गुरुवार, 26 अगस्त 2010

लव आज कल

(इस प्रेम कहानी में लड़की पाकिस्तान नहीं रहती है, लड़का गरीब नहीं है, दोनों के बीच जात-पात का भी कोई बंधन भी नहीं है, प्रेम त्रिकोण,चतुष्कोण भी नहीं है क्यूंकि अनंत कोण अगर हो जायें तो वृत्त बन जाता है, कहानी का कोई स्थूल खलनायक भी नहीं है, और प्रेमिका के भाई भी जिम नहीं जाते हैं.ये सपाट सी बोरिंग वास्तविक-सामयिक  प्रेम कहानी है. जिसका सामयिक-पन 'टाइम -प्रूफ' नहीं है और  जिसका वास्तव-पन एकाकी न हो के अलग अलग लोगों ने अलग अलग टुकड़ों में जिया है.आप अपना टुकड़ा स्वेच्छा से चुन सकते हैं.या बिना चुने भी रसस्वादन कर सकते हैं. )




जब १५ मिनट की ब्रेक हुई तो वो मुझे माचिस का  इंतज़ार करते हुए मिली...
"एक्सक्यूज़ मी लाइटर होगा आपके पास?"
उसने अपने कानों से आई पॉड के हेड सेट हटा के धीर से अपनी लो-वेस्ट जींस की जेब में खोंस लिए.मैंने अपनी जली हुई सिगरेट बिना कुछ बोले उसके हाथों में थमा दी, जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ और दोनों जल उठे.
नोट: लेखक का उद्देश्य कहानी को सेनसेशनल बनाने का (कतई नहीं)  है !
बहरहाल. फिर सिगरेट मुझे वापिस कर दी गयी. अभी उसने सर हल्का नीचे करके बालों को हटा के एक तरफ के कान में अपना हेड सेट डाला ही था कि मैं पूछ बैठा,
'एक्सक्यूज़ मी! व्हिच सॉन्ग?'
मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गयी और सेंडिल से ऑफिस की ग्लेज़्ड धरती को एक निश्चित ताल पे थपथापना भी रुक गया उसका...
"हं आ..."
और फिर उसने हल्की सी (हल्की सी का अर्थ सोफेसटीकेटेड लिया जाये) लेक्मे या शायद मेबिलिन मुस्कान (या मेबी शी इस बोर्न विथ इट) से उत्तर दिया...
"एकोन."
"लोनली?"
"न न परेंट्स के साथ रहती हूँ."
"नहीं मेरा मतलब गाना?"
"ओह... अच्छा !"

जो दूसरा वाला हेड सेट था कॉटन-बड की तरह मेरे कान में खुद ही डाल दिया उसने . कितने धीरे से नजदीक आई थी वो.
उसके कांटेक्ट लेन्सेस के अन्दर से झांकती आँखें किसी इनकमिंग मेल की तरह चमक रही थी, उसके होंठ यूँ लगते थे मानो मैक-डी का म्योनिस. सर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था.
'ब्लेम ओन मी' , किसी आंग्ल ट्रांस भजन की तरह , मेरे कानों में मोनो इफेक्ट के साथ गूँज रहा था. 'अल्ट्रा माएल्ड्स' को आधी पी के ही अपनी सेंडिल से बुझा दी उसने और शिष्टाचार की पराकाष्ठा तब हुई जब उसने दूसरा हेड सेट भी " ओ नो ! गोट्टा गो!!!" कह के अपने कानों से मेरे कानो में लगा दिया. और ८ जी. बी. का आई पॉड मेरे हाथों में थमा दिया.
खट-खट-खट की आवाज़ से धीरे धीरे दौड़ते हुए बोली "अगले ब्रेक में वापिस कर देना."
मेरा एकोन स्टीरियो हो गया !
अगले ब्रेक में पहचान लूँगा उसे? वैसे उसके चेहरे में एक अजीब सी गेयता थी इसलिए उसे याद करने में कोई दिक्कत नहीं हुई.तभी तो किसी अर्धविक्षिप्त दिमाग के खाली कोटरों में चलने वाले अंतर्नाद की तरह उसका सारा 'य मा ता र', 'फेलुन फाएलुन' और 'डा डम' चेतन के शब्दों  से उतर के संगीत की ध्वनियों में बदल गया ,
लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छन्द थी.
मैं अपना ब्रेक एक्सीड कर चुका था.

यदि प्रेम कहानियों का ऍल. सी. ऍम. लिया जाये तो 'प्रेम से पहले की तकरार' भी उत्तर से पहले आई 'कॉमन अविभाजित संख्याओं' में से एक होगी.
वो मुझसे बोलती ऑल मेन आर बास्टेड्स,
और मैं ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.
लेकिन बाद में ज्ञात हुआ कि ये वैचारिक-द्वन्द तो महिला बिल को पास न करने को लेकर किये गए गुप्त-समर्थन का 'दर्शित-असमर्थन' सा है.
सच्ची... हमारे विचार बहुत मिलते थे...
एक दिन कहा भी उसने, "मुझे शादी के बंधन  में बंधना पसंद नहीं है, और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं हैं न, और, हमें  ऐसा ही जीवन साथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें.  चलो हम शादी कर लें?"
हम लोगों की खूब बातें होने लगी,
इन्टरनल मेल:
("ब्रेक?",
"५ मि."
"ओकी डोकी"
"चलें अब?")
एस ऍम एस,  क्लोज़्ड यूजर ग्रुप, याहू मेल, वीकडेज़ के लंच ब्रेक, सुट्टा ब्रेक और वीकेंड में पी. वी. आर., अक्षरधाम, सेण्टर स्टेज मॉल उफ्फ..... (कई बातें करना कितना आसान होता है बताना मुश्किल...)


क्रेडिट कार्ड और वोडाफ़ोन के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था.
उसे भी सच में मुझसे प्रेम हो गया था, मेरी ही ख़ातिर तो उसने लोरेल से बालों की स्ट्रेटनिंग कराई थी. और उसकी लो-वेस्ट-जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. (आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.)
जैसा कि उसने क्रमशः की बातों में बताया था,उसका फिल वक्त कोई बॉय फ्रेंड नहीं था, ५ उसे डिच कर चुके थे, २ से उसने बाकी ५ का प्रतिशोध लिया था.
और मैं उसकी ज़िन्दगी में मोहन राकेश के 'अन्तारल' का कोष्ठक 'भर' था कोष्ठक-भर नहीं.
गीता के विभूतियोग के २१ वें से ४२ वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्योछावर कर के ढेर सारी कविताएँ लिख डाली थीं.कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे: भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था की ज़्यादा पार्थ  कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ऐ-तैय्यबा हो.
ये सिलसला तब तक चलता रहा जब तक कि आई टी डिपार्टमेंट से चेतावनी की प्रिंटेड हार्ड कॉपी नहीं आ गयी (इ मेल के लिए तो इनबॉक्स फुल था ना !). हमारे रयुमर्स, 'ऑर्गनाइजेशनल कम्यूनिकेशन के प्रकार' इस विषय के  परफेक्ट उद्धरण बन गए थे. ऑफिस मैं हम ब्रह्म की तरह ओमिनीप्रजेंट थे, कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊँघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.हमसे  कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था.  आजकल उसके कम्पलीमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नेक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे.


लेकिन नियति का 'एक्स-बॉक्स' देखो...
जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों, और मुझ जैसे जीव का होता है...
...इस कहानी का भी दुखांत हो गया...
बावज़ूद इसके कि उसे लिव-इन-रिलेशन बहुत पसंद थे(जैसा कि उसने कहा भी था कि एक ही तो रिलेशन है जिसमें लिव यानी ज़िन्दगी है) उसे अमृता प्रीतम प्रभावित नहीं कर पाई,
और हम दोनों ने शादी कर ली.
या अगर सलमान रुश्दी के शब्दों में कहें:
नहीं नहीं ये नहीं चलेगा...
आई नीड टू बी मोर स्पेसिफिक..
'उसने मुझसे शादी कर ली.'

बुधवार, 4 अगस्त 2010

एनेलिटिक इमोशन

बयासी रुपये का आर्चीज़ का ग्रीटिंग कार्ड. जो मेरी खुद की दुकान होने की वजह से मुझे लागत मूल्य में पड़ा था. १२ रुपये का नगद फायदा.
३ महीने बीत गए, अभी कल की ही तो बात लगती है जब मैं तुमसे  मिला था.

मुझे लगता है, तुम्हें सोचते सोचते पूरी ज़िन्दगी बिता सकता हूँ. या  कम   से कम  इतना  समय जब तक कि  तुमसे खूबसूरत  कोई  और नहीं  मिल  जाये. फ़िर  अभी तो दस ही बजे हैं यानि बस ३ घंटे हुए है दुकान खोले. 
शायद  समय बड़ी  तेज़ रफ़्तार  चल रहा था.

xxx

"मुझे अंग्रेजी में पढने वाले बच्चों का सामान चाहिए. आपकी दुकान में मिल जाएगा भाई सा'ब ?"
उसने अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ी हुई थी. ये कहते हुए उसने अपने ४-५ साल के बेटे को देखा. उसकी अंग्रेजी वाली  गर्वानुभूती देखने के लिए मुझे कोई मनोवैज्ञानिक  होने की ज़रूरत नहीं थी. बच्चे की आँखों का रंग बाप के चेहरे में था और बाप के चेहरे का गर्व उत्साह बन के बच्चे की आँखों को किसी बच्चे की आँखों सा ही चमकदार बनाता था.
"और पापा..." बच्चे ने अपने पापा को देखने के लिए गर्दन ऊपर उठाई. "...रंग भी."
पापा  ने कुछ नहीं बोला. बोल भी नहीं सकता. नशे में आदमी या तो चिल्लाना पसंद करता है या गुमसुम हो जाता है.
... आखिर उसका बच्चा अंग्रेजी  में पढने जा रहा था.
...सच उसका बच्चा अंग्रेजी  में पढने जा रहा था.
...देखो मेरा बेटा, अंग्रेजी...
अपने बेटे के बालों को सहला दिया उसने. एक हवा का झोंका जिसमें बच्चे के बालों का उड़ना और नई किताबों की खुश्बू थी. बच्चे ने एक बार आँख झपकी और जब उसकी आँखें दोबारा खुली तो वो चमक बढ़ी हुई सी लगी मुझे. अपने बालों को सही करते हुए वो पापा को देखकर मुस्कुरा दिया था. उँगलियाँ अब भी बंधी हुई थी.
"ये लीजिये भाई सा'ब ६० रुपये हुए." मैंने लगभग जल्दी में सारा हिसाब जोड़ते हुए कहा. दुकान में  भीड़ हो ऐसा नहीं था. बस, मैं फिर बीते हुए समय में खो जाना चाहता था इसलिए. वो समय जिसे बिताने के लिए बयासी (-१२) रुपये खर्च हुए थे मेरे.
ऐसा क्यूँ होता है कि लोग एक ही जेब में अपने सारे पैसे नहीं रखते?
उसकी सारी जेबें जब टटोली जा चुकी थी तब हिसाब हुआ, उसने पैसों को दोबारा गिना,
एक २० का नोट, ३ दस के, ५ रुपये का एक और नोट, और कुछ सिक्के
= ६१ रुपये.
हिसाब बिल्कुल ठीक था.(>१)
पर फिर भी जाने वो अपनी जेब में क्या ढूंढ रहा था?
अब उसके पीछे सामान लेने वालों की भीड़ बढती जा रही थी. छोटी सी दुकान होने की वजह से मेरा कोई नौकर नहीं था. मेरा सपना देखने का सपना ,आज भी  सपना  ही  रह  जाने  वाला  था.
"भाई सा'ब..."
"हं..?"
"...ज़रा ज़ल्दी करिए ना. हो तो गए पैसे."
"मम्म... हाँ... हाँ...."
पीछे वाली जेब में एक पर्स उसमें भी ढेर सारी जेबें. और हर जेब में मुड़े टुडे कागज़, जिनमें से कुछ कोने से काले पड़ गए थे और कुछ ठीक वहां से फटने लग गए थे जहाँ पर  से करीने के फोल्ड करके रखे थे. किसी भी आम हिन्दुस्तानी का पर्स था वो. कुछ बुदबुदाते हुए ४-५ कागज़ पढ़ के उसने वहीँ फैंक दिए. और...
अरे वाह !! एक और नोट...
मेरी किताबों की दुकान होने की वजह से इतना तो बता ही सकता हूँ कि उस २ रुपये के नोट में कम से कम ३ रुपये का सेलोटेप लगा था.
=६३ रुपये.
बच्चे ने पापा की उंगलिया छुड़ाई और जेब से ७  रुपये के सिक्के और निकाले. और फिर पापा कि उँगलियाँ पकड़ ली.
=७० रुपये.
"बाकी की पेंसिलें रबड़ और कटर..."
दिल्ली में पोलीथीन मना है, इसलिए ब्राउन पेपर के बैग में सारा सामान पकड़ा दिया मैंने उसे.
बच्चे ने पापा के हाथ से बैग पकड़ लिया था. और पापा की उंगलिया छुड़ा के बैग अपने दोनों छोटे छोटे हाथों में सीने से भींच लिया. बच्चा  बैग ऊपर से खुला होने की वजह से अन्दर की सारी चीज़ें देख सकता था और इसलिए देख रहा था.
दोनों बहुत खुश थे. (क्या कोई और मनोदशा भी हो सकती है?) और अपने घर जाने को तैयार. उससे पहले एक दूसरे को बड़ी देर तक देखते रहे थे.
देर तक..
शायद समय समय बड़ा धीरे चल रहा था.


xxx

हलवाई मिठाई खाना पसंद नहीं करता. पढने लिखने और हिसाब-किताब से मुझे वितृष्णा सी है. और मैं इसमें जरा कच्चा भी हूँ.
"भाई सा'ब एक मिनट..."
उनके पीछे मुड़ने तक मैं हिसाब तीन बार जोड़ चुका था.
"...बेटा ज़रा बैग देना."
बच्चे ने खुद से बैग छीनते हुए मुझे दिया. सारा सामान फैला के जब मैंने वापिस डालना शुरू किया...
"दस और सात सत्रह, सत्रह और नौ छब्बीस, छब्बीस और....
...भाई सा'ब माफ़ करना पर हिसाब में कुछ गड़बड़ हो गयी लगता है. आपके बयासी  रुपये हुए."
मैं उसके बदलते हुए हाव भाव देख रहा था, एक आदमी एक पल में कितना ज्यादा टूट सकता है. वो चीज़ जो उसे सबसे ज्यादा खुश कर सकती है किसी दूसरे पल में  वही सबसे बड़े दुःख का हेतु होती हैं. वो एहसास जो उसे गर्व करने पे मजबूर करते हैं  वही किसी बदले हुए परिदृश्य में उसकी सबसे ज्यादा बेईज्ज़ती करा सकते हैं, और ये सब इतना ज़ल्दी हो तो?
गुरुत्वाकर्षण बल आपका भार घटा देता है, आप खुद को बहुत हल्क़े लगते हैं और.... और....
...धड़ाम !!

"पापा सुनो न... हम रंग नहीं लेंगे."
"भाई सा'ब ज़ल्दी करिए." मैं जानता था कि उसके पास और पैसे नहीं हैं. बस इस बात का इंतज़ार था कि...
"हांआ ? हाँ... हाँ...."
"भैया हम कल आ सकते हैं?"
ऐसे ग्राहकों को मैं जानता था...
और जानता था कि न 'वो' कल आएगा, न वो 'कल' आएगा.
"ये अंग्रेजी वाली कॉपी रहने दो. हम कल ले जायेंगे. पक्का..."(८२-१२ = ७०)
"......."
"...चल बेटा."
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था. ना तेज़ ना धीरे.