गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

...यही जुनूँ यही वहशत हो, और तू आए !



कि मैं बहुत ऊँची मंजिल से गिरा हूँ, पर गिरने के रास्ते में कहीं भी 'हार्ट अटैक' नहीं हुआ. क्या कह सकता हूँ, कि मुझे फर्श के साथ संपर्क होने पर होश आया !
डर है कि मैं कितना ही पोजिटिव सोचूं पर नहीं ! ये दूसरी बार मिलना पहली-पहली बार मिलने की तरह कतई नहीं होगा, क्यूंकि मेरे पास तुम्हें प्रेम करने के, तुम्हें साथ जोड़े रखने और शायद वक्त के साथ साथ तुम्हें अपना विश्वास दिला सकने के तो कई मौके, कई कारण होंगे, पर कोई कारण ऐसा नहीं होगा कि तुमको भुलवा सकूँ पुरानी चीज़ें. और इसलिए...
...और इसलिए, तुमको कोशिशें करनी होंगी, मुझे मालूम है, तुमको बहुत कोशिशें करनी होंगी उन सारी चीजों को भुलाने के लिए, उससे भी कहीं कहीं ज़्यादा जितनी की मुझे भुलाने के लिए कर रही थीं तुम कुछ दिनों से.
यकीनन अगर पहली कोशिश सफल हुई तो ये भी होगी. और अगर पहली कोशिश असफल हुई है तो फ़िर क्वाईट ओविय्सली ये कोशिश तो बिना ज़्यादा कोशिश के सफल होगी !
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आँखों में आंसू हैं, जिनका कोई मोल नहीं खुद की आँखों से भी देखूं तो भी.
देखो ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अच्छी हो, कि अगर होती तो मुझे बताती कब तुम्हें मेरी जरूरत है, जैसे तुमने तब बताया था जब मेरे दूर के चाचा को 'शायद' मेरी जरूरत थी. कि तुम्हारे पास कई ऐसे सबूत हैं कि जब भी मैं प्रोवोक हुआ हूँ मेरी परफोर्मेंस बेस्ट रही है, 'युवी' यू सी ! 'राहुल द्रविड़' मैं नहीं हूँ.
पर, फ़िर सोचता हूँ, तुम सही हो कि कोई बताता नहीं कि उसे तुम्हारी जरूरत है...

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कि जब मैं जाना हूँ कि मैं दोषी हूँ ठीक उस वक्त तुम नहीं हो. नहीं ये तो मेरी एक्सक्यूज़ है...
सही बात तो ये है कि तुम नहीं हो इसलिए जान गया हूँ...
....सही बात तो ये है दरअसल !
अकेले होना भी दो तरह का होता है, एक वो जब आपके पास कोई भी नहीं होता, दूसरा जब सब होते हैं (या नहीं भीं हो कोई फर्क नहीं पड़ता, इट्ज़ बैटर इन्फेक्ट ) पर 'वो कोई एक' नहीं होता.
कि जब आप पहले तरीके के अकेले होते है तब कोई भी आकर आपको खुश कर सकता है, पर दूसरी दशा में, नथिंग एल्स विल डू. टू बी मोर स्पेसिफिक, पहली स्थिति में आप बहाने ढूंढते हैं, व्यस्त रहने के, भीड़ में रहने के, टू गेट इनडल्ज़ विद...
...दूसरी में आप बहाने ढूंढते हैं तन्हा रहने के, काम से बच निकलने के और बस अपने को कोसने के, कि या तो 'कुछ भी नहीं' या... या... स्साला...
'कुछ भी नहीं'....

मुझे इसलिए परेशान मत छोड़ो कि तुम भी तो इन चीजों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
पर, फ़िर...
मुझे इसलिए माफ़ मत करो कि तुम इन सब चीज़ों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
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क्या किसी इंसान को केवल इसलिए छोड़ा जा सकता है कि उसने ढेर सारी गल्तियाँ की हैं और उसको कोई और इस तरह प्रेम नहीं कर सकता? फ़िर तो वो इन्सान यकीनन प्रेम किये जाने योग्य है !
...या तुम बस नाराज़ हो ?

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ठीक है मैंने ही एक दिन कहा था "कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहती, नथिंग इज़ फोरेवर, एहसास भी नहीं, और प्रेम भी तो एक एहसास है." और तुमने कहा था कि ऐसा नहीं है, चित्रलेखा लिखने वाला भी कोई भगवान नहीं. मैं भी अब कहता हूँ कि दो इंसानों के ना चाहते हुए कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, दो इंसानों के रहते-रहते कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, उसके बाद भी नहीं. मेरे पास इसका कोई सबूत या इसका कोई लोजिक नहीं है पर तुम्हारी बातों पे अटूट विश्वास है, कि जो कभी तुमने प्रेम में रहते हुए कही थीं. मुझे तुम्हारे प्रेम पे विश्वास है.
(उफ्फ कि, मैं माँ-बेटे या भाई-बहन के प्रेम का सबूत नहीं दे सकता.)

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एक बात जो मैं अपने लिए भी कहना चाहता हूँ, कम से कम एक बात कि मेरी नज़रों में तुम्हारे लिए प्रेम ख़त्म नहीं हुआ कभी, और यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कभी नहीं होगा. कभी नहीं... कभी नहीं...
...तुम्हारी कसम ! (कि मैं अब झूठी कसम नहीं खाता तुम्हारी जो मेरे लिए मजाक थीं पर तुम्हारे लिए इनके मायने थे.)
...तब भी नहीं जब मैं तुमसे नाराज़ था, तब भी नहीं जब मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाया. तब भी नहीं होता, कि अगर जो मैंने किया वो तुम करती.
सबूत: अभी भी नहीं हो रहा देखो !
लेकिन दुःख तो यही है कि तुम कभी नहीं करती वो सब कुछ जो मैंने किया, तुम नहीं कहती वो सब कुछ जो मैंने कहा, तुम करती वो सब कुछ जो मैं नहीं कर पाया, तुम कहती वो सब कुछ जो मैं कभी कभी नहीं कह पाया...

"मैं डरपोक हूँ, मतलबी हूँ, दोगला भी हूँ, उन सब लोगों की तरह हूँ जिनसे कभी तुमने नफ़रत** की थी."
...ये तुमने कभी नहीं कहा ! किसी को भी नहीं कह सकती तुम ऐसी बातें दरअसल. **और किसी से नफ़रत कर भी नहीं सकती.
पर क़ाश कहती !! पर क़ाश करती !!

"मैं बहुत अच्छा हूँ, कि मैं सपना हूँ या सच, कि जैसे तुमने मुझे प्यार किया है वैसे अब तुम किसी को नहीं करोगी."
क़ाश ना कहती !! क़ाश ना करती !!

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बुरा था कि तुम रोती थी, बुरा है कि तुम रोती नहीं !
बुरा ये है कि, तुम अच्छी हो. बुरा ये है कि मैंने बहुत बहुत सारी गल्तियाँ करी ! अच्छा ये है कि तुम अब भी अच्छी हो, अच्छा ये है कि मैं जानता हूँ कि मैंने बहुत सारी गल्तियाँ करी ! सबसे अच्छा ये है कि तुम अब भी दूर नहीं हो, चाहे इससे पास आने की संभावना कम है.

तुमने कहा था कि जब मैं तुमसे जुदा हो जाऊँगा तब मैं शायद एक अच्छा राइटर हो जाऊँगा.
तुमने कहा था कि अच्छा लिखने से ज़्यादा अच्छा है खुश रहना.

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तुम हमेशा-हमेशा खुश रहो ये मेरी दूसरी - प्राथमिकता है और हमेशा रहेगी, मेरे साथ खुश रहो ये मेरी प्रथम प्राथमिकता है,
कि मेरी सेल्फ रिस्पेक्ट तुम हो तुम.

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पर फ़िर भी जानती हो मुझे अपना लिखा सब कुछ जाया क्यूँ लग रहा है,
क्यूंकि, जब बहुत कुछ करने की बारी आई थी तो ज़्यादा कुछ किया भी तो नहीं ! कारण कुछ भी रहे हों,
क्यूंकि इन सब शब्दों में वो आ ही नहीं पा रहा, इन सब बातों में...
आखिर एक बात, ज़्यादा से ज़्यादा कितना प्रेम, कितना अवसाद, कितनी शिद्दत, कितनी याचना अपने अन्दर ले सकती है, कोई एक बात जो कह दूं तुम्हें तो रो ही पड़ें दोनों फूट फूट कर. कोई एक बात जिससे सब बातें भुलाई जा सकें ? कोई एक बात जो बन जाए, इश्वर करे कहते कहते ही...
...वो बात जिसमें 'मौन रहने' से भी ज़्यादा अभिव्यक्ति हो ?

गेट कन्फ्यूज्ड टू गेट रिड ऑफ़ इट.




Confused Man By :Arianne Lequay


हर एहसास, हर सोच, इतनी तात्कालिक/क्षणिक हैं कि उनके आगे (पीछे और उनसे अलग) हो जाना निश्चित ही नहीं तीव्र भी है.
...खुद इन एहसासों से भी.
किन्तु इस तात्कालिकता में 'अनिश्चितता' अथवा 'शंका' कहीं नहीं है.
ये अच्छा है या बुरा इसका विश्लेषण नहीं करना  चाहता, लेकिन परस्पर विरोधी एहसास, सोच, विचार भी अपने-अपने सोचे जाने के समय में अपने प्योरेस्ट फॉर्म में होते हैं.
यानी जब कोई विचार होते/आते हैं तो उनके विषय में 'अंतरद्वन्द' नहीं होता, और यदि किंचित भी हुआ तो एहसास परिवर्तित हो जाते हैं और अपने नए रूप में भी शुद्ध रहते हैं.
इस तरह से सोचने पर प्रत्येक 'नहीं' प्रत्येक 'शायद' एक नए विचार नई सोच को जन्म देता है. और किसी भी विचार को लेकर 'नहीं' रह ही नहीं जाता.
मन कहाँ होता है नहीं जानता पर शायद इसको ही मन से सोचना कहते हैं. मन से सोचने की स्थिति मुझे 'नैसर्गिक' स्थिति लगती है, समर्पण की, हर उस विचार को उसकी तीव्रता के समय में 'एज़-इट-इज़' स्वीकार कर लेने की स्थिति.
विरोध नहीं करते आप ! बहाव में रहते हो ! बाँध नहीं बनाते !
ये दरअसल उसी तरह है जैसे पहला आस्तिक इश्वर के विषय में बुरे/अन्यथा विचारों को अपने दिमाग/मन में आने ही नहीं देगा. ये 'नहीं आने देना' दरअसल नए विचारों की 'भ्रूण-हत्या' है, तालाब है पुराने विचारों का, कितना ही डिवाइन हो पर दुर्गन्ध युक्त.
...ये शंका है अपने विचारों के प्रति और कौनसीक्वेंटली इश्वर के प्रति.
वहीँ एक दूसरा आस्तिक, हो सकता है किसी एक क्षण में इश्वर की सत्ता को नकार ही दे, पर ये नकार देना वापसी का माध्यम होगा. उसे सदैव ज्ञात रहेगा की यदि वो विचार अस्थाई थे, तो ये भी अस्थाई होंगे.
पहली तरह से सोचने पर एक ही समय में दो विचार द्वन्द करते हैं. एक वो मेक्रो विचार जिसपर हमारी 'आस्था' है (मैं इसे इम्पोज्ड आस्था कहूँगा, वो सेल्फ इम्पोज्ड भी हो सकती है.) और दूसरा वो माइक्रो विचार जो उसका विरोध कर रही है. पर दूसरी तरह से सोचने पर दो विचार आ ही नहीं सकते. और किसी निश्चित समय में, या एक निश्चित समय-अंतराल में एक और केवल एक विचार पर अटूट आस्था होती है.
विचार ख़त्म, आस्था ख़त्म...
या
...आस्था ख़त्म विचार ख़त्म.
गिव मी सेकंड थॉट नाऊ !
मेरे अनुसार विचारों में स्थायित्व ना होना पूर्ण स्थायित्व का ही प्रथम सोपान है. जिस चीज़ और जिस विचार को आप पूर्व में सोच के नकार चुके हो उसके पुनः आने का कोई प्रश्न ही नहीं, आप उससे आगे बढ़ चुके हो दरअसल या उससे अलग हो चुके हो कम से कम. और यदि वो बिसरा विचार पुनः आता है भी तो या तो वो आता है उसपे हंस सकने के लिए या वो आता है अपने नए आयामों नए प्रश्नों के साथ.
जैसे आप वैकल्पिक प्रश्न में निश्चित हैं कि बाकी के ३ उत्तर तो ग़लत ही हैं, आपको सही उत्तर नहीं पता होने के बावजूद आपने उसका पता लगा लिया ग़लत उत्तरों का विश्लेषण करके.
टू डिनाई समथिंग रोंग, यू नीड टू अंडरस्टैंड दी रोंगनैस इनसाइड आउट.
केवल प्रेमिका के विषय में ही नहीं विचारों के विषय में भी यही सत्य है, 'लेट हर फ्री, इफ शी इज़ यौर्ज़ (शी) विल कम बैक."
दरअसल मन में प्रश्न आना एक ऑविय्स प्रोसेस है, और उनके उत्तर ढूंढना एक 'आवश्यक प्रोसेस'.

किसी व्यक्ति, संस्था, विचार अथवा कॉन्सेप्ट को लेकर मेरे विरोध सदैव ही समर्थन के हेतु रहे हैं. या तो मैं नए/आपके विचारों से सहमत हो जाऊँगा, या फ़िर मेरे खुद के विचार और पुष्ट होंगे. (वैसे 'पुष्ट' होना भी एक ग़लत शब्द है, 'अगले विरोध तक पुष्ट होंगे' टू बी मोर स्पेसिफिक. )
यही एप्रोच मेरी अंतर्द्वंद को लेकर, अपने विचारों को लेकर भी रही है. इट'ज़ नॉट पोसिबल वाली नहीं लेट'स सी व्हट कम नेक्स्ट वाली. तो यदि दो अलग समय में दो अलग/परस्पर विरोधी विचारों का समर्थन करता पाऊं अपने आप को तो इसे पुराने विचारों के साथ 'बेवफाई' नहीं नए विचारों के साथ 'टूटकर प्रेम किया जाना' कहूँगा.

पुनःश्च : जो कुछ भी मैं लिख गया कल उसको पढ़ते हुए मैं मुस्कुरा सकता हूँ, पर अफ़सोस नहीं करूँगा कि मैंने ये लिखा. क्यूंकि इसे लिखे का एक्सक्यूज़ भी इसी में है.

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन...

कई तो ऐसे ही चले गए थे, बिना इस दिन का इंतज़ार किये. वो भाग्यशाली रहे थे कि उनको अपमान के ये कड़वे घूंट जो नहीं पीने पड़े. वे जो अब तक जा चुके थे, वे सब, एक एक कर कभी, या कभी दो-तीन के झुण्ड में रुख्सत हुए. शायद उन्हें अंदेशा था कि एक ऐसी रात आएगी ही.

सब यहाँ मजबूरी के मारे ही तो आये थे, कुछ तो ऐसे थे जो खुद नहीं आ सकते थे यहाँ, इसलिए लाये गए थे या पहुंचा दिए गए थे. हममें से कुछ मेरे जैसे भी थे, जो यहाँ किसी को पहुँचाने आये थे और फिर खुद भी यहीं रह गए थे.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे. ऐसा नहीं था कि उन जाने वालों के पास बहुत से विकल्प हों. पर शायद, जैसा कि आप जानते हैं, उनको ‘ऐसा कुछ होने वाला है यहाँ’ इसका अंदेशा हो गया था.
और उन्होंने यही सोचा कि बाहर निकल कर कोई न कोई सहारा तो मिल ही जाएगा.

बूढ़े के व्यवहार में परिवर्तन तो अचनाक ही आया, बस हुआ ये कि  उसकी तासीर धीरे धीरे ही शबाब चढ़ी. नहीं तो आज से कुछ रोज पहले कोई बाहर का उसके बारे में हममें से किसी से पूछता, तो बताने वाला चाहे कितना ही धूर्त, एहसान-फरामोश या जालिम क्यूँ न होता वो इस बूढ़े के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द कभी न निकालता...
...’माननीय’ या ‘श्री’ के बिना तो उस बूढ़े का नाम हम उसकी अनुपस्थिति में भी नहीं लेते थे कल तक. किन्तु परिस्थितयां...


आज जब वो धक्के मार कर हम बचे हुए लोगों को बाहर निकाल रहा था, जब लगभग सभी लोग उसे भद्दी भद्दी गालियाँ और उलहाने देने में लगे हुए थे चिल्ला चिल्ला कर...

...और जब हमारा, हम कुछ बच गए लोगों का, समूह इस बूढ़े से अपमानित हो रहा था, तभी किसी धूर्त बुद्धिजीवी ने अपना चमकता हुआ चाकू दिखाते हुए राय दी,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
कोई दूसरी डरपोक स्त्री कहती, “मरने दो बूढ़े को अपने आप. कोई नहीं पूछने आएगा अब इसे. कीड़े पडेंगे इसे, कीड़े.” और जब वो ये सब कह रही थी तब भी उसके मन में आशा थी कि ये बूढ़ा जब पागलपन के इस दौर से गुजर चुका होगा फिर हमें वापिस बुला लेगा, और तब हम उसे क्षमा कर देंगे.
कुछ लोग जो थोड़ी सदाचारी थे, या बूढ़े के पिछले परोपकारों के कारण सदाचारी हो गए थे, उन्होंने मेरी तरह इस अपमान को मौन रहकर स्वीकार किया.
“कुछ ही रोज में अपना सारा पुण्य मटियामेट कर दिया इसने.” उन सदाचारियों में से किसी को ये फुसफुसाते सुना था मैंने. (सदचारी चिल्लाते नहीं, या जो चिल्लाते या गरियाते नहीं वही सदाचारी कहलाते हैं ऐसा मुझे आज पता लगा था.)
कोई मुश्किल नहीं था, उस बूढ़े का आज हममें से कोई भी क़त्ल कर सकता था, बस थोड़ी सी उस बूढ़े के लिए घृणा के भाव का संचार होना शेष था. पर पता नहीं क्यूँ उसके इस कृत्य से हममें उस बूढ़े के लिए घृणा नहीं दया का भाव उत्पन्न हो रहा था.
उसके हमारे पीछे-पीछे चलते हडबडाते कांपते पैर, उसका हमें धक्का देते वक्त देर तक हमारे कन्धों से हाथ न हटाना, और चिल्लाते वक्त उसके थूक में सने हुए अनर्थक शब्द समूह....

कक्क... दद्द... घघ्घ....

....ये सभी कुछ स्थिति भयावह नहीं दयनीय बना रहे थे. नहीं तो आप तो जानते ही हैं खून करना इतना मुश्किल भी नहीं है.
...ठीक उस वक्त मैंने मन ही मन कामना की कि उस बूढ़े कि आँखों में एक बूँद आंसू देख सकूँ, जिससे कि मेरे मन में बाद में भी उसके लिए थोड़ी बहुत श्रद्धा रहे, और जिससे कि कभी अपने को समझा सकूँ “वो ऐसा नहीं था, कोई मज़बूरी रही होगी उसकी.”
और तब मैंने उससे आँखों आँखों में पूछ लिया कि वो ऐसा क्यूँ कर रहा है ? नहीं उसपे अब इतना हक था हमारा (ऐसा हमें तो लगता ही था कम से कम) कि मेरी आँखों ने, जो अब तक इतने सारे अपमान को सहने के कारण बाकियों की तरह ही नम हो चुकी थीं, उससे एक दूसरा ही सवाल पूछा,
“वो ऐसा कैसे कर सकता है?”
इस सवाल का ज़वाब उसकी पथराई आँखों ने बड़ी निष्ठुरता से दिया, “मेरी मर्ज़ी ! आखिर ये घर मेरा है, तुम्हें रख सकता हूँ अगर तो तुम्हें निकाल भी सकता हूँ. खुद से नहीं निकलोगे तो ऐसे ही निकाले जाओगे, धक्के मार कर.”


और जब हम पूरी तरह से बाहर निकाले जा चुके थे हमने देखा कि पिछले दिनों जो घर से खुद-ब-खुद गए थे, उनमें से कई बाहर बैठ के, सो के या खड़े होकर किसी चीज़ के हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे. आप तो जानते ही हैं मजबूरी का दूसरा नाम आशा होता है.
उन्हें भी हमारी तरह ऐसा भान था कि बेशक वो घर से बाहर गए हैं, पर परिस्थितियां अभी भी घर के अंदर ही हैं.
उन्हें दुःख था हमारे बाहर निकलने का, कि उनकी आशाएं हम कुछ अंदर रह गए लोगों को लेकर ही थी.
उन्हें खुशी भी थी हमारे बाहर निकलने की, क्यूँ ? ये तो आप बताने की आवश्यकता ही नहीं है.

और जब हम सब लोग समूह में बाहर निकल रहे थे हम सब मौन थे, सबके मन में बूढ़े के लिए अलग अलग विचार थे, जो एक दूसरे के विचारों से अलग ही रहे होंगे. ये आप समझ सकते है कि मुझे नहीं पता था बाकी सब बूढ़े के बारे में क्या सोच रहे हैं. पर क्या आप नहीं जानते कि सबके मन में एक ही प्रश्न था बस, कि उसने ऐसा क्यूँ किया आखिर?
हम निरुद्देश्य और बिना किसी मंजिल के हो चले थे और हम कहीं को भी जा सकते थे. और तब हमने पश्चिम की ही ओर चलना तय किया, तय भी क्या किया बस चल पड़े. भीड़ ज्यादा होने के कारण हमारा आत्मविश्वास लौट रहा था. और तब जबकि हम केवल उस बूढ़े के बारे में सोच रहे थे, हम मौसम, व्यापार और लजीज पकवानों के विषय में बात करना शुरू कर चुके थे. अच्छा था कि हम सब उस ‘अपमान’ को भुला देना ‘चाहते’ थे.
तभी कुछ ऐसा घटा कि उस ‘डिवाइन-अपमान’ की याद ताज़ा हो आई हमारे ज़हन में.
दूर से आते हुए उस आदमी को ये कहते हुए सुना हमने कि
“अरे सुनो तुम्हारा वो कथित इश्वर, वो बूढ़ा, सनकी हो चला है सुना?”
वो दरअसल यही पूछने या बताने हमारे पास आया था...
क्या आप जानते हैं तब मैंने क्या किया? वही जो बाकी के सहयात्री करना चाहते थे और निम्न क्रम में...
१) सबसे पहले मैंने बूढ़े द्वारा अपमानित होने को याद किया.
२) फिर अपनी मुट्ठी भींची.
३) फिर उस धूर्त की ये बात याद की कि,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
४) वो खंजर धूर्त से माँगा, आग्रह-पूर्वक, क्यूंकि मैं कोई हड़बड़ी करके इसे जोश में आकार किया हुआ कृत्य नहीं सिद्ध करना चाहता था.
५) और चूंकि में इसे कोल्ड ब्लडेड मर्डर सिद्ध करना चाहता था इसलिए मैंने ‘आव’ और ‘ताव’ दोनों देखा और वो खंजर बहुत धीरे धीरे सवाल पूछने वाले के पेट में चुभा दिया.

इस घटना ने हमें पिछली घटना भुलाने में बड़ा योगदान दिया. और हम खुशी के मारे नाचने गाने लगे. हमको खुश होने के, बल्कि यूँ कहिये उन्माद में रहने के कई कारण अब मिल गए थे. हमें पता था कि इस सवाल पूछने वाले का घर आस पास ही कहीं है, और वहाँ भी हमारी तरह ही ‘नाउम्मीद’ लोगों का बसेरा है.
तो, जी हाँ आपने सही अनुमान लगाया, अगली अल-सुबह हमने उस घर को भी तोड़ दिया, वो ऐसा ही कोई दिसम्बर का सर्द दिन था.
और उसकी अगली रात शहर भर में दंगे अपने शबाब पर थे, हमारे पास और कोई काम नहीं बचा था और कोई हमें रोक नहीं रहा था. लेकिन हम लोग केवल मारने वाले ही नहीं थे मरने वालों में भी हमारा शुमार था.

और जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ, हमारा बूढ़ा, उसने हमसे मुंह फेर लिया था. नहीं तो क्या था, बिना हिम्मत, बिना ताकत के भी अगर वो बूढ़ा हमें रोक लेता तो क्या हम नहीं रुकते?


...कई साल बीत गए हम अब भी उस बूढ़े के बुलावे का इंतज़ार कर रहे है. आज भी हमारी उस बूढ़े के प्रति वो श्रद्धा रह रह कर हिलोरे मार ही लेती है.