूर छोड़ने में.

"कुछ नहीं." (तीसरी अचर राशी, हंसी ).
"अच्छा बताओ तुम्हारे एहसासों का रंग कैसा है?"
"मम्म लाल? नहीं क्या?"
"ऊँ हूँ ! गुलाबी."
"हाँ वही."
"तुम तो कहती थी की मैं रंगों से दुनियाँ को पहचानती हूँ ? "

सिगरेट में ऐश ज़यादा हो गयी थी तो तुमने मुझमें उलझे बालों को सुलझाते हुए मेरी साइड टेबल में ऐश-ट्रे रख दिया.

"एकच्युली आइ ऍम आउट ऑव दिस  वर्ल्ड ना." (तीसरी अचर राशी).
"और एनी-वे, मैंने ही कहा था न कि में रंग जानती हूँ नाम नहीं, तो तुम्हारा 'गुलाबी' मेरा 'लाल' ही तो है."

बीजगणित के समीकरण अब भी सही थे पर उत्तर वो नहीं थे जो होने थे.

"ओफ्फो इस लाइट को भी इसी वक्त जाना था."

अबकी बार न तुम्हें लाइटर ढूँढने में परेशानी हुई न उसे जलाने में. इसका क्या मतलब? शायद मैं सोचता बहुत हूँ.अब भी मेरे हाथ तुम्हारे बालों में उलझे हुए थे, पर तुम्हारे बाल नहीं.

"जॉब का क्या हुआ?"
"ढूँढ रहा हूँ."
"तुम्हे पता है न.."
"हाँ पता है"
"जितनी मेहनत मुझसे ये सब करने में करते हो अगर उसकी आधी मेहनत भी जॉब ढूँढने में करते तो ये दिन.... खैर छोड़ो."

दृश्य पटल कैसे बदलता है ना, मानो ये कमरा भी कोई रंग मंच हो,पंखा धीरे धीरे बंद होते होते बंद हो चुका था, ग़ुलाम अली की सी. डी. बंद कंप्यूटर दूसरे कमरे से मानो बुझने से पहले कुछ और तेज़ हो गया हो... टूं टूं टूं टूं. रौशनी थोड़ी नीची हो गयी थी.
शायद मंच कि इस सजावट के कारण ही मन किया कि कह दूं...
तुम्हें क्या मतलब.
पर मैं अब भी जल रहा था, शायद अभी इस कैरक्टर को आत्मसात नहीं किया था, अब भी दिमाग तुम्हें छू रहा था,मन पुराने लम्हों में कुंडली मार के बैठा था, जितना तेज़ है ये मन उतना ही धीमा भी, बहुत हल्का है शायद इसलिए.

'अच्छा तुमने तुलसीदास और उसकी पत्नी की कहानी सुनी है? पत्नी का नाम तो मैं भी नहीं जानता, रुको गूगल करने दो.'

सिगरेट को बुझाते हुए उठने कि कोशिश की.

'हाँ ! वो सांप वाली? कंप्यूटर बंद हो गया है.'

सर नहीं हटाया तुमने अपना.तुम्हारा वो सच्चे गुस्से को अपने प्रेम के एहसासों से समतल करना भी अच्छा लगता था.

"सोचो अगर वो तुलसीदास जी से राम का नाम जपने के लिए न कहती तो क्या होता?"
"क्या होता ? रामायण नहीं लिखी जाती और क्या? उईईई बाबा."

तुम्हारे उठने के प्रयास ने तुम्हारे बालों को उलझा दिया था.
मैंने अपने दोनों हाथों की तकिया बनाकर सर के पीछे रख लिया था. तुम अंधरे में भी बड़ी आसानी से किचेन में चली जाती थी. अँधेरे में ऐसा लगता है कि आवाज़ अपने आप अच्छी सुनाई देती है फिर भी मैंने आवाज़ बढ़ा दी थी.

"हाँ फिर?"
"फिर मेरा सर. खाना यहीं खाओगे या..."
"फिर शोना, देवदास, गुनाहों का देवता  या शायद रश्मिरथी टाइम लाइन में थोड़ी पीछे होती. या फिर उससे भी बेहतर कृति. कितने लोग पढ़ते हैं रामायण?"
"हाँ पर पूजते तो हैं, गरम करूँ दाल या ऐसे ही?"
"हाँssss पूजते तो हैं ! यही तो विडम्बना है."

चप्पल अपने पांव से सीधी की और तुम्हारी रोशनी का पीछा करते हुए तुम तक जा पहुंचा. तुम शायद सुबह कि दाल गर्म कर रही थी. और मैं अभी अभी बासी हुई अपनी केफियत. तुम्हें पीछे से पकड़ लिया तुम अचक गयी और फिर कितन तेज़ मारा था तुमने कुहनी से मेरे पेट में बिना पल्टे ही?

"ओ मम्मा"
"क्या हुआ?"

पीछे पलटती न तुम तो शायद चूल्हे में रखी दाल न गिरती.
और हम उसे २ सेकंड तक देखकर एक दूसरे को बाँहों में न भरते.
अभी भी याद नहीं है मुझे हमने उस दिन क्या खाया था? कुछ खाया भी था कि नहीं?


"अच्छा शोना, घोड़ा कैसे चलता है बताओ न?"
"बकवास बंद करो."
"और तुम अपनी आँख."


घोड़ा ऐसे चलता है...
......तगड़ तगड़ तगड़, तेज़ और तेज़.