"हर चाह अंत में उदासियाँ ही देती हैं, पूरी न हो पाने पर भी, और पूरी हो जाने पर तो और भी अधिक. हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख.
प्रेम की परिणिति हिज्र और जीवन की मृत्यु !"
"और वो चीज़ें जिनका प्रारब्ध दुःख है?"
"इंसान कोई ऐसी चीज़ शुरू ही क्यूँ करना चाहेगा जो दुःख से ही शुरू होती हैं ?"
"बाई द वे. माना वो खुद हो गयी तो, इंसान का तो वैसे भी ज्यादातर चीज़ों में कोई वश नहीं है, तो माना कोई ऐसी चीज़ जो दुखों से प्रारंभ हुई तो?"
"तो यकीनन उसका अंत आनंद में ही होगा."
"ऐसा इतने यकीन से कैसे कह सकते हो तुम?"
"क्यूंकि कोई चीज़ यदि दुखों और उदासियों से प्रारंभ हुई तो हमारे लिए उसमें खोने को कुछ भी नहीं. निर्वात, ईथर के बाद तो कुछ खोया ही नहीं जा सकता."
"इसका मतलब तो हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति भी प्रसन्नता ही है दुःख के रास्ते बेशक."
"इंटलैक्च्युअल हो गयी हो मेरे साथ रहते रहते."
"यानी इंसान किसी चीज़ की चाह ही न करे?"
"पता नहीं मुझे नहीं मालूम.पर मैं 'कम से कम' चाह करता हूँ, कुछ चाहें न चाह के भी पैदा हो जाती हैं, जैसे तुम्हारी, जैसे इस सिगरेट की."
"हाँ पर कुछ चाहें अच्छी होती हैं, कुछ बुरी."
"सारी चाहें बुरी ही होती हैं."
"मुझे नहीं पता तुम क्या कह रहे हो."
"मुझे नहीं पता मैं क्या सोच रहा हूँ."
"अकेले मत रहा करो ज्यादा."
"तुम्हारा 'अकेले-पन' से क्या मतलब है?"
"अकेलापन मतलब अकेलापन... लोनली-नेस... सिम्पल ! मैं तुम्हारी तरह इंटलैक्च्युअल नहीं हूँ."
"बात इंटलैक्च्युअलनेस की नहीं बात अकेलेपन की है. जिसे तुम अकेलापन कहती हो, उसे ही मैं भी अकेलापन मानता हूँ... यकीनन...
...और हो सकता है वो बुरा भी हो, पर जानती हो अगर मैं किसी और के साथ हूँ, नॉट टू मेंशन, तुम्हारे सिवा, तो मैं और भी अकेला हो जाता हूँ, अनुभव की बात बता रहा हूँ तुम्हें कोई इंटलैक्च्युअल या फिलोस्फिकल बात नहीं. किसी और से बात करूँ तुम्हारे सिवा, तो वो मैं नहीं कर रहा होता हूँ, मेरा 'मैं' और ज्यादा अकेला हो जाता है, वो खुद को भी नहीं पाता वहां पर."
"औरों से तो बड़े हंस हंस के बातें करते हो. मेरे पास आकर ही पता नहीं क्या हो जाता है?"
"तेरे पास आकर मेरा मूड बदल जाता है....
...जोक्स अपार्ट, दरअसल ये हंस हंस के बात करना, औरों से, स्व को भुला देना है, बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट्स के.मैं न तुम्हारे सामने झूठा उदास होता हूँ, न दूसरों के सामने झूठा खुश. न तुम्हारे सामने और न औरों के सामने मुखौटा. ये सब नेचुरल अवस्थाएं हैं. ऐसा मुझे लगता था पहले."
"और अब ?"
"फिर लगा कि इनमें से कोई एक ही अवस्था नैसर्गिक हो सकती है बाकी सब ओढ़ी हुई."
"और अब?"
"अब? ...अब लगता है कि मेरा पूरा वाह्य अस्तित्व झूठ में ही टिका हुआ है. खुद अपने को भी धोखा देता हुआ. खुद को भी धोखे में रखे हुए. बल्कि सबसे ज्यादा खुद को धोखे में रखे हुए. ये मैं ओढा हुआ है. अब भी जब तुमसे बात करता हूँ तब भी ओढा हुआ है. शायद कभी अपने को इंटलैक्च्युअल और कभी अपने को उदास सिद्ध करने को, कभी तुम्हारे एप्रिसीएशन के लिए कभी तुम्हारी सांत्वन के लिए. पर जानती हो मैं ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहना चाहता."
"तो?"
"तो... लेट्स सी !
मुझे मालूम है मुझे क्या 'नहीं करना' पर नहीं जानता कि क्या 'करना' है? और सबसे बुरी बात कि जो मुझे मालूम है मुझे 'नहीं करना', वो मैं अब भी कर रहा हूँ. जैसे, तुमको ये सब बातें बताने का कोई औचित्य नहीं है सिवाय इसके कि अपने को और और अधिक इंटलैक्च्युअल और अधिक उदास सिद्ध कर सकूँ या अपने को और अधिक तुम्हारे पास ला सकूँ. पर मैं इतना यूज़ टू हो चुका हूँ इन सब से कि सब कुछ ऑवियस सा लगता है. दरअसल मैं और हम सब...
...'हम सब' कहीं और कहूँगा या लिखूंगा तो लोग कहेंगे कि अपनी बात करो मियाँ, हमारे बारे में कोई राय मत बनाओ, और सही भी है. मुझे नैतिक और आध्यात्मिक दोनों ही नज़रिए से अधिकार नहीं है किसी के विषय में कोई राय बनाने की.बहरहाल अभी केवल तुम हो तो कह रहा हूँ...
...मैं और हम सभी सबसे ज्यादा अपने दोषी हैं. बड़े से बड़े अपराधी का भी सबसे बड़ा विक्टिम वो खुद है. जो अपने अन्दर के विक्टिम को पहचान जाता है वो सेल्फ पिटी करने लग जाता है. जो अपने अन्दर के अपराधी को पहचान जाता है वो प्रायश्चित !
जो अपने अन्दर के किसी भी स्व को नहीं पहचानता वो चलता रहता है, बिना किसी भार के. पर क्या तुम नहीं मानती की ये भार, ये अफ़सोस आवश्यक है, ये माज़ी जरूरी है, चिर नूतन रहने के लिए?"
"तुम घर छोड़ के भागना तो नहीं चाहते हो कहीं?"
"तुम मुझपर कितना विश्वास करती हो? चलो छोड़ो ये सवाल नहीं पूछूँगा. बल्कि तुमसे कहूँगा कि तुम मुझपर अँधा विश्वास करके देखो.क्यूंकि न जाने क्यूँ अभी भी लगता है मुझे तुम्हारे विश्वास की जरूरत है. तुम्हारा विश्वास, तुम नहीं जानती, कितना बड़ा संबल है, मेरे लिए अब भी."
"मतलब?"
"मतलब ये कि भागते वो लोग हैं, जिन्हें किसी चीज़ कि तलाश होती है.दौलत, शोहरत, एकाकीपन, प्रेम, इश्वर..."
"तो क्या तुम्हें किसी चीज़ कि तलाश नहीं है?"
"तलाश? तलाश उस चीज़ कि कैसे करूँ जिसे मैं नहीं जानता ? फ़र्ज़ करो तुम कहो कि तुम इश्वर हो. मेरे सामने इश्वर... पिछले आठ सालों से सबसे ज्यादा मेरे पास..."
"बकवास ! मैं तो..."
"नहीं ? चलो फ़र्ज़ करो मैं कहूँ कि मैं इश्वर हूँ. तो क्या तुम मान लोगी? ...इसके साथ आठ साल रही हूँ मैं, इसमें इतनी कमियाँ, इतने अवगुण. इश्वर तो वो होता है जो २०१० के कैलेंडर मैं है. इश्वर तो वो होता है जिसकी दो आँखें बारह हाथ होते हैं. इश्वर तो बहुत हेंडसम, अल्टीमेट होता है...
..और सबसे बड़ी बात इश्वर तो इंसान का बनाया होता है. इंसान नहीं....
...तो नहीं मैं किसी भी चीज़ कि तलाश में नहीं हूँ."
"तुम पागल हो."
"नहीं मैं इश्वर हूँ."
"एक ही बात है."
"तुमने इश्वर को पागल कहा, पाप लगेगा."
"मैंने एक पागल को इश्वर कहा, इसका पुण्य मिलेगा."
"चलो छोड़ो ! पाप पुण्य... कोई ऐसी बात क्यूँ न करें जो दो प्रेम करने वाले करते हैं, जब वो मिलते हैं?."
"सोचती हूँ दुनियाँ में कितने जोड़े होंगे प्रेमी प्रेमिकाओं के जो ऐसी बातें करते होंगे."
"तुम कितनी लकी है सोचो !
...जोक्स अपार्ट आई एम जेन्युनली वैरी सॉरी, मैं क्या करूँ न मुझसे गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की बातें हो ही नहीं पाती. गलत है पर ऐसा है."
"कभी कभी करनी चाहिए."
"क्या? क्या करनी चाहिए?"
"वही... गुलाब, चाँद, शाम, पंछी की और 'मेरी' बातें."
"तुम खूबसूरत हो और दुनिया में सबसे अच्छी. और तुम खूबसूरत और अच्छी नहीं भी होती तो तुम वो तो हमेशा ही रहोगी जिसने मेरी दुनियाँ खूबसूरत बनाई थी."
"और अब? क्या वो अब खूबसूरत नहीं?"
"क्या?"
"तुम्हारी दुनियाँ ?"
"इससे क्या फर्क पड़ता है."
"मुझे पड़ता है, कि मैं तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहती हूँ."
"और तुम? तुम अपने लिए कुछ नहीं चाहती?"
"तुम खुश तो मैं खुश."
"तो आ जाओ सब छोड़कर मेरे पास आ जाओ मैं खुश हो जाऊंगा."
"मैंने सच मैं आ जान है. फिर न कहना."
"मैंने भी सच में खुश हो जाना है."
"हर प्रसन्नता से प्रारंभ होने वाली वस्तु की अंतिम परिणिति दुःख ही है, अगाध दुःख."
"तुम मेरा मजाक बन रही हो."
"नहीं मैं तुम्हारी बातें दोहरा रही हूँ."
"जब बिना माने बातें दोहराई जाएं तो उसे मजाक बनाना ही कहते हैं."
"मैं तुम्हारी बात स्वीकार ही नहीं करती बल्कि उसे पहले से ही मानती भी हूँ."
"तुम यहाँ नहीं आ सकती क्यूंकि तुम्हें आसक्ति है, मैं कहीं नहीं भाग सकता क्यूंकि मुझे भी आसक्ति है. अनिश्चितता का डर, वो हम दोनों की ही है."
"तो क्या इस डर के निजात पाने के लिए भी कोई क्रांति करोगे अब तुम? कोई युद्ध जैसा कुछ ?"
"क्रांतियाँ हमेशा युद्ध और तलवार से हों ज़रूरी नहीं. आत्मिक क्रांति, स्व क्रांति आवश्यक है."
"पर पहले तो तुम ही युद्ध और तलवार की बातें करते थे?"
"तो सिद्ध हुआ कि मुझमें आत्मिक क्रांति हो रही है."
"तुम्हारे विचार बूढ़े होते जा रहे हैं."
"मेरे विचार क्रन्तिकारी होते जा रहे है."
"तुम एक बूढ़े क्रांतिकारी होते जा रहे हो."
"क्रांतिकारी कभी बूढ़े नहीं होते."
"बूढ़े कभी क्रांतिकारी नहीं होते."
" और क्या कहते हैं तुम्हारे जे. कृष्णमूर्ति? इन गुरुओं-शुरुओं की बातें मत माना करो. ये सब एक से ही होते हैं. सब एक सी ही बातें करते हैं. मैंने खूब पढ़ा है इनको.नाटक हैं सब तुम्हारे, पता नहीं किस नौटंकी खानदान से आते हो तुम.खुद तो परेशान होते हो, मुझे भी संग में करे देते हो. किसी चीज़ से ज़ल्दी से प्रभावित हो जाते हो, और ज़ल्दी ही मोह भंग भी हो जाता है. हो सकता है तुम्हारा मुझसे भी मोह भंग हो जाए कभी."
"अव्वल तो ऐसा कभी होगा नहीं क्यूंकि तुम कोई धारणा नहीं हो, तुम मेरे लिए मेरे विचारों की तरह चिर नूतन हो.
पर यदि होता भी है ऐसा, यदि तुम्हारे विचारों में ठहराव के कारण मेरा तुमसे मोह भंग हो भी जाता है तो इसमें बुरा क्या है तुम्हारे लिए भी ?
मैं तुम्हारी ही बात करूँगा, क्यूंकि यदि 'मेरा' मोह भंग होता है तुमसे तो मुझे तो कोई फर्क ही नहीं पड़ना. लेकिन ये तुमारे लिए भी बुरा नहीं है, क्यूंकि सबसे पहली बात मैं कोई इश्वर नहीं हूँ या कोई इतना बड़ा इंसान नहीं हूँ कि मेरे मोह भंग हो जाने से किसी दूसरे को उदासियाँ आये. और अगर मैं तुम्हारी जिंदगी में इतना महत्व रखता भी हूँ तो भी मेरा केवल तुमसे मोह भंग हुआ है, तुमको बुरा कभी नहीं समझा, तुम्हारा विकल्प कभी नहीं ढूँढा. और जिसे तुम प्रेम कहती हो उसकी तो सबसे अच्छी परिणित ही है मोह भंग हो जाना, अन्यथा सोचो लोग या तो प्रेम में अपने से नफरत करने लग जाते हैं या दूसरे से, अपने को प्रताड़ित करने लगते हैं या दूसरे को.
तुम क्या समझती हो दो लोग जो एक दूसरे को अगाध प्रेम करते हैं उन्हें किस तरह से अलग होना चाहिए? सबसे बेस्ट मेथड क्या है जुदा होने की ? लड़ के झगड़ के ? अपने या/और दूसरे को उदास कर के? अपने या/और दूसरे को उलाहने देकर? इससे अच्छा तो ये है कि दोनों सोच समझकर, जान बूझकर, एक दूसरे कि खुशियों कि कामना करते हुए अलग हों, और ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तो दोनों के पास ठीक एक ही समय में दूसरा कोई विकल्प न हो (और फिर उस दूसरे विकल्प में भी वही परेशानियां) या फिर दोनों का ही ठीक एक समय में मोह भंग हो जाए. और मोह भंग होना भी प्रेम होने कि तरह एक स्व-जनित प्रक्रिया है. तुम्हारा भी हुआ था, मेरा भी हो सकता है. एक ही समय में हो ज़रूरी नहीं.
प्रेम कब एक साथ होता है ? एक को होता है दूसरे को प्रतिक्रिया स्वरूप होता है. और फिर दोनों को प्रेम हो जाता है एक दूसरे से. मोह भंग होना भी ऐसा ही है, एक का मोह भंग हुआ दूसरे का प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ. और फिर दोनों का मोह भंग हो जाता है एक दूसरे से. बिना नफरत के, बिना द्वेष के, क्यूंकि यदि कोई भी अच्छी या बुरी भावना रही एक दूसरे के प्रति तो मोह भंग होना कैसे ठहरा ये ?
पर नहीं ये सब कहने के बावजूद मेरा तुमसे मोह भंग नहीं होना कभी. क्यूंकि तुम तो फिर भी 'ख्वाब' हो कोई हकीकत नहीं. यहाँ तो दिल का ये आलम है कमबख्त कि उसका हकीकतों से ही अब तक मोह भंग नहीं हुआ.
और रही बात प्रभावित होने की तो मैं या तुम उसी वस्तु से देर तक या हमेशा प्रभावित होते रहते हैं जो हमारे लिए कोई न कोई सुख प्रदान करता हो. हर कोई जीवन के प्रति अपनी कोई धारणा बना लेता है. जिससे की जीना आसन हो पाए.
मेरी जीवन के प्रति बहुत पहले से ही आध्यात्मिक धारणा रही है. मेरी उदासियाँ मेरी खुशियाँ आध्यात्मिक हैं. इश्वर यकीनन कहीं नहीं है.
कोई एक आदमी अत्यधिक उदास या अत्यधिक खुश होता है तो वो शराब पीता है, कोई दूसरा कुछ लिखना शुरू कर देता है, कोई एक अपने प्रेमी अथवा प्रेमिका को प्रेम अथवा याद करने लग जाता है, कोई और इश्वर के ध्यान में चले जाता है, या तो उसका शुक्रिया अदा करता है या उसे याद करता है क्रमशः.
किन्तु मैंने देखा की मैं इन दोनों ही 'परम' स्थितियों में अंतर्मुखी हो जाता हूँ."
"कैन आई हग यू ?"
"नो वेज़."
"प्लीज़..."
"एवरी हग इंडज़ विद सेपरेशन."
"बट एवरी हग हेज़ इट्स ओन, यूनिक सेपरेशन-एक्सपिरीयेन्स. एट लीस्ट फॉर द सेक ऑव डेट यूनिक एक्सपिरीयेन्स, हग मी... डैमेट ! हग मी !!"
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