गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

...यही जुनूँ यही वहशत हो, और तू आए !



कि मैं बहुत ऊँची मंजिल से गिरा हूँ, पर गिरने के रास्ते में कहीं भी 'हार्ट अटैक' नहीं हुआ. क्या कह सकता हूँ, कि मुझे फर्श के साथ संपर्क होने पर होश आया !
डर है कि मैं कितना ही पोजिटिव सोचूं पर नहीं ! ये दूसरी बार मिलना पहली-पहली बार मिलने की तरह कतई नहीं होगा, क्यूंकि मेरे पास तुम्हें प्रेम करने के, तुम्हें साथ जोड़े रखने और शायद वक्त के साथ साथ तुम्हें अपना विश्वास दिला सकने के तो कई मौके, कई कारण होंगे, पर कोई कारण ऐसा नहीं होगा कि तुमको भुलवा सकूँ पुरानी चीज़ें. और इसलिए...
...और इसलिए, तुमको कोशिशें करनी होंगी, मुझे मालूम है, तुमको बहुत कोशिशें करनी होंगी उन सारी चीजों को भुलाने के लिए, उससे भी कहीं कहीं ज़्यादा जितनी की मुझे भुलाने के लिए कर रही थीं तुम कुछ दिनों से.
यकीनन अगर पहली कोशिश सफल हुई तो ये भी होगी. और अगर पहली कोशिश असफल हुई है तो फ़िर क्वाईट ओविय्सली ये कोशिश तो बिना ज़्यादा कोशिश के सफल होगी !
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आँखों में आंसू हैं, जिनका कोई मोल नहीं खुद की आँखों से भी देखूं तो भी.
देखो ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अच्छी हो, कि अगर होती तो मुझे बताती कब तुम्हें मेरी जरूरत है, जैसे तुमने तब बताया था जब मेरे दूर के चाचा को 'शायद' मेरी जरूरत थी. कि तुम्हारे पास कई ऐसे सबूत हैं कि जब भी मैं प्रोवोक हुआ हूँ मेरी परफोर्मेंस बेस्ट रही है, 'युवी' यू सी ! 'राहुल द्रविड़' मैं नहीं हूँ.
पर, फ़िर सोचता हूँ, तुम सही हो कि कोई बताता नहीं कि उसे तुम्हारी जरूरत है...

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कि जब मैं जाना हूँ कि मैं दोषी हूँ ठीक उस वक्त तुम नहीं हो. नहीं ये तो मेरी एक्सक्यूज़ है...
सही बात तो ये है कि तुम नहीं हो इसलिए जान गया हूँ...
....सही बात तो ये है दरअसल !
अकेले होना भी दो तरह का होता है, एक वो जब आपके पास कोई भी नहीं होता, दूसरा जब सब होते हैं (या नहीं भीं हो कोई फर्क नहीं पड़ता, इट्ज़ बैटर इन्फेक्ट ) पर 'वो कोई एक' नहीं होता.
कि जब आप पहले तरीके के अकेले होते है तब कोई भी आकर आपको खुश कर सकता है, पर दूसरी दशा में, नथिंग एल्स विल डू. टू बी मोर स्पेसिफिक, पहली स्थिति में आप बहाने ढूंढते हैं, व्यस्त रहने के, भीड़ में रहने के, टू गेट इनडल्ज़ विद...
...दूसरी में आप बहाने ढूंढते हैं तन्हा रहने के, काम से बच निकलने के और बस अपने को कोसने के, कि या तो 'कुछ भी नहीं' या... या... स्साला...
'कुछ भी नहीं'....

मुझे इसलिए परेशान मत छोड़ो कि तुम भी तो इन चीजों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
पर, फ़िर...
मुझे इसलिए माफ़ मत करो कि तुम इन सब चीज़ों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
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क्या किसी इंसान को केवल इसलिए छोड़ा जा सकता है कि उसने ढेर सारी गल्तियाँ की हैं और उसको कोई और इस तरह प्रेम नहीं कर सकता? फ़िर तो वो इन्सान यकीनन प्रेम किये जाने योग्य है !
...या तुम बस नाराज़ हो ?

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ठीक है मैंने ही एक दिन कहा था "कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहती, नथिंग इज़ फोरेवर, एहसास भी नहीं, और प्रेम भी तो एक एहसास है." और तुमने कहा था कि ऐसा नहीं है, चित्रलेखा लिखने वाला भी कोई भगवान नहीं. मैं भी अब कहता हूँ कि दो इंसानों के ना चाहते हुए कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, दो इंसानों के रहते-रहते कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, उसके बाद भी नहीं. मेरे पास इसका कोई सबूत या इसका कोई लोजिक नहीं है पर तुम्हारी बातों पे अटूट विश्वास है, कि जो कभी तुमने प्रेम में रहते हुए कही थीं. मुझे तुम्हारे प्रेम पे विश्वास है.
(उफ्फ कि, मैं माँ-बेटे या भाई-बहन के प्रेम का सबूत नहीं दे सकता.)

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एक बात जो मैं अपने लिए भी कहना चाहता हूँ, कम से कम एक बात कि मेरी नज़रों में तुम्हारे लिए प्रेम ख़त्म नहीं हुआ कभी, और यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कभी नहीं होगा. कभी नहीं... कभी नहीं...
...तुम्हारी कसम ! (कि मैं अब झूठी कसम नहीं खाता तुम्हारी जो मेरे लिए मजाक थीं पर तुम्हारे लिए इनके मायने थे.)
...तब भी नहीं जब मैं तुमसे नाराज़ था, तब भी नहीं जब मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाया. तब भी नहीं होता, कि अगर जो मैंने किया वो तुम करती.
सबूत: अभी भी नहीं हो रहा देखो !
लेकिन दुःख तो यही है कि तुम कभी नहीं करती वो सब कुछ जो मैंने किया, तुम नहीं कहती वो सब कुछ जो मैंने कहा, तुम करती वो सब कुछ जो मैं नहीं कर पाया, तुम कहती वो सब कुछ जो मैं कभी कभी नहीं कह पाया...

"मैं डरपोक हूँ, मतलबी हूँ, दोगला भी हूँ, उन सब लोगों की तरह हूँ जिनसे कभी तुमने नफ़रत** की थी."
...ये तुमने कभी नहीं कहा ! किसी को भी नहीं कह सकती तुम ऐसी बातें दरअसल. **और किसी से नफ़रत कर भी नहीं सकती.
पर क़ाश कहती !! पर क़ाश करती !!

"मैं बहुत अच्छा हूँ, कि मैं सपना हूँ या सच, कि जैसे तुमने मुझे प्यार किया है वैसे अब तुम किसी को नहीं करोगी."
क़ाश ना कहती !! क़ाश ना करती !!

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बुरा था कि तुम रोती थी, बुरा है कि तुम रोती नहीं !
बुरा ये है कि, तुम अच्छी हो. बुरा ये है कि मैंने बहुत बहुत सारी गल्तियाँ करी ! अच्छा ये है कि तुम अब भी अच्छी हो, अच्छा ये है कि मैं जानता हूँ कि मैंने बहुत सारी गल्तियाँ करी ! सबसे अच्छा ये है कि तुम अब भी दूर नहीं हो, चाहे इससे पास आने की संभावना कम है.

तुमने कहा था कि जब मैं तुमसे जुदा हो जाऊँगा तब मैं शायद एक अच्छा राइटर हो जाऊँगा.
तुमने कहा था कि अच्छा लिखने से ज़्यादा अच्छा है खुश रहना.

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तुम हमेशा-हमेशा खुश रहो ये मेरी दूसरी - प्राथमिकता है और हमेशा रहेगी, मेरे साथ खुश रहो ये मेरी प्रथम प्राथमिकता है,
कि मेरी सेल्फ रिस्पेक्ट तुम हो तुम.

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पर फ़िर भी जानती हो मुझे अपना लिखा सब कुछ जाया क्यूँ लग रहा है,
क्यूंकि, जब बहुत कुछ करने की बारी आई थी तो ज़्यादा कुछ किया भी तो नहीं ! कारण कुछ भी रहे हों,
क्यूंकि इन सब शब्दों में वो आ ही नहीं पा रहा, इन सब बातों में...
आखिर एक बात, ज़्यादा से ज़्यादा कितना प्रेम, कितना अवसाद, कितनी शिद्दत, कितनी याचना अपने अन्दर ले सकती है, कोई एक बात जो कह दूं तुम्हें तो रो ही पड़ें दोनों फूट फूट कर. कोई एक बात जिससे सब बातें भुलाई जा सकें ? कोई एक बात जो बन जाए, इश्वर करे कहते कहते ही...
...वो बात जिसमें 'मौन रहने' से भी ज़्यादा अभिव्यक्ति हो ?

गेट कन्फ्यूज्ड टू गेट रिड ऑफ़ इट.




Confused Man By :Arianne Lequay


हर एहसास, हर सोच, इतनी तात्कालिक/क्षणिक हैं कि उनके आगे (पीछे और उनसे अलग) हो जाना निश्चित ही नहीं तीव्र भी है.
...खुद इन एहसासों से भी.
किन्तु इस तात्कालिकता में 'अनिश्चितता' अथवा 'शंका' कहीं नहीं है.
ये अच्छा है या बुरा इसका विश्लेषण नहीं करना  चाहता, लेकिन परस्पर विरोधी एहसास, सोच, विचार भी अपने-अपने सोचे जाने के समय में अपने प्योरेस्ट फॉर्म में होते हैं.
यानी जब कोई विचार होते/आते हैं तो उनके विषय में 'अंतरद्वन्द' नहीं होता, और यदि किंचित भी हुआ तो एहसास परिवर्तित हो जाते हैं और अपने नए रूप में भी शुद्ध रहते हैं.
इस तरह से सोचने पर प्रत्येक 'नहीं' प्रत्येक 'शायद' एक नए विचार नई सोच को जन्म देता है. और किसी भी विचार को लेकर 'नहीं' रह ही नहीं जाता.
मन कहाँ होता है नहीं जानता पर शायद इसको ही मन से सोचना कहते हैं. मन से सोचने की स्थिति मुझे 'नैसर्गिक' स्थिति लगती है, समर्पण की, हर उस विचार को उसकी तीव्रता के समय में 'एज़-इट-इज़' स्वीकार कर लेने की स्थिति.
विरोध नहीं करते आप ! बहाव में रहते हो ! बाँध नहीं बनाते !
ये दरअसल उसी तरह है जैसे पहला आस्तिक इश्वर के विषय में बुरे/अन्यथा विचारों को अपने दिमाग/मन में आने ही नहीं देगा. ये 'नहीं आने देना' दरअसल नए विचारों की 'भ्रूण-हत्या' है, तालाब है पुराने विचारों का, कितना ही डिवाइन हो पर दुर्गन्ध युक्त.
...ये शंका है अपने विचारों के प्रति और कौनसीक्वेंटली इश्वर के प्रति.
वहीँ एक दूसरा आस्तिक, हो सकता है किसी एक क्षण में इश्वर की सत्ता को नकार ही दे, पर ये नकार देना वापसी का माध्यम होगा. उसे सदैव ज्ञात रहेगा की यदि वो विचार अस्थाई थे, तो ये भी अस्थाई होंगे.
पहली तरह से सोचने पर एक ही समय में दो विचार द्वन्द करते हैं. एक वो मेक्रो विचार जिसपर हमारी 'आस्था' है (मैं इसे इम्पोज्ड आस्था कहूँगा, वो सेल्फ इम्पोज्ड भी हो सकती है.) और दूसरा वो माइक्रो विचार जो उसका विरोध कर रही है. पर दूसरी तरह से सोचने पर दो विचार आ ही नहीं सकते. और किसी निश्चित समय में, या एक निश्चित समय-अंतराल में एक और केवल एक विचार पर अटूट आस्था होती है.
विचार ख़त्म, आस्था ख़त्म...
या
...आस्था ख़त्म विचार ख़त्म.
गिव मी सेकंड थॉट नाऊ !
मेरे अनुसार विचारों में स्थायित्व ना होना पूर्ण स्थायित्व का ही प्रथम सोपान है. जिस चीज़ और जिस विचार को आप पूर्व में सोच के नकार चुके हो उसके पुनः आने का कोई प्रश्न ही नहीं, आप उससे आगे बढ़ चुके हो दरअसल या उससे अलग हो चुके हो कम से कम. और यदि वो बिसरा विचार पुनः आता है भी तो या तो वो आता है उसपे हंस सकने के लिए या वो आता है अपने नए आयामों नए प्रश्नों के साथ.
जैसे आप वैकल्पिक प्रश्न में निश्चित हैं कि बाकी के ३ उत्तर तो ग़लत ही हैं, आपको सही उत्तर नहीं पता होने के बावजूद आपने उसका पता लगा लिया ग़लत उत्तरों का विश्लेषण करके.
टू डिनाई समथिंग रोंग, यू नीड टू अंडरस्टैंड दी रोंगनैस इनसाइड आउट.
केवल प्रेमिका के विषय में ही नहीं विचारों के विषय में भी यही सत्य है, 'लेट हर फ्री, इफ शी इज़ यौर्ज़ (शी) विल कम बैक."
दरअसल मन में प्रश्न आना एक ऑविय्स प्रोसेस है, और उनके उत्तर ढूंढना एक 'आवश्यक प्रोसेस'.

किसी व्यक्ति, संस्था, विचार अथवा कॉन्सेप्ट को लेकर मेरे विरोध सदैव ही समर्थन के हेतु रहे हैं. या तो मैं नए/आपके विचारों से सहमत हो जाऊँगा, या फ़िर मेरे खुद के विचार और पुष्ट होंगे. (वैसे 'पुष्ट' होना भी एक ग़लत शब्द है, 'अगले विरोध तक पुष्ट होंगे' टू बी मोर स्पेसिफिक. )
यही एप्रोच मेरी अंतर्द्वंद को लेकर, अपने विचारों को लेकर भी रही है. इट'ज़ नॉट पोसिबल वाली नहीं लेट'स सी व्हट कम नेक्स्ट वाली. तो यदि दो अलग समय में दो अलग/परस्पर विरोधी विचारों का समर्थन करता पाऊं अपने आप को तो इसे पुराने विचारों के साथ 'बेवफाई' नहीं नए विचारों के साथ 'टूटकर प्रेम किया जाना' कहूँगा.

पुनःश्च : जो कुछ भी मैं लिख गया कल उसको पढ़ते हुए मैं मुस्कुरा सकता हूँ, पर अफ़सोस नहीं करूँगा कि मैंने ये लिखा. क्यूंकि इसे लिखे का एक्सक्यूज़ भी इसी में है.

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन...

कई तो ऐसे ही चले गए थे, बिना इस दिन का इंतज़ार किये. वो भाग्यशाली रहे थे कि उनको अपमान के ये कड़वे घूंट जो नहीं पीने पड़े. वे जो अब तक जा चुके थे, वे सब, एक एक कर कभी, या कभी दो-तीन के झुण्ड में रुख्सत हुए. शायद उन्हें अंदेशा था कि एक ऐसी रात आएगी ही.

सब यहाँ मजबूरी के मारे ही तो आये थे, कुछ तो ऐसे थे जो खुद नहीं आ सकते थे यहाँ, इसलिए लाये गए थे या पहुंचा दिए गए थे. हममें से कुछ मेरे जैसे भी थे, जो यहाँ किसी को पहुँचाने आये थे और फिर खुद भी यहीं रह गए थे.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे. ऐसा नहीं था कि उन जाने वालों के पास बहुत से विकल्प हों. पर शायद, जैसा कि आप जानते हैं, उनको ‘ऐसा कुछ होने वाला है यहाँ’ इसका अंदेशा हो गया था.
और उन्होंने यही सोचा कि बाहर निकल कर कोई न कोई सहारा तो मिल ही जाएगा.

बूढ़े के व्यवहार में परिवर्तन तो अचनाक ही आया, बस हुआ ये कि  उसकी तासीर धीरे धीरे ही शबाब चढ़ी. नहीं तो आज से कुछ रोज पहले कोई बाहर का उसके बारे में हममें से किसी से पूछता, तो बताने वाला चाहे कितना ही धूर्त, एहसान-फरामोश या जालिम क्यूँ न होता वो इस बूढ़े के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द कभी न निकालता...
...’माननीय’ या ‘श्री’ के बिना तो उस बूढ़े का नाम हम उसकी अनुपस्थिति में भी नहीं लेते थे कल तक. किन्तु परिस्थितयां...


आज जब वो धक्के मार कर हम बचे हुए लोगों को बाहर निकाल रहा था, जब लगभग सभी लोग उसे भद्दी भद्दी गालियाँ और उलहाने देने में लगे हुए थे चिल्ला चिल्ला कर...

...और जब हमारा, हम कुछ बच गए लोगों का, समूह इस बूढ़े से अपमानित हो रहा था, तभी किसी धूर्त बुद्धिजीवी ने अपना चमकता हुआ चाकू दिखाते हुए राय दी,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
कोई दूसरी डरपोक स्त्री कहती, “मरने दो बूढ़े को अपने आप. कोई नहीं पूछने आएगा अब इसे. कीड़े पडेंगे इसे, कीड़े.” और जब वो ये सब कह रही थी तब भी उसके मन में आशा थी कि ये बूढ़ा जब पागलपन के इस दौर से गुजर चुका होगा फिर हमें वापिस बुला लेगा, और तब हम उसे क्षमा कर देंगे.
कुछ लोग जो थोड़ी सदाचारी थे, या बूढ़े के पिछले परोपकारों के कारण सदाचारी हो गए थे, उन्होंने मेरी तरह इस अपमान को मौन रहकर स्वीकार किया.
“कुछ ही रोज में अपना सारा पुण्य मटियामेट कर दिया इसने.” उन सदाचारियों में से किसी को ये फुसफुसाते सुना था मैंने. (सदचारी चिल्लाते नहीं, या जो चिल्लाते या गरियाते नहीं वही सदाचारी कहलाते हैं ऐसा मुझे आज पता लगा था.)
कोई मुश्किल नहीं था, उस बूढ़े का आज हममें से कोई भी क़त्ल कर सकता था, बस थोड़ी सी उस बूढ़े के लिए घृणा के भाव का संचार होना शेष था. पर पता नहीं क्यूँ उसके इस कृत्य से हममें उस बूढ़े के लिए घृणा नहीं दया का भाव उत्पन्न हो रहा था.
उसके हमारे पीछे-पीछे चलते हडबडाते कांपते पैर, उसका हमें धक्का देते वक्त देर तक हमारे कन्धों से हाथ न हटाना, और चिल्लाते वक्त उसके थूक में सने हुए अनर्थक शब्द समूह....

कक्क... दद्द... घघ्घ....

....ये सभी कुछ स्थिति भयावह नहीं दयनीय बना रहे थे. नहीं तो आप तो जानते ही हैं खून करना इतना मुश्किल भी नहीं है.
...ठीक उस वक्त मैंने मन ही मन कामना की कि उस बूढ़े कि आँखों में एक बूँद आंसू देख सकूँ, जिससे कि मेरे मन में बाद में भी उसके लिए थोड़ी बहुत श्रद्धा रहे, और जिससे कि कभी अपने को समझा सकूँ “वो ऐसा नहीं था, कोई मज़बूरी रही होगी उसकी.”
और तब मैंने उससे आँखों आँखों में पूछ लिया कि वो ऐसा क्यूँ कर रहा है ? नहीं उसपे अब इतना हक था हमारा (ऐसा हमें तो लगता ही था कम से कम) कि मेरी आँखों ने, जो अब तक इतने सारे अपमान को सहने के कारण बाकियों की तरह ही नम हो चुकी थीं, उससे एक दूसरा ही सवाल पूछा,
“वो ऐसा कैसे कर सकता है?”
इस सवाल का ज़वाब उसकी पथराई आँखों ने बड़ी निष्ठुरता से दिया, “मेरी मर्ज़ी ! आखिर ये घर मेरा है, तुम्हें रख सकता हूँ अगर तो तुम्हें निकाल भी सकता हूँ. खुद से नहीं निकलोगे तो ऐसे ही निकाले जाओगे, धक्के मार कर.”


और जब हम पूरी तरह से बाहर निकाले जा चुके थे हमने देखा कि पिछले दिनों जो घर से खुद-ब-खुद गए थे, उनमें से कई बाहर बैठ के, सो के या खड़े होकर किसी चीज़ के हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे. आप तो जानते ही हैं मजबूरी का दूसरा नाम आशा होता है.
उन्हें भी हमारी तरह ऐसा भान था कि बेशक वो घर से बाहर गए हैं, पर परिस्थितियां अभी भी घर के अंदर ही हैं.
उन्हें दुःख था हमारे बाहर निकलने का, कि उनकी आशाएं हम कुछ अंदर रह गए लोगों को लेकर ही थी.
उन्हें खुशी भी थी हमारे बाहर निकलने की, क्यूँ ? ये तो आप बताने की आवश्यकता ही नहीं है.

और जब हम सब लोग समूह में बाहर निकल रहे थे हम सब मौन थे, सबके मन में बूढ़े के लिए अलग अलग विचार थे, जो एक दूसरे के विचारों से अलग ही रहे होंगे. ये आप समझ सकते है कि मुझे नहीं पता था बाकी सब बूढ़े के बारे में क्या सोच रहे हैं. पर क्या आप नहीं जानते कि सबके मन में एक ही प्रश्न था बस, कि उसने ऐसा क्यूँ किया आखिर?
हम निरुद्देश्य और बिना किसी मंजिल के हो चले थे और हम कहीं को भी जा सकते थे. और तब हमने पश्चिम की ही ओर चलना तय किया, तय भी क्या किया बस चल पड़े. भीड़ ज्यादा होने के कारण हमारा आत्मविश्वास लौट रहा था. और तब जबकि हम केवल उस बूढ़े के बारे में सोच रहे थे, हम मौसम, व्यापार और लजीज पकवानों के विषय में बात करना शुरू कर चुके थे. अच्छा था कि हम सब उस ‘अपमान’ को भुला देना ‘चाहते’ थे.
तभी कुछ ऐसा घटा कि उस ‘डिवाइन-अपमान’ की याद ताज़ा हो आई हमारे ज़हन में.
दूर से आते हुए उस आदमी को ये कहते हुए सुना हमने कि
“अरे सुनो तुम्हारा वो कथित इश्वर, वो बूढ़ा, सनकी हो चला है सुना?”
वो दरअसल यही पूछने या बताने हमारे पास आया था...
क्या आप जानते हैं तब मैंने क्या किया? वही जो बाकी के सहयात्री करना चाहते थे और निम्न क्रम में...
१) सबसे पहले मैंने बूढ़े द्वारा अपमानित होने को याद किया.
२) फिर अपनी मुट्ठी भींची.
३) फिर उस धूर्त की ये बात याद की कि,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
४) वो खंजर धूर्त से माँगा, आग्रह-पूर्वक, क्यूंकि मैं कोई हड़बड़ी करके इसे जोश में आकार किया हुआ कृत्य नहीं सिद्ध करना चाहता था.
५) और चूंकि में इसे कोल्ड ब्लडेड मर्डर सिद्ध करना चाहता था इसलिए मैंने ‘आव’ और ‘ताव’ दोनों देखा और वो खंजर बहुत धीरे धीरे सवाल पूछने वाले के पेट में चुभा दिया.

इस घटना ने हमें पिछली घटना भुलाने में बड़ा योगदान दिया. और हम खुशी के मारे नाचने गाने लगे. हमको खुश होने के, बल्कि यूँ कहिये उन्माद में रहने के कई कारण अब मिल गए थे. हमें पता था कि इस सवाल पूछने वाले का घर आस पास ही कहीं है, और वहाँ भी हमारी तरह ही ‘नाउम्मीद’ लोगों का बसेरा है.
तो, जी हाँ आपने सही अनुमान लगाया, अगली अल-सुबह हमने उस घर को भी तोड़ दिया, वो ऐसा ही कोई दिसम्बर का सर्द दिन था.
और उसकी अगली रात शहर भर में दंगे अपने शबाब पर थे, हमारे पास और कोई काम नहीं बचा था और कोई हमें रोक नहीं रहा था. लेकिन हम लोग केवल मारने वाले ही नहीं थे मरने वालों में भी हमारा शुमार था.

और जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ, हमारा बूढ़ा, उसने हमसे मुंह फेर लिया था. नहीं तो क्या था, बिना हिम्मत, बिना ताकत के भी अगर वो बूढ़ा हमें रोक लेता तो क्या हम नहीं रुकते?


...कई साल बीत गए हम अब भी उस बूढ़े के बुलावे का इंतज़ार कर रहे है. आज भी हमारी उस बूढ़े के प्रति वो श्रद्धा रह रह कर हिलोरे मार ही लेती है.

गुरुवार, 23 जून 2011

क़र्ज़ में डूबे लोगों के लिए आत्महत्या एक ऐसा इंश्योरेन्स है जिसका प्रीमियम भरने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती.

हुआ यों होगा कि आपने मार्केट से दो लाख रुपये उठाये होंगे और उसको शराब जुएँ या और अय्याशियों में खर्च दिया होगा. रुपये खर्च करना सांस लेने से भी ज़्यादा आसान बना दिया गया है अब. चुकता करना मौत से भी मुश्किल.
सबूत : आत्महत्या !
तो आपने झूठ ही लिखा होगा कि आपका पैसा मार्केट में डूब गया. भला मार्केट का पैसा मार्केट में डूब सकता है?
-गणितीय आधार पर नहीं. 2-2=0
-अर्थशास्त्र के आधार पर भी नहीं. उसके आधार पर तो पैसा डूबता नहीं घूमता है. जितना घूमता है उतना बढ़ता है.
-दर्शन-शास्त्र  के आधार पर भी नहीं (तुम क्या लेकर आये थे...)
तो फिर आपको झूठ लिखने की ज़रूरत क्या पड़ी? मौत के बाद किस चीज़ का डर? बदनामी का? प्री डेथ स्टेटमेंट (सुसाइड नोट भी) एक अकाट्य साक्ष्य माना जाता रहा है. इसलिए नहीं कि मरने वला आदमी झूठ नहीं बोल सकता. (जो ज़िन्दगी को झूठा साबित कर दे वो क्या कुछ झूठ नहीं कह/कर सकता. और "बदले की भावना से हत्या ही नहीं आत्महत्या भी तो की जा सकती है" ये ?) बल्कि इसलिए कि 'ऐसा भी तो हो सकता है' का पता लगाना मुश्किल है. क्यूंकि आत्महत्या डूबे हुए जहाज में सभी 'जीवित' लोगों के मर जाने सरीखा है. "उसकी मौत के साथ उसके राज़ भी दफन हो गए".

हाँ तो आपने एक 'देशी कट्टा' की नली भेजे में रखी.अपने भेजे में. आँखें बंद की. भींच के. मानो आप शोर 'देखना' न चाहते हों.ट्रिगर में बीच वाली ऊँगली रखी. उस हाथ की जो रॉक-सौलिड हो गया है इस वक्त. ये वही हाथ था न जो तस्करी का कट्टा खरीदते वक्त काँप रहा था. हाथ क्या? तब तो आपका पूरा शरीर ही काँप रहा था.
...जब पहली बार आपने इस भारी सी चीज़ को अपने हाथ में लिया था. गंदे कपड़े से लिपटी हुई, बिना यूजर मैनुअल के.बाहर ही से उसके सारे कोण, सारे आयाम नाप लिए थे अविश्वास के स्पर्श से. "मेरे हाथ में भी कभी ये चीज़ आ सकती थी ?" आपने ना उसके इस्तेमाल का तरीका पूछा ना ये पूछा कि वो भरी हुई है या खाली? "आदमी घड़ा भी खरीदता है तो ठोक बजाकर." और फ़िर ये चीज़? इसे तो आप ज़िन्दगी में पहली बार खरीद रहे थे. और शायद अंतिम बार भी. आप तो शायद कुल जमा किसी भी चीज़ का सौदा अपनी ज़िन्दगी में अंतिम बार कर रहे थे. इससे पहले आपने क्या ख़रीदा आपको याद है?

हाँ ! अपने  बेटे के लिए लिलिपुट से सिक्स पॉकेट जींस (साला इतने से कम में कहाँ मानता है वो?) और अपनी वाईफ के लिए स्टोन वाली पायल (बेचारी वो तो इतने में ही खुश ). बहरहाल फ़िर भी ये घड़ा जैसा कोई सौदा तो था नहीं, जिसको आप ठोक बजाकर, जांच परख कर लें. ये 'चीज़' तो इन्फेक्ट 'आपको' जांच परख रही थी. वेदर यू डिजर्व इट ऑर नॉट !

बाई द वे...
वो हाथ ! जो उसे खरीदते वक्त काँप रहे थे....
...क्यूँ?
कोई देख ना ले? पुलिस? मुखबिर? जान पहचान वाला? "मरना ही है तो साला बदनामी का क्या डर?" नहीं भाई सा'ब ऐसी बात नहीं है अगर आपको बदनामी का डर ना होता तो आप अपने सुसाइड नोट में अपनी अय्याशियों कि बात ना करते ? लेकिन आप तो कहते हैं कि मार्केट में डूब गया आपका पैसा. आपको मौत का डर नहीं रहा बेशक, पर बदनामी का डर नहीं ये मत कहिये. 'आत्महत्या' और बात है 'बदनामी का डर' और.
...हाँ ! ये ! आप तसल्ली से मरना चाहते थे. सुकून की मौत. कम से कम अपने शर्तों पे. आपने ज़िन्दगी जब अपनी शर्तों से गुज़ारी है (तभी तो ये सब हो रहा है आपके साथ. तभी... ) तो मौत भी अपनी शर्तों से ही आनी चाहिए.

हाँ तो वो हाथ...
अभी बिल्कुल नहीं कांपते ! अगर कांपते होते तो आप आत्महत्या थोड़ी ना कर पाते. क़त्ल करना और क़त्ल हो जाना दोनों एक साथ? जिगरा चाहिए भाई सा'अब जिगरा. येएए... बड़ा ! ये सब कुछ और इससे भी कहीं कुछ ज़्यादा तो आप पहले से ही सोच चुके हैं. दो तीन दिन से सोच ही क्या रहे हैं और आप?

बस बहुत हो चुका बहुत टाल चुके, कहीं वॉश रूम की सफाई करते वक्त आपकी वाईफ (आप वाइफ ही कहते हैं उसे. है ना ?) को पता चल गया तो ? वैसे भी घर की सफाई किये हुए कई दिन हो चुके हैं. कर्जे वाले घरों कि सफाई आमतौर पे 'डेली बेसिस' पे होती भी नहीं.

नहीं ! अब और नहीं टाला जा सकता. बेटे को जींस दे दी. और, एक महीने का राशन आ गया है.और, बीवी की नौकरी लग ही गयी, और, उसके लिए स्टोन वाली पायल ले ही दी.और और...
...हाँ !सुसाइड नोट...
नहीं... उसे लिखे की जरूरत कहाँ है? क्यूँ इतना समय ले रहे हैं आप? जितनी देर करेंगे उतना मन कच्चा होगा आपका .साढ़े सात सौ रुपये कम नहीं होते इस... इस... बकवास चीज़ के लिए. जो ज़्यादा दिनों तक घर में रह भी नहीं सकती.

फ़िर भी एक सुसाइड नोट तो जरूरी ही है. जिससे आपके परिवार वालों पर कोई आंच(?) ना आए...
...इट्स अ सिम्पल केस ऑव सुसाइड.

क्या लिखेंगे आप? "मैं अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी कर रहा हूँ?" हद्द है ! 'ख़ुदकुशी' भी भला कोई दूसरों की मर्ज़ी से करता है? आपने ठीक ही किया इस लाइन को काट दिया. मैं तो कहता हूँ कि दूसरा पन्ना ले लीजिये . लोग क्या कहेंगे ? मरते वक्त भी कन्फ्यूज्ड था साला. ना ना 'साला' नहीं कहेंगे. मरने वाले की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं. मरने वाले की ही तो लोग इज्ज़त करते हैं.
हाँ ये ठीक रहेगा...
"मेरी मौत का कोई दोषी नहीं."
कैसे कोई दोषी नहीं?
वो पब का मालिक. वो ऑफिस का बॉस. वो बैंक की कस्टमर केयर अधिकारी (हरामजादी), मकान मालिक, सब्जी वाला, शेयर मार्केट,राजेश, सुरेश, पेप्सी, कोक, ब्लैक बैरी, मेट्रो, ब्लू लाइन, रेड लाईट, ट्रैफिक ज़ाम, ऐश्वर्या, शीला की ज़वानी, भ्रष्टाचार, संसद, इंडिया टी. वी. , गूगल, ट्विटर...
..सब ! इनमें से सब थोड़े थोड़े दोषी हैं. एक भी चीज़ , एक भी चीज़ कम होती इनमें से , हालात ऐसे ना होते आपके !
...ये सुसाइड नोट लिखना तो वरदान ही साबित हुआ आपके लिए (मौत का वरदान. हा !) सब से बदला ले लें. सब से...
सुसाइड नोट के नीचे दस्तखत करना जरूरी है क्या? कर दीजिये . टू बी ऑन अ सेफर साईड.

ये लो अभी तक आपने कपडा भी नहीं हटाया था? साली इसकी जांच भी तो नहीं कर सकते ना आप? क्या कहा था उस दल्ले ने? एक बार 'फाईर' करने के बाद दूसरा 'फाईर' आधे घंटे बाद. क्यूंकि हाथ में फटने कि कोई 'गारमटी' नहीं. लेकिन पहले फाईर की 'फुल्ल गारमटी'.


-XXX-


आप अब भी यकीं नहीं कर पा रहे ना ये सब जो आप करने वाले हैं? अच्छा ही है आपके लिए. सच 'रॉकेट साइंस' सरीखा है और भ्रम के लिए 'रॉकेट' की आपको क्या ज़रूरत. चाहो चाँद में पहुँच जाओ ! मुगलते में ही रहो, मरने के लिए बड़ा काम आता है.
...और क्या नहीं तो इतना आसान होता ट्रिगर दबाना? वो एक पल, वो एक अंतिम पल...
ज़िन्दगी और मौत के 'ठीक' बीच का. जब आपको पता है की ये पल 'अमुक' पल है. इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...
(आपको अपनी बीवी की एक पुरानी बात पे भी हँसी आती है: देख लेना जब में नहीं होउंगी तब मेरी वकत पता चलेगी. जान, वकत तो पता बेशक लगेगी लेकिन तुमको ये बात कैसे पता लगेगी? )

इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...
ये ज़िन्दगी जो आपने जी है... (क्या फर्क पड़ता अगर पैदा होते ही मर जाते. या पैदा ही ना होते? क्यूंकि जो जिया वो तो साला एनीवे बीत चुका. टू फिलोस्फिकल हाँ? हो जाता है आदमी, मरते वक्त फिलोस्फिकल भी हो जाता है. )

ये कपड़े जो आपने पहने हैं...

वो बहसें... राजनीती से लेकर मोबाइल हेडसेट तक. (क्या फर्क पड़ता है 'सिम्बियन' हो या 'एंडरोइड'? नहीं ! फिलोसफी कि बात नहीं. एक दो फीचर ही तो कम ज़्यादा होने थे...)

वो मूवीज़... (आप सुनिश्चित नहीं कर पा रहे कि रिवाल्वर सीने से लगायें या भेजे से ? ज्यादातर मूवीज़ में तो भेजे से ही लगाते हैं... )

वो शहर जो आपने घूमे हैं... (आउट ऑव स्टेशन जाना भी मौत ही है, एक शहर के लिए. आप एक वक्त में दो जगह नहीं हो सकते. और एक वक्त में एक और केवल एक ही जगह कि घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं. अब होगा इतना कि आप किसी भी जगह कि घटनाओं को प्रभावित नहीं कर पाइयेगा. इस घटना को छोड़कर ऑफ़ कोर्स... )

वो मॉल जहाँ से आपने अपने पाँच साल के बेटे और चार साल की वाईफ के लिए शॉपिंग कि है... (साले हैं तो शैतान ही दोनों चाहे कुछ भी कहो... पर पिछले चार पाँच दिनों से दोनों गुमसुम रहते हैं, मार भी तो बहुत खाता है बड़ा वाला आजकल...)

ना ना मत सोचिये बेड़ियाँ है ये सब. माया ! बंधन !! मोह !!! मानव की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं ये...

वो शादी की पहली सालगिरह, वो दो हज़ार सात की दिवाली...
याद भी साली, कितनी ही बुकमार्क करके रख लो, कितना ही उनके ऊपर 'मोस्ट इम्पोर्टेंट' लिख लो आयेंगी बेतरतीब ही, शादी याद नहीं आ रही आपको, पर पहली सालगिरह ज़रूर याद है, और दिवाली भी देखो 'दो हज़ार सात की', ऐसी क्या ख़ास बातें थीं इन दिनों में? यकीनी तौर पर नहीं कह सकते ना आप,

आप महत्वपूर्ण लम्हे रिकॉल करना चाहते हैं, और याद क्या आता है आपको? काम वाली के साथ आपकी बीवी की साधारण सी (बहुत साधारण सी) नोक झोंक, बेटे का बैट हाथ में लेकर किसी शाम अन्दर घुसना, वो अचार के मर्तबान जिनको आपकी वाईफ बार बार ऊपर नीचे करती है. एक धुन सी सवार है उसे भी... पिकलो-मिनिया???

वो 'आलस' के 'जोश' में आकर एक दिन यूँ ही ऑफिस ना जाना...
..और? ...और?
हाँ... अब मिला सिरा... उसके अगले दिन से कभी ऑफिस ना जाना. बिजनेस के लिए रात दिन प्लान आउट करना. अपने बिजनेस के लिए ! वो आत्मविश्वास (आप तो अब भी उसे ओवर कॉन्फिडेंस नहीं मानते ना?), वो शुरुआत की छोटी छोटी असफलताएं, वो बाद की बड़ी बड़ी सफलताएं, वो शुरुआत के छोटे छोटे क़र्ज़, वो बाद के बड़े बड़े (क्वाईट ऑव्यस) क़र्ज़....
....
....
....आप ये क्यूँ भूल गए की एक गोली चलने के बाद दूसरी गोली आधे घंटे बाद ही चलानी थी? वो तो कट्टा ही अच्छा था, हाथ में नहीं फटा आपके.
...बहरहाल कॉग्रेट्स  !


बुधवार, 18 मई 2011

म्माज़ बॉय

लोगों के लाख कहने के बाद भी मैं नहीं मानती कि उस दिन मैं पागल हो गयी थी. क्यूंकि यही लोग साथ साथ इसे मेरा बचपना भी ठहराते हैं. और मैं मानती हूँ कि बचपन में पागल नहीं हुआ जा सकता.
घर से कौन लड़की नहीं भागना चाहती भला? पापा बेशक तुममें (चाहे तुम लाख कहो) इतनी हिम्मत नहीं थी की बचपन में पैदा होते ही मुझे मार सकते पर वो बड़ा हिम्मत वाला निकला और जैसा मैंने सोचा था, उस वक्त अचानक मुझे अपने घर में देखकर भी वो डरा नहीं.
...तब जबकि उसे मुझे लेकर कहीं भाग खड़ा होना चाहिए था.
मुझसे उलट एक बहुत अच्छा इन्सान था वो, अपने माँ बाप का आज्ञाकारी ! ख़ास तौर पर अपनी माँ का...
'म्माज़ बॉय'

पापा तुममें मुझे रोक सकने की ताकत नहीं थी. पर उसमें मुझे खींच के घर तक लाने की ताकत थी. 'सकुशल' .
अगर मेरा रोना चिल्लाना गिड़गिड़ाना मेरे जिन्दा होने का सबूत था तो यक़ीनन 'सकुशल'.
जैसे बिना कुछ बोले अपने घर से चली आई थी वैसे ही चुपचाप उस वक्त मैं उसके घर से चली आई थी उसके साथ...
...बिना विरोध किये.
मुस्कुरा रही थी...
...मन ही मन.
....कितना बड़ा नौटंकी है, अभी देखो बाहर जाकर मुझे गले लगा लेगा. जैसे पहले कभी लगाया था. और किसी रोमांटिक मूवी के अन्त की तरह क्रेडिट्स शुरू होने से पहले, ठीक द बिगनिंग के नीचे अपनी बाइक के पीछे से जस्ट मैरिड का बोर्ड लगाकर किसी अनजान शहर में मुझे पीछे बैठकर घूमेगा. जहाँ मुझे स्कार्फ से मुंह ढकने की जरूरत नहीं होगी.फ़िर मैं सलवार-कमीज़ वालियों की तरह दोनों पांव एक तरफ़ करके बैठा करुँगी. करने दो नाटक अपनी माँ के सामने. ऐसे नाटकों को खूब जानती हूँ मैं उसके. कितनी ही तो लडकियों से करता था वो ऐसे कितने ही तो नाटक...
'प्रैंक्स'.
और हाँ ! मैं ये भी जानती हूँ कि मैं उन कितनी ही में से नहीं थी. मैं 'समवन स्पेशल' थी और सब 'टाईम पास'. मैं 'रेड रोज़' वाला रिश्ता थी. बाकी सब 'यल्लो'.
मैं उसके थप्पड़ों से नहीं रो रही थी न ही अपनी होने वाली सास की जली कटी सुनकर. मैं तो उसके निर्देशित नाटक में एक अदना का रोल प्ले कर रही थी. हाँ पर उसके थप्पड़ों से जो आँसूं ढुलके उससे मेरा अभिनय जीवंत हो उठा था. एंड द बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड गोज़ टू....
...सच का रोना गिड़गिड़ाना तो तब शुरू हुआ जब वही सारे मोड़ फ़िर से घूमे जा रहे थे...
...वो मोड़ जिनको मैं हमेशा के लिए छोड़ आई.
...सच बताऊँ पापा? उस वक्त मुझे तुम लोगों से ज़्यादा अपनी चिंता हो रही थी. बस मैं घर वापिस आना ही नहीं चाहती थी, और उस दिन पता चला कि लडकियाँ इतनी असहाय इसलिए होती हैं क्यूंकि उनके पास विकल्पों की कमी होती है. और मेरा एक विकल्प जो कि मेरा खुद का घर था ख़त्म हो चुका था पर कहाँ पता था कि वही एक विकल्प तो है बस इसके बाद.
जो एक मात्र विकल्प सोचा था वो तो हमेशा के लिए ख़त्म !
और जहाँ जितने कम विकल्प होते हैं उतनी ही उम्मीदें ज़्यादा.
लगता था अब भी 'प्रेंक्स' खेल रहा है. अभी... ठीक अभी... कोई एक अनजाना मोड़ लेगा. और फ़िर... और फ़िर...
...फुर्र्र !
उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए अपने गीले चेहरे को उसकी पीठ में रख लिया था मैंने. उसकी गालियाँ भी बड़ी मीठी लग रही थी मुझे.
जैसे उसके किसी सरप्राइज़ देने से पहले आँख बंद कर लेती थी मैं वैसे ही आँख बंद कर ली थी. मुझे पता था वो मुझे डरा रहा है...
..ठीक ठीक कहाँ और किस मोड़ पर अपने पर दया आई और ज़ोर का रोना ? याद नहीं.
शायद मोड़ यक़लखत आए और रोना आहिस्ता आहिस्ता.
मैं बाइक से कूद जाती पर अभी मैं सलवार कमीज़ वाली लड़कियों की तरह नहीं बैठी थी...
..सच बताऊँ पापा उन  मोड़ों से गुज़रते हुए, तब जबकि मौका भी था और दस्तूर भी , मुझे मोड़-मंजिल-सफर से जुड़ा हुआ कोई फलसफा याद ही नहीं आ रहा था.
मुंझे पता लग चुका था कि अंतिम बार उसके साथ बाइक में बैठ रही थी मैं . और ये पहली बार था जब उसके साथ बाईक मैं बैठने पर डर नहीं लगा. क्यूंकि अबकी बार वो रियर मिरर में मुझे नहीं घूर रहा था. उसका ध्यान ट्रैफिक में और अपने होर्न में था. वो सच में मुझे लेकर बहुत परेशान था.
... अभी आप पूछोगे भी तो याद नहीं कर पाऊं मैं 'तब' क्या कह रही थी पापा ? हाँ ! घुटी घुटी आवाज़ में तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो ये तो पूछा ही था मैंने या शायद यही पूछते पूछते रास्ते भर आई थी वापिस उसके साथ.
ख़ुशी, दुःख डर और अनहोनी में से कौन से आंसू रो रही थी नहीं बता पाउंगी मैं. सच, एक पल में चारो विपरीत चीज़ें सोची जा सकती हैं.

माँ मैंने तुझे नहीं मारा जैसा की पिताजी कहते हैं.मेरे आने से ठीक ५ मिनट पहले तेरा गुज़र जाना बस एक को-इंसिडेंट भी तो हो सकता है. नहीं मम्मा ? और मरता कौन नहीं है? मुझे यहाँ पे देखने से तो तेरा मर जाना ही अच्छा था.
यहाँ इस महिला वार्ड में. जहाँ ना मौका है ना दस्तूर फ़िर भी  सोच रही हूँ...
...नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
हाँ तूने सही ही सोचा माँ ! तब जबकि मुझे इस दुधमुहें के साथ मेटरनिटी वार्ड में होना था मैं तिहाड़ के महिला वार्ड में हूँ.
माँ, मैं न अपने को तेरी मौत का दोषी मानती हूँ न उसकी. एक जिन्दा आदमी सर में दो दो मौत का पाप लेकर नहीं जी सकता. मैं असल में दोषी हूँ उन लड़कियों की जिन्हें मुझसे पहले आसमान नीला और फूल खुशबूदार लगते थे.
क्षमा !

थकेली विदिशा की पिटेली इस्टोरी

विदिशा लड़की थी, विदिशा नदी सी बहती थी. विदिशा के भाई का नाम राजेश था राजेश को पढ़ाने की बड़ी कोशिश हुई. राजेश इंटर तक ही पढ़ पाया. विदिशा को नहीं पढ़ाने की बहुत कोशिश हुई विदिशा इंटर तक ही पढ़ पायी.
विदिशा खूबसूरत थी. विदिशा बहुत खूबसूरत नहीं थी. अपने से खूबसूरत लड़कियों से चिढ़कर और अपने से बदसूरत लडकियों को चिढाने के लिए विदिशा ने ज़ल्दी ज़ल्दी प्रेम किया, ज़ल्दी ज़ल्दी कौमार्य खोया और ज़ल्दी ज़ल्दी बदनाम हुई.
विदिशा की बदनामी उसके घर तक पहुंची.विदिशा का घर से बाहर निकलना बंद कर दिया गया. राजेश खुश हुआ. पर राजेश के खुश होने से भी विदिशा की इज्जत वापिस नहीं आई. विदिशा की शादी काफी छोटी उम्र में काफी बड़े उम्र के आदमी से कर दी गयी. राजेश और खुश हुआ. पर राजेश के और खुश होने से भी विदिशा की शादी धूम धाम से नहीं हुई.
विदिशा का पति शराब पीता था. विदिशा का बाप भी तो शराब पीता था. विदिशा के घर में मर्दों को शराब की आदत थी. विदिशा के घर में औरतों को शराबियों की आदत थी. विदिशा का बाप एक दिन मर गया. दूसरे दिन विदिशा का भाई मर गया और तीसरे दिन उसका पति चल बसा. विदिशा के पति की एक बच्ची थी. और उस बच्ची को पति के मरने के बाद भी विदिशा ने ही पाला.
विदिशा की बदनामी एक दिन मायके से ससुराल आई. इसलिए विदिशा के ससुर के मन में लड्डू फूटे. विदिशा के ससुर ने विदिशा को खरी खोटी सुनाना शुरू किया. इसलिए विदिशा ने अपने ससुर को अपनी इज्जत लूटने से मना नहीं किया और तब ससुर ने भी उसे काम पे जाने से मना करना उचित नहीं समझा .
गलत ! विदिशा काम पे नहीं जाती थी. लोग काम से घर पे आते थे. किसी चौथे दिन विदिशा का ससुर भी चल बसा. अब घर में कोई आदमी नहीं था. इसलिए घर में आदमियों का तांता लगा रहता था. विदिशा के ग्राहकों में उसके पुराने आशिक भी थे. विदिशा के आशिकों में उसके पुराने ग्राहक भी थे.विदिशा अपनी बेटी को बहुत चाहती थी. इसलिए चिमटे और चप्पल से मारती थी.
विदिशा की लड़की पड़ोस की विम्मो की तरह ही बड़ी हो रही थी. विदिशा की लड़की को बड़े होने से पहले ही ताने सुनने की आदत थी. और इसलिए विदिशा के न चाहते हुए भी विदिशा की लड़की खूबसूरत हो गयी थी , विदिशा की लड़की पढने में तेज़ भी थी. इसलिए जब इस बार विदिशा की लड़की के मैथ्स में कम नम्बर आये तो विदिशा को शक हुआ.
विदिशा की लड़की ने उसे बताया की उसका 'वो' ऐसा नहीं है. तब विदिशा ने अपनी लड़की को समझाया कि सब मर्द एक से होते हैं. विदिशा की लड़की ने विदिशा से कहा कि विदिशा एक ही तरह के मर्दों से मिली है. विदिशा ने अपनी लड़की झापड़ मारा और पूछा कि क्या उसकी अपने पिता के बारे में भी यही राय है ? विदिशा ने दादाजी के बारे में राय नहीं पूछी.
विदिशा बस इतना चाहती थी कि उसकी बेटी का भविष्य उसके अपने वर्तमान सा न हो. विदिशा ने पूछा कि उस लडके का नाम क्या है. और ये जानने के बाद कि उसका राम विक्रांत है उसने पूछा कि विक्रांत ने उसके साथ कुछ ऐसा वैसा तो नहीं किया?
उसकी बेटी ने बताया कि दुनियाँ केवल स्त्री पुरुष सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं.
विदिशा ने राय दी कि उसने दुनिया देखी है और औरत के लिए इतनी ही है. या फिर इससे बच के निकलने भर तक की.
बेटी ने कहा कि दुर्योग से विदिशा ने वही दुनियाँ देखी है . जहाँ पर...
विदिशा ने बात बीच में काटकर अपनी बेटी को लड़की होने के लिए कोसा. उसकी बेटी ने बात बीच में काटकर विदिशा को रंडी होने पर.
विदिशा ने पूछा कि क्या विक्रांत को विदिशा के बारे में पता है. विदिशा की लड़की ने विदिशा को फिर याद दिलाया कि विक्रांत वैसा नहीं है.
विदिशा ने चावल में से कंकड़ बीनते हुए कहा कि हो न हो विक्रांत के बाप को विदिशा बारे में ज़रूर पता होगा.
विदिशा की बेटी सवाल हल करते हुए मुस्कराहट न रोक सकी. विदिशा चावल बीनते हुए मुस्कराहट न रोक सकी.
विदिशा की बेटी ने एक दिन अपना कौमार्य खोते खोते विक्रांत को अपनी माँ के बारे सब कुछ बता दिया. विक्रांत ने विदिशा की बेटी से शादी का वादा किया. विदिशा की बेटी खुश हुई और इसलिए फिर से मैथ्स में कम नम्बर लायी. और इसलिए फिर से विदिशा से ताने सुने. विदिशा ने अपनी बेटी से विक्रांत को घर बुलाने को कहा. 
विदिशा ने  विक्रांत के बाप को घर बुलाने को नहीं कहा. लेकिन फिर भी विदिशा की बेटी ने बताया कि विक्रांत का  पिछले २२ सालों से कोई नहीं था. और पिछले दो सालों से भी उसकी 'विदिशा की बेटी' भर है बस.
विदिशा मानती थी कि जैसे प्रगाढ़ प्रेम होने के लिए पहले नफरत होना ज़रूरी है. वैसे ही पूर्ण विश्वास होने से पहले अविश्वास.
इसलिए ढेर सारे अविश्वास के बाद ही विदिशा ने  विक्रांत को भला लड़का मानना शुरू किया. ढेर सारे लड़कों के बाद ही विदिशा ने विक्रांत को अपना दामाद मानना .
विदिशा की लड़की ख़ुशी से फूली नहीं समाती और सोची समझी रणनीति के तहत अपनी पढाई छोड़ देती है. इस तरह विक्रांत की पढाई बिना पैसों की दिक्कत के पूरी हो जाती है. विदिशा काम करना बंद कर देती है क्यूंकि वो मानती है कि क्रिकेट की तरह इस काम में भी पीक में संन्यास लेना शुभ माना जाता है. विदिशा विक्रांत से सीधे पैसे नहीं मांगती पर अबकी बातों से विक्रांत को समझ आता है कि विदिशा के घर में पैसों की कमी है. विक्रांत अगले ही दिन विदिशा के हाथ में पैसे रख देता है. विदिशा खुश होती है और झूठ मूठ कहती है कि वो इसे चुका नहीं पाएगी. विक्रांत कहता है कि ये तो विदिशा के ही पैसे है जो वो विदिशा को लौटा रहा है. विदिशा और खुश होती है. विक्रांत कहता है कि विदिशा के चौबीस हज़ार सात सौ रुपये चुकाने में तो उसे सालों लग जायेंगे. विक्रांत आगे बोलता है कि अगर कभी उसने पैसा चुका भी दिया तो भी विदिशा को चिता करने कि जरूरत नहीं. अब विदिशा अपनी ज़िंदगी में सबसे ज्यादा खुश होती है. वो सोचती है कि खुशियों का मायने हो न हो विक्रांत होता है.विक्रांत अब भी बोलता रहता है, जब विदिशा के रेट पांच सौ हैं तो उसकी बेटी के ज्यादा न सही तीन सौ तो बनते ही हैं. हर बार के. इस तरह विदिशा की ज़िन्दगी आराम से कट जाने के बारे में विक्रांत कई तर्क देता है. पर विदिशा की बेटी की ज़िन्दगी के बारे विक्रांत कोई बात नहीं कर पाता.
विदिशा खुश होती है कि इस वक्त उसकी बेटी कहीं और गयी है. और आज रात जब वो अपने और अपनी बेटी के खाने में कुछ मिलाएगी तो उसे शक नहीं होगा.
विदिशा खुश होती है कि अच्छा हुआ जैसा उसकी बेटी ने कहा था उसने उतनी ही दुनिया देखी. और विदिशा सबसे ज्यादा इस बात से खुश होती है कि उसकी बेटी कोई और दुनिया देखने से पहले ही मर जायेगी.
लेकिन इतनी ख़ुशी होने के बाद भी वो विक्रांत को ख़ुशी ख़ुशी विदा तो करती है पर विक्रांत की उसके साथ भी एक रात सोने कि इच्छा पूरी नहीं करती.



शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

पूर्ण भ्यास

मानने में बेशक ना हो पर कहने में बड़ी द्विविधा है कि इसे लिखते वक्त मैं मनोहर श्याम जोशी जी से इंस्पायर्ड हूँ. कारण, यदि मैं कहता हूँ तो साहित्य की बहती गंगा में  हाथ धोना कहा जाएगा. ना कहता हूँ तो ड्यू क्रेडिट्स ना दिए जाने का दोषी ठहराया जाऊँगा. हाँ पर ये ज़रूर है कि भाषा जोशी जी से पुरानी  और घटनाएं उनसे नयी  होने के बावजूद भी, 'कसप', 'कुरु कुरु स्वाह' और 'क्याप' पढ़े बिना इसको लिखना और इस तरह से लिखना असंभव था. बाकी पाठकों का सोल डिसक्रीशन...



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भ्यास (bhyaas) noun, adjective : Bhyaas is a two syllabic (2-1) word originating from (and residing in as well) kumaon which literally means 'Dumb' . Bhyaas, though, generally is used in negative terms /meaning, however women, girls use this word for expressing love by giving stress to the first syllable (i.e. भ्याआआस).

Verb: भ्यास-योली




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"गोलू द्याप्ता (देवता ) की ही मर्ज़ी ठहरी. आज ही राकेश दा कह रहे थे कि तुझे तेरा वो मिलेगा. उनके अंग भी तो गोलू द्याप्ता आने वाले हुए. छिः मैं तो कहाँ मानने वाली हुई ये सब. पर, फ़िर, हर इन्सान के चौबीस घंटे मैं एक बार तो सरसती आती ही है. मैं जो उनकी बात मजाक में टाल गयी. दौ राज दा ! तुम भी कैसी कैसी बात कर देने वाले हुए कहा. यहाँ नैनीताल में जौन मिल रहा होगा? फ़िर मुझे क्या पता तुम्हें मिलना है मुझसे. जैसे तैसों को में मुंह नहीं लगाने वाली हुई और मिला कौन मुझे तुम जैसा भ्यास !"


किसी भी प्रेम कहानी या किसी भी कहानी कि शुरुआत बड़े सामन्य ढंग से होती है. फ़िर घटनाओं के ताने बाने से होकर, चरम से होकर, अपनी परिणिती तक पहुँचती है. लेकिन उफ्फ ! ये वास्तविकता !! कहानी के रचनाशिल्प के सारे नियमों को बारी बारी से तोड़ते हुए आगे बढती है. इतनी सामन्य सी स्थिति में समाप्त होती है कि यदि उसके बाद कोई चीज़ जोड़ी या घटी जाए तो भी कहानी के कथन में, भाव में कोई अंतर नहीं आना. हाँ लेकिन इसका प्रारब्ध बड़े ही अविस्मरणीय ढंग से हुआ.

मैं कहाँ जानता था कि तुम मेरी बहन सबसे अच्छी सहेली हो ?और जानता भी तो डरपोक भी तो हद दर्जे का था. इतना कि कोई लड़की अगर फ्रेंडशिप का कार्ड दे दे तो तुरंत पढ़े बगैर फाड़ के फैंक दूं. ऐसी जगह जहाँ रवि तो क्या कोई कवि (इन्क्लुडिंग साग़र ) भी ना पहुंच सके. वो तो अपने शहर से इतने दूर नैनीताल आया हुआ था तो थोड़ी डर कम थी. यहाँ हम अल्मोडियों को कौन जानता है. इसलिए उस शादी में बने कुछ दोस्तों के साथ मॉल रोड घूमते घूमते तुम्हें छेड़ दिया था. क्या पता था कि उसी दिन तुम्हारे राज दा ने, जिनके अंग द्याप्ता आते हैं, तुमसे कहा था कि कोई मिलने वाला है तुम्हें. मुझे क्या पता था कि तुम भी मेरी तरह अल्मोडिया हो. मुझे क्या पता था कि १२-१३ साल बाद तुम्हें इस तरह याद करूँगा. मुझे क्या पता था कि प्रेम बस....

...हुआ चाहता है !




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किसी कहानी के लिए बेहतरीन प्लॉट था हमारा तुम्हारा प्रेम. लेकिन किसी प्रेम कहानी के लिए नहीं, किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी कहानी के लिए. जहाँ नायिका 'दलित' है नायक 'सवर्ण' सारे बन्धनों को तोड़कर सारे जहाँ को दुत्कार कर सारे सड़े-गले रिश्तों को धता बतलाकर नायक नायिका को अपनाता है और सारे ज़माने से लड़कर नायिका को जीतता या हारता है...
..अपने दम पे.
...नायिका उसकी एक मात्र संबल और एक मात्र कमजोरी.
और अन्त में...
..दे लिव हेपिली एवर आफ्टर, या दे डाइड हेपिली टू लिव एवर आफ्टर.
मग़र जानती हो? हम मूलतः बड़े डरपोक लोग हैं. जब हमें नायिकाओं को लेकर घर से भागना होता है तो हम अकेले घर से भागते हैं. और जब हमें कभी भी वापिस नहीं आना चाहिए हम अगले दिन ही घर वापिस आ जाते हैं. और फ़िर भागने के प्रयास भी तो आत्महत्या सरीखे होते हैं. एक बार असफल हुए तो दूसरी बार कम ही प्रयास होता है इनका .
वैसे भी मैं बचपन से लकर आज तक अपने को किसी कहानी या मूवी के नायक से कभी रिलेट नहीं कर पाया . हमेशा पीछे नाचने वालों या नायक के दोस्तों मैं ही ढूंढा अपने को जो अधिकतर लूज़र्ज़ ही होते हैं, क्रमशः शाहीद कपूर और करण जौहर को छोड़कर. मग़र दुनिया में नायकों को नायक कहने वालों की भी आवश्यकता होती है. टाईम जैसी विश्व - प्रतिष्ठित पत्रिका भी इस कम्युलेटिव 'यू' को पर्सन ऑव दी एयर बताती है. तो जब मैं तुम्हें अपनाकर इस कहानी को 'सामाजिक सरोकारों की कहानी' बना सकता था, मैं इसे घिसी पिटी प्रेम कहानी बनाने में ही सफल (?) रहा बस. जब मैं एक इंडिविजुएल नायक बन सकता था, मैं कम्युलेटिव 'यू' का एक हिस्सा बन के रह गया बस.
सही तो कहती थी तुम मुझे...
..भ्यास !


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कितना अज़ीब सा प्रेम था ना?
..किस्से कहानियों में पढ़ा गया जैसा. फ़िर भी नया सा. बेवकूफी भरा दरअसल...
भला दो पन्नों के ऊल-ज़लूल ख़त को 'कहो ना... प्यार है' नहीं नहीं 'से ना.. ..लव है' पे समाप्त करना बेवकूफी नहीं तो और क्या है ? और तुम्हारा तीन पन्नों का ज़वाब? 'कहा ना.. ..प्यार है' पे ख़त्म होता ख़त. पर अज़ीब सी बात एक और भी है, क्यूँ याद नहीं मुझे उस ख़त का मज़मून? क्यूँ बस अपनी और तुम्हारी बेवकूफियां ही याद हैं मुझे? हाँ बेवकूफियों भरा ही तो था हमारा प्रेम. तभी एक चुम्बन तक सिमट कर रह गया.
जानती हो उस प्रेम की सबसे बड़ी बेवकूफी क्या थी? तुम कैसे जानोगी? करता तो मैं था...

...जब, तुम कहती थी शायद हम दोनों को अलग हो जाना चाहिए, या क्या हम दोस्त बनकर नहीं रह सकते? या मुझे जाना है... और हर बात पे मेरा हाँ कहना थी सबसे बड़ी बेवकूफी.
अगले ही दिन तुम कहने वाली हुई... ".ऊजा (ओ ईजा ! ओ माँ !) ऐसा भी कहाँ हो सकने वाला हुआ? हम दोनों दोस्त ? मैं भी कितनी वैसी हुई ना? और तुम भी ना मेरी हाँ मैं हाँ जैसे मिला देते होगे? भ्यास जैसे जो होगे तुम कहा."
ठहरा तो मैं भ्यास ही वैसे. उन दिनों में भी जब तुम्हारे लिए नाइंथ क्लास के नए सिलेबस के 'मॉडल पेपर्स' काट के सहेजता था. दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों में से.
गणित और विज्ञान के भी. आर्ट साईड के लिए ! तुमको पता है जान बूझ के किया था मैंने ऐसा. जिससे वो बंडल मोटा हो जाए. (देखा मैं भ्यास नहीं चंट था बहुत.) हद्द है ! मॉडल पेपर की मोटाई से भी कहीं प्यार नापा जाने वाला हुआ भला? अब बताओ जहाँ कहीं भी सोचकर बताओ क्या ये बेवकूफी नहीं?
और वो? कितना फ़िल्मी कितना सुना सुना सा लगता है ना ? बैडमिनटन खेलते वक्त जब सब बच्चे अपनी बारी का इंतज़ार करते थे मैं तुम्हारे साथ अपना खेल जमाता था. सब बच्चों ने चिढना ही था, और ऊपर खड़ी हमारी माओं को श़क होना ही था. "चेली ! बोर्ड के इग्जाम हैं. पढ़ना लिखना सब हराण. खेल में ही लगे रहो तुम लोग दिनमान भर."
कैसे रैकेट पटककर जाती थी तुम बच्चों को घूरकर. "सालों तुम्हारी ही नज़र लगी होगी फ़िर. कितना अच्छा खेल जो जम रहा था हमारा."
कितना अच्छा प्रेम चल रहा था हमारा इसको किसकी नज़र लगी होगी फ़िर?



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जब बेवकूफियों को याद कर रहा हूँ तो वो दिन कैसे भूल सकता हूँ? याद है? जून का महीना था...
...चितई मन्दिर के नीचे बैठे थे हम. तब तुम्हें छूने कि हिम्मत ही कहाँ थी? वैसे ऐसे एहसास भी कहाँ जगे थे तब? लगता था प्रेम के मायने देर तक एक दूसरे के साथ बैठे रहना है बस. और यकीन करो यहाँ देर के मायने केवल 'ज़िन्दगी भर' ही हो सकता है. क्यूंकि उससे कम समय...
...कम, बहुत कम ही लगता हमें. तुम्हीं देख लो ! अगर अब तक भी बैठे रहते हम दोनों साथ साथ और ठीक इस वक्त उठ के जाना होता...
... तेरह साल बाद भी. क्या नहीं लगता बहुत थोड़े समय हम साथ बैठे?

हाँ तो चितई मंदिर...
...कहाँ पता था हमें कि उस 'पुलिस-मिलट्री' या 'जंगल-पुलिस' या जो कोई भी...
...उसके बस का कुछ नहीं. कैसे अलग अलग ले जाकर हमारे बयाने लिए थे हमारे. कहता था कि उसने हमें एक दूसरे को देखते हुए रंगे हाथों देख लिया है. फिल्मों का उन दिनों मुझपे ऐसा असर था कि सोच रहा था हमें ब्लैकमेल करके तुम्हारे साथ कुछ कर ही ना दे वो. हंस रही हो ना तुम? अब तो मैं भी हंस रहा हूँ ख़ैर. क्यूंकि अब मैं होमगार्ड का मतलब जानता हूँ. उस दिन कैसे दहाड़ मार मार के रो रही थी तुम. क्या कहती थी? हाँ... " अब तो हम बदनाम हुए ही समझो. अल्मोड़ा कोई बहुत बड़ा थोड़ी ना हुआ. कल तक औरी-बात हो जानी है पूरे शहर में. चलो इससे बढ़िया आज ही आत्महत्या कर लेते हैं. हमारे मरने के बाद किसको क्या पता?"
शायद पहली बार मैंने तुम्हें भ्यास कहा था "ओ भ्यास ! तब भी सबको पता चल जाएगा."
"पर हमको क्या पता.तो चलो आत्महत्या कर ही लेते हैं."
पर हमारे प्रेम को शायद अमर होना लिखा ही ना था. वहाँ जंगल में आत्महत्या करने का कोई जुगाड़ ही ना हुआ. और हमें अगली सुबह अखबार का इंतज़ार करना ही पड़ा. पिछले २०-२५ दिनों में शायद पहला मौका था जब तुम्हारे लिए मॉडल पेपर्स काटना भूलकर सारी खबरें पढ़ डाली थीं. 'दुःख' से विपरीत 'डर' समय के साथ साथ बढ़ता चला जाता है. तभी तो 'होमगार्डों की भर्ती' वाले विज्ञापन में भी होमगार्ड पढ़ते ही पसीना चूने लगा मुझे. और वो खबर...
...'खाई से कूदकर औरत ने आत्महत्या की.' पूरी पढ़ी थी मैंने. ये भी नहीं ध्यान दिया कि औरत तो तुम इस बात को लिखते वक्त होवोगी ! १३ साल बाद....
..ख़ैर ! हम बच गए. जुदा होने के लिए. तुमने कभी इस बात को बाद में याद करके कहा भी था. "कितना अच्छा जैसा होता ना हम बदनाम ही हो जाते साला. हमारे इजा-बोज्युओं होरों को हमारा ब्याह करना ही पड़ता.कैसे ना कैसे करके. नहीं फ़िर?"
वैसे तो उसके बाद भी आत्महत्या के कितने ही मौके आए, रोज़ ही आते हैं. पर यकीन करो आत्महत्या करना मुझे 'उतना' अच्छा फ़िर कभी ना लगा.



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एक तो जब तुसे प्रेम हुआ था तभी बोर्ड के इग्जाम ! यू. पी. बोर्ड ! जहाँ पिताजी का नाम और अपनी जन्म तिथि भी सही सही लिखने के २००-३०० पन्नों का फ्लो चार्ट होता था, उसी से तो प्रेरित होकर एयरक्राफ्ट उड़ाने का मैनुएल बना बाद में. और तिस पर कल्याण सिंह की सरकार.
लोग कहते हैं, प्रेम करने की 'कोई; उम्र नहीं होती. ना ना ग़लत ! प्रेम करने की 'कोई भी' उम्र नहीं होती साली !! तीनों उम्रों में प्रेम की कोई उम्र नहीं. चारों आश्रमों में प्रेम का कोई आश्रय नहीं. पाँचों सब्जेक्ट में प्रेम का कोई सब्जेक्ट नहीं.
जब प्रेम हो तो युगल को २-३ साल का ब्रेक मिलना ही चाहिए मेरा ये मानना है. कम से कम जो लेना चाहें उनके लिए तो. मन लगाकर पढ़ाई, मन लगाकर नौकरी और मन लगाकर जीने के बीच में मन लगाकर प्रेम करने के लिए एक ब्रेक तो बनता ही है.

यकीनन प्रेम एक कला है. प्रेम करना और प्रेम होना भी. सिंस इट कम्स विदइन एंड इट हैपन्स बाई दी ग्रेस ऑव गॉड रिस्पेकटिवली. तो इसलिए साइंस के रसायनों से उसर हुई ज़मीन में भी प्रेम प्रस्फुटित हुआ ! इस तरह की 'शून्य की महिमा' गणित की बजाय 'फिजिक्स' बखान करती थी मेरी मार्क शीट (या आई नो माई मार्क-शीट वज अ पेपर ऑव शिट.)
अरे हाँ बतान भूल गया, ये वो उम्र भी थी जब एक तीसरी ही परेशानी से दो चार हो रहा था. कासे कहूँ? बताने में भी शर्म आती है. पर जैसा की बड़े बड़े हकीम कह गए है और आज भी गाहे बगाहे कहते रहते हैं कि 'उन' गलतियों के लिए शर्मिंदा ना हों...
...पर यकीन करो 'उन' दिनों में भी प्रीटी जिंटाओं, एश्वर्याओं और तुम्हारी सहेलियों के सहारे सोच में भी तुम्हारा कौमार्य बचा लिया था मैंने. बट यू नो इट वज़ वैरी नेरो इस्केप ! तो अब भी तुम्हें जब भी सोचता हूँ वर्जिन ही.
हाँ तो, बेशक धन (पिताजी का ) पढ़ाई में खर्च हो रहा था, तन प्रीटी जिंटाओं में पर मन सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा था. (फ़िल्मी !वैरी फ़िल्मी )
...आई विश ऊधो 'मन' ना भये दस बीस !



हुआ दरअसल यूँ था की हमार प्रेम कोई बहुत बड़ी तोप चीज़ नहीं था. किसी का भी नहीं होता वैसे. पर हम यही मानते भी थे. इसलिए जब हम साथ साथ थे उन दिनों भी धीमी आंच में पकता रहा कुछ हमारे बीच . कोई पेशन नहीं था. पर प्रेम था...












...और इस प्रेम का पता भी जाने कब लगा ? या पता ही नहीं लगा शायद. उबलते पानी में सीधे डाल दिए गए और धीरे धीरे गर्म होते पानी में पहले से डाले गये दो मेढकों की कहानी सुनी है तुमने? ख़ैर छोड़ो ये सब, तुम ये बताओ कि ये इश्क का दरिया तब कितना गर्म था जब दहाई के अंकों में आने वाले हमारे घर के फ़ोन के बिल में 'देय राशि' वाले क्षेत्र में इतनी ढेर सारी संख्याएं देख कर मेरे पिताजी उसे भी किसी फ़ोन नम्बर से मिसइंटरप्रेट कर गए. "उजा ! किसका नम्बर है रे ये दर्शन? उसीका होगा." तुमको पता है पापा ने किपेड लॉक कर दिया था, एक छोटे से ताले से. पर प्रेम ! उसे तो बड़ी बड़ी बेड़ियाँ भी नहीं बाँध पायी फ़िर ये छोटा सा ताला क्या चीज़ है....
...ये जुनून-ए-इश्क के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या?
पर साला वो चाइनीज़ ताला ! मम्मी के का हेयर-पिन से भी नहीं खुला. पर प्रेम था, सच्चा ही रहा होगा, तभी तो जाने कैसे मैंने डिस्कनेक्ट के बटन को बार बार दबाकर नम्बर डायल करना सीखा. मेरे रकीब थे तुम्हारे फ़ोन नम्बर के वो दो ज़ीरो, वो जिनकी वजह से दस बार तेज़ी से डिस्कनेक्ट का बटन दबाना पड़ता था, दो बार !
यकीनन प्रैक्टिस मेक्स मैन परफेक्ट. बट इट इन्क्रिज़ेज़ यॉर फ़ोन बिल टू फोल्ड.



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हमारा घर संस्कारिक रूप से बड़ा कन्फ्यूज्ड था. यही संस्कारों का कन्फ्यूजन मुझे भी विरासत में मिला. एक ऐसे घर में जन्म हुआ जहाँ मेरा किसी मुस्लिम या दलित मित्र को लाना कभी मना नहीं था. अपितु, था तो ये कि जूता खोल के बैड में घुस जाने वाले मित्रों में इनकी ही संख्या सबसे ज़्यादा थी. और उन्हें भी आस पड़ोस कि आंटियों में मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा पसंद थी. सारे अंकलों में मेरे पिताजी.
हो भी क्यूँ ना ? जहाँ सारे दोस्तों के घर में ताश खेलने की मनाही थी वहीँ मेरे घर में विशेष आयोजन होते थे. दिवाली ,होली,सन्डे विशेषांक अलग. जब बाज़ी १ रूपया राउंड वोट से बढ़ा कर ५ रूपया फुल वोट कर दी जाती. ऐसे ही कितने और घरों के टैबू काम मेरे घर में ऑव्यस थे. जिनमें अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बात करना नयी रिलीज़ हुई मूवी (और उसकी हिरोइन की समीक्षा भी) शामिल थे. पर 'उन' दोस्तों के घर से बाहर निकलने के बाद पूरे घर में 'अपवित्रो - पवित्राम' का उच्चारण करते हुए गंगाजल का छिडकाव भी उसी घर के रयूटलस का अभिन्न हिस्सा थी. पहले पहल तो मेरी आमा (दादी) के ऐसा करने पर मेरी माँ ही सबसे ज़्यादा हँसी उड़ाती थी,"देख लो हो दर्शन के बोज्यू ! फ़िर शुरू हो गयी तुम्हारी खानदान की नौटंकी. एक होता, दो होता, किसी के ख्वार(सर/ खोपड़ी) में मारी ही जाती यहाँ तो पूरी पोटली ही खोटी है. किसके ख्वार जो मारो फ़िर? " और इस तरह मेरी माँ जब मुझे सबसे उपयुक्त लगी अपने प्रेम को रिश्तेदारी में बदलने के मसले पर बात करने के लिए ...
...किसी एक दिन हरेला बोने की तरह, क्न्क्वारी पूजने की तरह 'अपवित्रो - पवित्राम' वाला 'कार्यक्रम' भी माँ ने संस्कारी (कन्फ्यूज्ड-संस्कारी) विरासत की तरह आमा से ले लिया.
..सच! मैं अभी तक ये नहीं जान पाया कि मेरा घर और मेरे घर वाले रुढ़िवादी हैं या तरक्की पसंद? तुम ही बताओ, तुम्हें तो पता ही है वो मेरा तुम्हारे साथ कहीं जाना या तुम्हारा घर आना कभी नापसंद नहीं करते थे. पर क्या तुम ये जानती हो कि तुम्हारे ना होने पर वो ये कहना भी नापसंद नहीं करते थे, तुम्हारे ताने देकर ,"ठीक है भई !अपने मन के बच्चे ठहरे तुम. हम कौन होते हैं. पर उससे शादी करनी ही है तो पहले हमारा क्रिया-कर्म कर देना.हमें गंगा में बहा देना फ़िर निगरगंड होकर जो चाहे करना." और अनूप जलोटा के शब्दों में कहूँ "दुनिया का कोई बेटा अपने माँ की ये बात नहीं सुन सकता, फ़िर मैं तो इकलौता ठहरा! मैं कैसे ? तो मैंने ही कह दिया बापू मोरे, मैया मोरी, तू चिंता मर कर मैं सोज्युओं की लड़की से ही शादी करूंगा."
ये अलग बात थी कि एक-एक करके मोहल्ले भर की, शहर भर की और कुमाऊं भर में सोज्युओं कि लडकियाँ ही सबसे ज़्यादा घर से भागने लगी. एक दौर तो वो भी आया (जो अब तक जारी है) कि सोज्युओं के घरों में लड़कों की बाढ़ और लड़कियों का अकाल भारत के ही दो राज्यों यू. पी. और बिहार की एक ही समय में उत्पन्न हुई दो विपरीत नेचुरल-डिजाज़स्टरज़ की तरह आया.



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अच्छा तुम्हें ये पता है कि खुद से किये दो ही वादे निभा पाया हूँ मैं. एक तो अब तक शाकाहारी हूँ. दूसरा अब तक होली नहीं मनाई. लोगों से कहता हूँ कि रंगों से एलर्जी है. पर झूठ कहाँ कहता हूँ, लोग ही रंगों का अर्थ अबीर-गुलाल से लगाते हैं.
वो कहते हैं ना कि हर एक को खुशियाँ, आंसू, सासें और सपने भी इश्वर गिन के देता है.
रंग भी गिनकर ही मिलते हैं क्या सबको? और क्या मैंने अपने रंग एक ही होली मैं खर्च डाले थे? नीचे खड़ा था मैं. मुझपे रंग डाले जा रही थी तुम...
और... और...
'बंदी चेला' जो मैं भी हट जाता वहाँ से. डालो डालो. कितना डालोगी. "छि: कहा ! भ्यास जैसे तुम ! सब भाभियाँ कैसे मजाक उड़ा रही थीं मेरा. भांग पी रखी थी क्या तुमने? तुम तो पीने वाले नहीं हुए कहा? उस दिन जो क्या हुआ तुम्हें?"
क़ाश कोई बताने वाला होता तब. मैं खुद वहाँ से हट जाता या आवाज़ देकर तुम्हें रोक लेता "बस भी करो ! इन रंगों को ज़िन्दगी भर चलाना है हमें."
तुम्हें उस दिन नहीं रंग पाया था. पर तुम्हारे गालों को गुलाबी करने का मौका मिल गया था मुझे एक दिन....



...बहरहाल तुम भी तो कुछ बोलो? मैं ही अपने बारे में कहे जाऊँगा? बताओ कि तुम्हें कब लगा तुम मुझसे प्रेम करती हो? लगा भी कि नहीं? तुम्हें कब लगा कि मेरे बिना तुम नहीं जी पाओगी? लगा भी कि नहीं?
सब छोड़ो...
...ये बताओ, तुम्हें कैसे पता लगा कि अब तुम मेरे बिना 'बैटर' जिओगी कम्परेटिवली ?
...ना ना जब अंतिम बार बात हुई थी हमारी तब पूछना भूला नहीं था. बस सामान्य नहीं रह पाया था तब . ऐसी स्थितियों में आदमी सामन्य रह भी कहाँ पाता है? या तो सामान्य से कुछ अधिक हौसला आ जाता है उसमें या कुछ और कायर हो जाता है वो. और कायर हो जाना उन परिस्थितियों में सबसे आसान था मेरे लिए. क्यूंकि मैं इन सब पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहता था जो तुम्हारे 'साथ' के साथ आने ही आने थे.(लव आफ्टर ऑल इज़ अ कम्प्लीट पैकेज एंड यू वर जस्ट अ ल्युकरेटिव पेकेजिंग.)
कायर होने से 'सेल्फ पिटी' (जो अब तक जारी है ) का एडवानटेज भी था. हाँ तुम्हारे और अपने रिश्ते के बारे में भी में सोचता इन सब के बीच अगर...
...अगर तुम्हारे ना होने का एहसास ठीक उस वक्त भी इतना ही होता जितना बाद में कभी बढ़ते बढ़ते हो गया था, अगर तुम्हारी खाली की हुई जगह ठीक उस दिन भी उतनी ही ज़्यादा लगती जितनी बाद में कभी लगी (जब आँखों को अँधेरे में देखने की आदत हुई जा रही थी), और अगर तुम्हारा दूर जाना उस दिन भी 'जन्म भर वाली कुट्टी' सा बच्चों का खेल ही ना लगता...
..अगर !
बता सकती हो इन चार घटनाओं में से वो कौनसी घटना थी जब हम वाकई, वाकई अलग हो गए थे? या अलग होना एक 'प्रोसेस' जिनका ये चार घटनाएं अभिन्न हिस्सा थीं? हम स्टेप बाई स्टेप बिछड़ रहे थे....
घटना १)
मेरे चाचा तुम्हारे पिताजी को फ़ोन करते हैं,उन्हें भला बुरा सुनाते हैं (भला भला मेरे बारे में बुरा बुरा तुम्हारे बारे में ).तुम्हें क्या याद दिलाना तुम तो जानती ही हो अमूमन ऐसी बातें "समझा के रखो" से शुरू होकर "नहीं तो समझ लेना" पे ही खत्म होती हैं. और किसी एक पक्ष की तबियत नासाज हो ही जाती है. इस तरह तुम्हारे पिताजी को दिल का दूसरा दौरा पड़ता है. तुम्हारा भाई जिसने चूड़ियाँ नहीं पहनी होती हैं मेरी कुटाई करने के लिए मेरी खोजबीन करता है. मैं फेल होने का बहाना बनाकर घर से भाग जाता हूँ. १ दिन का 'फुटेज' और 'सेल्फ पिटी' खाकर 'आशाराम जी से मिलने की आशाओं' से मोह भंग करवाकर हरिद्वार छोड़ के अपने नश्वर शरीर को लाकर वापिस अल्मोड़ा प्रस्तुत होता हूँ. तुम्हारे भाई से पिटता हूँ. तुम्हारे ग्रीटिंग कार्ड जो स्टेपल करके दीवार मैं टाँगे थे उन्हें सधन्यवाद तुम्हें वापिस करता हूँ. तुम्हारी सहेली के हाथों (हाँ मग़र इस प्रक्रिया में उसका हाथ नहीं छूता मैं.)
...वैसे तुम्हें तो पता ही होगा कि तुम जैसे लोगों का 'अपवित्रो-पवित्राम' करने के लिए ही धरा में जन्मा था मेरे 'उन्हीं' चाचा ने अपनी लड़की को भी. बेशक इस सामजिक कार्य के लिए उसे घर छोड़ना पड़ा. या साफ़ साफ़ कहूँ तो उसे घर छोड़ के भागना पड़ा. किस भी सामन्य सोजुओं कि चेली की तरह ही. और तिस पर कोई उसे कोई गौतम बुद्ध भी नहीं मानता. 'चालू' बेशक लोग गाहे बगाहे कह देते हैं उसे. ये सुन के खुश तो बहुत हुई होगी ना तुम. नहीं ?
...झूठ क्यूँ बोलूं? मैं तो हुआ था.
बहरहाल....

२)
दो महीने बाद तुम्हारा फ़ोन आता है...
"और जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत हुई तभी तुम भाग गए ठहरे, यहाँ मेरे बोज्यू मरने मरने को हो गए थे, और क्या? कितना बड़ा पाप चढ़ेगा कहा मेरे ऊपर. तुम्हारे चाचा को जो क्या पड़ी होगी मेरे बोज्यू से ये सब कहने की फ़िर? इतना ही लम्बा नाक था तो अपने भतीजे को समझाते. कम हो रा था तो मुझे कह देते सब कुछ. मुझे दिपुली ने बताया तुम भाग गए करके घर से. वहाँ मेरे बोज्यू ऐसे हो गए ठहरे यहाँ मैं तुमसे बात करने को भागी भागी कभी इस बहाने कभी उस बहाने एस टी डी. द कहा ! फ़ोन में तुम्हारे चाचा ने पोहरा दे रक्खा हुआ. मुझसे कहने वाले हुए खबरदार डुमरी जो तुमने फ़ोन किया. डूम कहने वाले हुए मुझसे. डूम. मैंने ऐसा अनम सुना ना जन्म. लेकिन उस दिन, उस दिन सब सुना मैंने. मैंने ये भी सोचा फ़िर तुम्हारी गलती थोड़े ना हुई. और कौनसा जो मैंने तुम्हारे चाचा के साथ रहना है ? पर दो महीने होने को आते हैं. तुमको जो मेरा जरा भी निशाश लगा ठहरा. फ़िर में कैसी हूँ जिन्दा भी हूँ कि नहीं..." और भी पता नही क्या क्या कहती हो तुम. मुझे कुछ याद नहीं. हाँ मुझे पीछे से आती तुम्हारी सहेली ही आवाज़ अब तक याद है, "आंसू देखो ढ्वाला के फ़िर ! रो तो ऐसे रही है जैसे अब जन्म भर बात नहीं करेगी."
बेशक तुमने जो जो कहा वो याद नहीं पर एक बात जो नहीं कही वो ज़रूर याद है. इतने लम्बे कनवरसेशन में तुमने एक बार भी मुझे 'भ्यास' नहीं कहा.
ये होली से ठीक एक दिन पहले की बात थी.


३)
तुम्हारा जन्म दिन २७ अक्तूबर....
वो गणित वाले मा'साब क्या कहते थे, "च्यालों ! कुंजी से देख कर सवाल लगाओगे तो कुछ याद नहीं रहेगा. मेहनत करोगे तो कभी नहीं भूलोगे...."
...मोबाइल के इस दौर में भी तुम्हारा नम्बर बस इसलिए याद था कि कुछ महीने पहले बड़ी मेहनत लगती थी इसे मिलाने में.
"हेलो कौन"
.......
"छिः जाने कौन जो होगा फ़िर. आपने बात नहीं करनी तो फ़ोन जो क्यूँ किया. बिल आ रा होगा आपका."
.......
"धर दे कहा फ़ोन. इस फ़ोन के वजह से कितनी नोटंकी हुई ठहरी और तू अब भी..."
.......
"धर कहा ना मैंने"
"हाँ मैं राकेश."
"अरे राकेश दा. बोल क्यूँ नी रे ठहरे फ़िर? आज जो कैसे फ़ोन कर दिया?"
"तेरा जन्मबार हुआ. बरस दिन का दिन."
"हो गया कहा ! तुम भी ना. तुमको जो कैसे याद रही फ़िर?"
"मैं राकेश नहीं दर्शन...."
"..........."

ना तुमने कहा कि आइन्दा कभी फ़ोन मत करना ना मैंने आज तक किया...
नहीं तो होने को क्या थे छह नम्बर बस 200143. (05962 के बाद.). और अबकी तो किपेड भी लॉक नहीं था.
...यकीन करोगी इतने सालों बाद भी लगता है कि तुमको फ़ोन करूंगा तो बात वहीं से शुरू होगी जहाँ पे खत्म हुई... ..ना ना बात ख़त्म ही कब हुई?


४ )
जब मैं ये सब लिख रहा हूँ. इस रिश्ते के 'डोक्युमेनटेड एडिशन'.अपने आप को भी साथ साथ पूर्ण विश्वाश दिला रहा हूँ कि बस हो गया. बहुत हो गया. एवरीथिंग इस पास्ट नाऊ. एवरीथिंग...

सोमवार, 7 मार्च 2011

इस पार प्रिये तुम हो...



"हर चाह अंत में उदासियाँ ही देती हैं, पूरी न हो पाने पर भी, और पूरी हो जाने पर तो और भी अधिक. हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख.
प्रेम की परिणिति हिज्र और जीवन की मृत्यु !"

"और वो चीज़ें जिनका प्रारब्ध दुःख है?"

"इंसान कोई ऐसी चीज़ शुरू ही क्यूँ करना चाहेगा जो दुःख से ही शुरू होती हैं ?"

"बाई द वे. माना वो खुद हो गयी तो, इंसान का तो वैसे भी ज्यादातर चीज़ों में कोई वश नहीं है, तो माना कोई ऐसी चीज़ जो दुखों से प्रारंभ हुई तो?"

"तो यकीनन उसका अंत आनंद में ही होगा."

"ऐसा इतने यकीन से कैसे कह सकते हो तुम?"

"क्यूंकि कोई चीज़ यदि दुखों और उदासियों से प्रारंभ हुई तो हमारे लिए उसमें खोने को कुछ भी नहीं. निर्वात, ईथर के बाद तो कुछ खोया ही नहीं जा सकता."

"इसका मतलब तो हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति भी प्रसन्नता ही है दुःख के रास्ते बेशक."

"इंटलैक्च्युअल हो गयी हो मेरे साथ रहते रहते."

"यानी इंसान किसी चीज़ की चाह ही न करे?"

"पता नहीं मुझे नहीं मालूम.पर मैं 'कम से कम' चाह करता हूँ, कुछ चाहें न चाह के भी पैदा हो जाती हैं, जैसे तुम्हारी, जैसे इस सिगरेट की."

"हाँ पर कुछ चाहें अच्छी होती हैं, कुछ बुरी."

"सारी चाहें बुरी ही होती हैं."

"मुझे नहीं पता तुम क्या कह रहे हो."

"मुझे नहीं पता मैं क्या सोच रहा हूँ."

"अकेले मत रहा करो ज्यादा."

"तुम्हारा 'अकेले-पन' से क्या मतलब है?"

"अकेलापन मतलब अकेलापन... लोनली-नेस... सिम्पल ! मैं तुम्हारी तरह इंटलैक्च्युअल नहीं हूँ."

"बात इंटलैक्च्युअलनेस की नहीं बात अकेलेपन की है. जिसे तुम अकेलापन कहती हो, उसे ही मैं भी अकेलापन मानता हूँ... यकीनन...
...और हो सकता है वो बुरा भी हो, पर जानती हो अगर मैं किसी और के साथ हूँ, नॉट टू मेंशन, तुम्हारे सिवा, तो मैं और भी अकेला हो जाता हूँ, अनुभव की बात बता रहा हूँ तुम्हें कोई इंटलैक्च्युअल या फिलोस्फिकल बात नहीं. किसी और से बात करूँ तुम्हारे सिवा, तो वो मैं नहीं कर रहा होता हूँ, मेरा 'मैं' और ज्यादा अकेला हो जाता है, वो खुद को भी नहीं पाता वहां पर."

"औरों से तो बड़े हंस हंस के बातें करते हो. मेरे पास आकर ही पता नहीं क्या हो जाता है?"

"तेरे पास आकर मेरा मूड बदल जाता है....
...जोक्स अपार्ट, दरअसल ये हंस हंस के बात करना, औरों से, स्व को भुला देना है, बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट्स के.मैं न तुम्हारे सामने झूठा उदास होता हूँ, न दूसरों के सामने झूठा खुश. न तुम्हारे सामने और न औरों के सामने मुखौटा. ये सब नेचुरल  अवस्थाएं हैं. ऐसा मुझे लगता था पहले."

"और अब ?"

"फिर लगा कि इनमें से कोई एक ही अवस्था नैसर्गिक हो सकती है बाकी सब ओढ़ी हुई."

"और अब?"

"अब? ...अब लगता है कि मेरा पूरा वाह्य अस्तित्व झूठ में ही टिका हुआ है. खुद अपने को भी धोखा देता हुआ. खुद को भी धोखे में रखे हुए. बल्कि सबसे ज्यादा खुद को धोखे में रखे हुए. ये मैं ओढा हुआ है. अब भी जब तुमसे बात करता हूँ तब भी ओढा हुआ है. शायद कभी अपने को इंटलैक्च्युअल और कभी अपने को उदास सिद्ध करने को, कभी तुम्हारे एप्रिसीएशन के लिए कभी तुम्हारी सांत्वन के लिए. पर जानती हो मैं ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहना चाहता."

"तो?"

"तो... लेट्स सी !
मुझे मालूम है मुझे क्या 'नहीं करना' पर नहीं जानता कि क्या 'करना' है? और सबसे बुरी बात कि जो मुझे मालूम है मुझे 'नहीं करना', वो मैं अब भी कर रहा हूँ. जैसे, तुमको ये सब बातें बताने का कोई औचित्य नहीं है सिवाय इसके कि अपने को और और अधिक इंटलैक्च्युअल और अधिक उदास सिद्ध कर सकूँ या अपने को और अधिक तुम्हारे पास ला सकूँ. पर मैं इतना यूज़ टू हो चुका हूँ इन सब से कि सब कुछ ऑवियस सा लगता है. दरअसल मैं और हम सब...
...'हम सब' कहीं और कहूँगा या लिखूंगा तो लोग कहेंगे कि अपनी बात करो मियाँ, हमारे बारे में कोई राय मत बनाओ, और सही भी है. मुझे नैतिक और आध्यात्मिक दोनों ही नज़रिए से अधिकार नहीं है किसी के विषय में कोई राय बनाने की.बहरहाल अभी केवल तुम हो तो कह रहा हूँ...
...मैं और हम सभी सबसे ज्यादा अपने दोषी हैं. बड़े से बड़े अपराधी का भी सबसे बड़ा विक्टिम वो खुद है. जो अपने अन्दर के विक्टिम को पहचान जाता है वो सेल्फ पिटी करने लग जाता है. जो अपने अन्दर के अपराधी को पहचान जाता है वो प्रायश्चित !
जो अपने अन्दर के किसी भी स्व को नहीं पहचानता वो चलता रहता है, बिना किसी भार के. पर क्या तुम नहीं मानती की ये भार, ये अफ़सोस आवश्यक है, ये माज़ी जरूरी है, चिर नूतन रहने के लिए?"

"तुम घर छोड़ के भागना तो नहीं चाहते हो कहीं?"

"तुम मुझपर कितना विश्वास करती हो? चलो छोड़ो ये सवाल नहीं पूछूँगा. बल्कि तुमसे कहूँगा कि तुम मुझपर अँधा विश्वास करके देखो.क्यूंकि न जाने क्यूँ अभी भी लगता है मुझे तुम्हारे विश्वास की जरूरत है. तुम्हारा विश्वास, तुम नहीं जानती, कितना बड़ा संबल है, मेरे लिए अब भी."

"मतलब?"

"मतलब ये कि भागते वो लोग हैं, जिन्हें किसी चीज़ कि तलाश होती है.दौलत, शोहरत, एकाकीपन, प्रेम, इश्वर..."

"तो क्या तुम्हें किसी चीज़ कि तलाश नहीं है?"

"तलाश? तलाश उस चीज़ कि कैसे करूँ जिसे मैं नहीं जानता ? फ़र्ज़ करो तुम कहो कि तुम इश्वर हो. मेरे सामने इश्वर... पिछले आठ सालों से सबसे ज्यादा मेरे पास..."

"बकवास ! मैं तो..."

"नहीं ? चलो फ़र्ज़ करो मैं कहूँ कि मैं इश्वर हूँ. तो क्या तुम मान लोगी? ...इसके साथ आठ साल रही हूँ मैं, इसमें इतनी कमियाँ, इतने अवगुण. इश्वर तो वो होता है जो २०१० के कैलेंडर मैं है. इश्वर तो वो होता है जिसकी दो आँखें बारह हाथ होते हैं. इश्वर तो बहुत हेंडसम, अल्टीमेट होता है...
..और सबसे बड़ी बात इश्वर तो इंसान का बनाया होता है. इंसान नहीं....
...तो नहीं मैं किसी भी चीज़ कि तलाश में नहीं हूँ."

"तुम पागल हो."

"नहीं मैं इश्वर हूँ."

"एक ही बात है."

"तुमने इश्वर को पागल कहा, पाप लगेगा."

"मैंने एक पागल को इश्वर कहा, इसका पुण्य मिलेगा."

"चलो छोड़ो ! पाप पुण्य... कोई ऐसी बात क्यूँ न करें जो दो प्रेम करने वाले करते हैं, जब वो मिलते हैं?."

"सोचती हूँ दुनियाँ में कितने जोड़े होंगे प्रेमी प्रेमिकाओं के जो ऐसी बातें करते होंगे."

"तुम कितनी लकी है सोचो !
...जोक्स अपार्ट आई एम जेन्युनली वैरी सॉरी, मैं क्या करूँ न मुझसे गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की बातें हो ही नहीं पाती. गलत है पर ऐसा है."

"कभी कभी करनी चाहिए."

"क्या? क्या करनी चाहिए?"

"वही... गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की और 'मेरी' बातें."

"तुम खूबसूरत हो और दुनिया में सबसे अच्छी. और तुम खूबसूरत और अच्छी नहीं भी होती तो तुम वो तो हमेशा ही रहोगी जिसने मेरी दुनियाँ खूबसूरत बनाई थी."

"और अब? क्या वो अब खूबसूरत नहीं?"

"क्या?"

"तुम्हारी दुनियाँ ?"

"इससे क्या फर्क पड़ता है."

"मुझे पड़ता है, कि मैं तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहती हूँ."

"और तुम? तुम अपने लिए कुछ नहीं चाहती?"

"तुम खुश तो मैं खुश."

"तो आ जाओ सब छोड़कर मेरे पास आ जाओ मैं खुश हो जाऊंगा."

"मैंने सच मैं आ जान है. फिर न कहना."

"मैंने भी सच में खुश हो जाना है."

"हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख."

"तुम मेरा मजाक बन रही हो."

"नहीं मैं तुम्हारी बातें दोहरा रही हूँ."

"जब बिना माने बातें दोहराई जाएं तो उसे मजाक बनाना ही कहते हैं."

"मैं तुम्हारी बात स्वीकार ही नहीं करती बल्कि उसे पहले से ही मानती भी हूँ."

"तुम यहाँ नहीं आ सकती क्यूंकि तुम्हें आसक्ति है, मैं कहीं नहीं भाग सकता क्यूंकि मुझे भी आसक्ति है. अनिश्चितता का डर, वो हम दोनों की ही है."

"तो क्या इस डर के निजात पाने के लिए भी कोई क्रांति करोगे अब तुम? कोई युद्ध जैसा कुछ ?"

"क्रांतियाँ हमेशा युद्ध और तलवार से हों ज़रूरी नहीं. आत्मिक क्रांति, स्व क्रांति आवश्यक है."

"पर पहले तो तुम ही युद्ध और तलवार की बातें करते थे?"

"तो सिद्ध हुआ कि मुझमें आत्मिक क्रांति हो रही है."

"तुम्हारे विचार बूढ़े होते जा रहे हैं."

"मेरे विचार क्रन्तिकारी होते जा रहे है."

"तुम एक बूढ़े क्रांतिकारी होते जा रहे हो."

"क्रांतिकारी कभी बूढ़े नहीं होते."

"बूढ़े कभी क्रांतिकारी नहीं होते."

" और क्या कहते हैं तुम्हारे जे. कृष्णमूर्ति? इन गुरुओं-शुरुओं की बातें मत माना करो. ये सब एक से ही होते हैं. सब एक सी ही बातें करते हैं. मैंने खूब पढ़ा है इनको.नाटक हैं सब तुम्हारे, पता नहीं किस नौटंकी खानदान से आते हो तुम.खुद तो परेशान होते हो, मुझे भी संग में करे देते हो. किसी चीज़ से ज़ल्दी से प्रभावित हो जाते हो, और ज़ल्दी ही मोह भंग भी हो जाता है. हो सकता है तुम्हारा मुझसे भी मोह भंग हो जाए कभी."

"अव्वल तो ऐसा कभी होगा नहीं क्यूंकि तुम कोई धारणा नहीं हो, तुम मेरे लिए मेरे विचारों की तरह चिर नूतन हो.
पर यदि होता भी है ऐसा, यदि तुम्हारे विचारों में ठहराव के कारण मेरा तुमसे मोह भंग हो भी जाता है तो इसमें बुरा क्या है तुम्हारे लिए भी ?
मैं तुम्हारी ही बात करूँगा, क्यूंकि यदि 'मेरा' मोह भंग होता है तुमसे तो मुझे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ना. लेकिन ये तुमारे लिए भी बुरा नहीं है, क्यूंकि सबसे पहली बात मैं कोई इश्वर नहीं हूँ या कोई इतना बड़ा इंसान नहीं हूँ कि मेरे मोह भंग हो जाने से किसी दूसरे को उदासियाँ आये. और अगर मैं तुम्हारी जिंदगी में इतना महत्व रखता भी हूँ तो भी मेरा केवल तुमसे मोह भंग हुआ है, तुमको बुरा कभी नहीं समझा, तुम्हारा विकल्प कभी नहीं ढूँढा. और जिसे तुम प्रेम कहती हो उसकी तो सबसे अच्छी परिणित ही है मोह भंग हो जाना, अन्यथा सोचो लोग या तो प्रेम में अपने से नफरत करने लग जाते हैं या दूसरे से, अपने को प्रताड़ित करने लगते हैं या दूसरे को.
तुम क्या समझती हो दो लोग जो एक दूसरे को अगाध प्रेम करते हैं उन्हें किस तरह से अलग होना चाहिए? सबसे बेस्ट मेथड क्या है जुदा होने की ? लड़ के झगड़ के ? अपने या/और दूसरे को उदास कर के? अपने या/और दूसरे को उलाहने देकर? इससे अच्छा तो ये है कि दोनों सोच समझकर, जान बूझकर, एक दूसरे कि खुशियों कि कामना करते हुए अलग हों, और ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तो दोनों के पास ठीक एक ही समय में दूसरा कोई विकल्प न हो (और फिर उस दूसरे विकल्प में भी वही परेशानियां) या फिर दोनों का ही ठीक एक समय में मोह भंग हो जाए. और मोह भंग होना भी प्रेम होने कि तरह एक स्व-जनित प्रक्रिया है. तुम्हारा भी हुआ था, मेरा भी हो सकता है. एक ही समय में हो ज़रूरी नहीं.
प्रेम कब एक साथ होता है ? एक को होता है दूसरे को प्रतिक्रिया स्वरूप होता है. और फिर दोनों को प्रेम हो जाता है एक दूसरे से. मोह भंग होना भी ऐसा ही है, एक का मोह भंग हुआ दूसरे का प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ. और फिर दोनों का मोह भंग हो जाता है एक दूसरे से. बिना नफरत के, बिना द्वेष के, क्यूंकि यदि कोई भी अच्छी या बुरी भावना रही एक दूसरे के प्रति तो मोह भंग होना कैसे ठहरा ये ?
पर नहीं ये सब कहने के बावजूद मेरा तुमसे मोह भंग नहीं होना कभी. क्यूंकि तुम तो फिर भी 'ख्वाब' हो कोई हकीकत नहीं. यहाँ तो दिल का ये आलम है कमबख्त कि उसका हकीकतों से ही अब तक मोह भंग नहीं हुआ.

और रही बात प्रभावित होने की तो मैं या तुम उसी वस्तु से देर तक या हमेशा प्रभावित होते रहते हैं जो हमारे लिए कोई न कोई सुख प्रदान करता हो. हर कोई जीवन के प्रति अपनी कोई धारणा बना लेता है. जिससे की जीना आसन हो पाए.
मेरी जीवन के प्रति बहुत पहले से ही आध्यात्मिक धारणा रही है. मेरी उदासियाँ मेरी खुशियाँ आध्यात्मिक हैं. इश्वर यकीनन कहीं नहीं है.
कोई एक आदमी अत्यधिक उदास या अत्यधिक खुश होता है तो वो शराब पीता है, कोई दूसरा कुछ लिखना शुरू कर देता है, कोई एक अपने प्रेमी अथवा प्रेमिका को प्रेम अथवा याद करने लग जाता है, कोई और इश्वर के ध्यान में चले जाता है, या तो उसका शुक्रिया अदा करता है या उसे याद करता है क्रमशः.
किन्तु मैंने देखा की मैं इन दोनों ही 'परम' स्थितियों में अंतर्मुखी हो जाता हूँ."

"कैन आई हग यू ?"

"नो वेज़."

"प्लीज़..."

"एवरी हग इंडज़ विद सेपरेशन."

"बट एवरी हग हेज़ इट्स ओन, यूनिक सेपरेशन-एक्सपिरीयेन्स. एट लीस्ट फॉर द सेक ऑव डेट यूनिक एक्सपिरीयेन्स, हग मी... डैमेट ! हग मी !!"