बुधवार, 18 मई 2011

म्माज़ बॉय

लोगों के लाख कहने के बाद भी मैं नहीं मानती कि उस दिन मैं पागल हो गयी थी. क्यूंकि यही लोग साथ साथ इसे मेरा बचपना भी ठहराते हैं. और मैं मानती हूँ कि बचपन में पागल नहीं हुआ जा सकता.
घर से कौन लड़की नहीं भागना चाहती भला? पापा बेशक तुममें (चाहे तुम लाख कहो) इतनी हिम्मत नहीं थी की बचपन में पैदा होते ही मुझे मार सकते पर वो बड़ा हिम्मत वाला निकला और जैसा मैंने सोचा था, उस वक्त अचानक मुझे अपने घर में देखकर भी वो डरा नहीं.
...तब जबकि उसे मुझे लेकर कहीं भाग खड़ा होना चाहिए था.
मुझसे उलट एक बहुत अच्छा इन्सान था वो, अपने माँ बाप का आज्ञाकारी ! ख़ास तौर पर अपनी माँ का...
'म्माज़ बॉय'

पापा तुममें मुझे रोक सकने की ताकत नहीं थी. पर उसमें मुझे खींच के घर तक लाने की ताकत थी. 'सकुशल' .
अगर मेरा रोना चिल्लाना गिड़गिड़ाना मेरे जिन्दा होने का सबूत था तो यक़ीनन 'सकुशल'.
जैसे बिना कुछ बोले अपने घर से चली आई थी वैसे ही चुपचाप उस वक्त मैं उसके घर से चली आई थी उसके साथ...
...बिना विरोध किये.
मुस्कुरा रही थी...
...मन ही मन.
....कितना बड़ा नौटंकी है, अभी देखो बाहर जाकर मुझे गले लगा लेगा. जैसे पहले कभी लगाया था. और किसी रोमांटिक मूवी के अन्त की तरह क्रेडिट्स शुरू होने से पहले, ठीक द बिगनिंग के नीचे अपनी बाइक के पीछे से जस्ट मैरिड का बोर्ड लगाकर किसी अनजान शहर में मुझे पीछे बैठकर घूमेगा. जहाँ मुझे स्कार्फ से मुंह ढकने की जरूरत नहीं होगी.फ़िर मैं सलवार-कमीज़ वालियों की तरह दोनों पांव एक तरफ़ करके बैठा करुँगी. करने दो नाटक अपनी माँ के सामने. ऐसे नाटकों को खूब जानती हूँ मैं उसके. कितनी ही तो लडकियों से करता था वो ऐसे कितने ही तो नाटक...
'प्रैंक्स'.
और हाँ ! मैं ये भी जानती हूँ कि मैं उन कितनी ही में से नहीं थी. मैं 'समवन स्पेशल' थी और सब 'टाईम पास'. मैं 'रेड रोज़' वाला रिश्ता थी. बाकी सब 'यल्लो'.
मैं उसके थप्पड़ों से नहीं रो रही थी न ही अपनी होने वाली सास की जली कटी सुनकर. मैं तो उसके निर्देशित नाटक में एक अदना का रोल प्ले कर रही थी. हाँ पर उसके थप्पड़ों से जो आँसूं ढुलके उससे मेरा अभिनय जीवंत हो उठा था. एंड द बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड गोज़ टू....
...सच का रोना गिड़गिड़ाना तो तब शुरू हुआ जब वही सारे मोड़ फ़िर से घूमे जा रहे थे...
...वो मोड़ जिनको मैं हमेशा के लिए छोड़ आई.
...सच बताऊँ पापा? उस वक्त मुझे तुम लोगों से ज़्यादा अपनी चिंता हो रही थी. बस मैं घर वापिस आना ही नहीं चाहती थी, और उस दिन पता चला कि लडकियाँ इतनी असहाय इसलिए होती हैं क्यूंकि उनके पास विकल्पों की कमी होती है. और मेरा एक विकल्प जो कि मेरा खुद का घर था ख़त्म हो चुका था पर कहाँ पता था कि वही एक विकल्प तो है बस इसके बाद.
जो एक मात्र विकल्प सोचा था वो तो हमेशा के लिए ख़त्म !
और जहाँ जितने कम विकल्प होते हैं उतनी ही उम्मीदें ज़्यादा.
लगता था अब भी 'प्रेंक्स' खेल रहा है. अभी... ठीक अभी... कोई एक अनजाना मोड़ लेगा. और फ़िर... और फ़िर...
...फुर्र्र !
उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए अपने गीले चेहरे को उसकी पीठ में रख लिया था मैंने. उसकी गालियाँ भी बड़ी मीठी लग रही थी मुझे.
जैसे उसके किसी सरप्राइज़ देने से पहले आँख बंद कर लेती थी मैं वैसे ही आँख बंद कर ली थी. मुझे पता था वो मुझे डरा रहा है...
..ठीक ठीक कहाँ और किस मोड़ पर अपने पर दया आई और ज़ोर का रोना ? याद नहीं.
शायद मोड़ यक़लखत आए और रोना आहिस्ता आहिस्ता.
मैं बाइक से कूद जाती पर अभी मैं सलवार कमीज़ वाली लड़कियों की तरह नहीं बैठी थी...
..सच बताऊँ पापा उन  मोड़ों से गुज़रते हुए, तब जबकि मौका भी था और दस्तूर भी , मुझे मोड़-मंजिल-सफर से जुड़ा हुआ कोई फलसफा याद ही नहीं आ रहा था.
मुंझे पता लग चुका था कि अंतिम बार उसके साथ बाइक में बैठ रही थी मैं . और ये पहली बार था जब उसके साथ बाईक मैं बैठने पर डर नहीं लगा. क्यूंकि अबकी बार वो रियर मिरर में मुझे नहीं घूर रहा था. उसका ध्यान ट्रैफिक में और अपने होर्न में था. वो सच में मुझे लेकर बहुत परेशान था.
... अभी आप पूछोगे भी तो याद नहीं कर पाऊं मैं 'तब' क्या कह रही थी पापा ? हाँ ! घुटी घुटी आवाज़ में तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो ये तो पूछा ही था मैंने या शायद यही पूछते पूछते रास्ते भर आई थी वापिस उसके साथ.
ख़ुशी, दुःख डर और अनहोनी में से कौन से आंसू रो रही थी नहीं बता पाउंगी मैं. सच, एक पल में चारो विपरीत चीज़ें सोची जा सकती हैं.

माँ मैंने तुझे नहीं मारा जैसा की पिताजी कहते हैं.मेरे आने से ठीक ५ मिनट पहले तेरा गुज़र जाना बस एक को-इंसिडेंट भी तो हो सकता है. नहीं मम्मा ? और मरता कौन नहीं है? मुझे यहाँ पे देखने से तो तेरा मर जाना ही अच्छा था.
यहाँ इस महिला वार्ड में. जहाँ ना मौका है ना दस्तूर फ़िर भी  सोच रही हूँ...
...नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
हाँ तूने सही ही सोचा माँ ! तब जबकि मुझे इस दुधमुहें के साथ मेटरनिटी वार्ड में होना था मैं तिहाड़ के महिला वार्ड में हूँ.
माँ, मैं न अपने को तेरी मौत का दोषी मानती हूँ न उसकी. एक जिन्दा आदमी सर में दो दो मौत का पाप लेकर नहीं जी सकता. मैं असल में दोषी हूँ उन लड़कियों की जिन्हें मुझसे पहले आसमान नीला और फूल खुशबूदार लगते थे.
क्षमा !

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति | धन्यवाद|

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