बुधवार, 4 जनवरी 2012

पापा क्या हो पा ?

("पापा क्या हो पा"
ये वाक्यांश किसी भी भाषा में नहीं है, पर ये अपने आप गढ़ा हुआ भी नहीं. बस इतना जान लीजिये कि इसका अर्थ "पापा क्या होते हैं? बोलो तो ज़रा?" होता है. या हो सकता है. दरअसल शब्द और मौन की सत्ता से ठीक ऊपर एक सत्ता है जिसे अपने को व्यक्त करने के लिए अगर शब्दों की आवश्यकता पड़े तो...
...और ये बात मेरे पिताजी जानते हैं !)


चाहता हूँ कि उनके जूते के फीते खोल के धीरे से उनके जूते उतार दूँ, इससे ज़्यादा आसान काम और क्या हो सकता है दुनियाँ में?
यकीन कीजिये इससे ज़्यादा मुश्किल काम और कुछ हो ही नहीं सकता...
...इस वक्त !
तीन बजे उनका एम. आर. आई. टेस्ट है. लेकिन वो साढ़े ग्यारह बजे ही तैयार हो चुके हैं. दिल्ली के ट्रैफिक में उनको यकीन नहीं है. वो चारपाई में लेटे लेटे मेरा कन्फर्मेशन लैटर शायद तीसरी या चौथी बार पढ़ रहे हैं. जब आपके लाडले ने ज़्यादा कुछ अपनी ज़िन्दगी में एचिव नहीं किया हो तो आप उसकी 'कन्फर्मेशन लैटर' जैसी तुच्छ वस्तु को भी माइक्रोस्कोपिक नज़रों से देखते हैं. अपनी नज़रों में उसके सो कॉल्ड एचीवमेंट बड़े बनाने के लिए.
जब ज़्यादा कुछ ढूँढने पर भी नहीं मिला उनको तो उन्होंने मेरा चार पन्ने का 'कन्फर्मेशन लैटर' सिरहाने में रखी साईड टेबल में रख दिया. वो जूते पहने हुए पाँव चारपाई से नीचे लटकाकर सो गए हैं. ऊँघते ऊँघते. फाइनली !
चाहता हूँ छोटा बच्चा बन जाऊं.
स्साला ये शेव बनाने कि जरूरत ही ना पड़े, ना ऑफिस जाने की. एम. आर. आई. जैसे बड़े बड़े डरावने टेस्ट ही ना हों, ना सर्वाइकल स्पोंडलाईटिस जैसी सोफेसटीकैटेड बीमारियाँ.
सिम्पल यूरिन टेस्ट हो, वो भी पापा का नहीं मेरा. सिम्पल सर्दी - ज़ुकाम या लूज़ मोशन हों, वो भी पापा के नहीं मेरे.
शेव पापा बना रहे हों, मुझे होस्पिटल ले जाने के लिए. मैं दो तीन बार वोमिट-आउट कर के स्कूल से घर भेज दिया गया होऊं. और घर आते ही स्कूल ड्रेस में ही बिस्तर में लेट गया होऊं.
जूते पहने हुए...
पैरों को नीचे लटकाकर...
...या बिमारी की कोई बात ही क्यूँ हो? कोई शाम पापा ताश के पत्तों से कोई जादू दिखा रहे हों, मैं और मेरी बहन सोफे पे, बिस्तर पे या नीचे ज़मीन पर उछल उछल के मज़े ले रहे हों. क्यूंकि पापा कभी कभी मूड में होते हैं, और जब ताश हाथों में हो तो मतलब कि वो सबसे ज़्यादा मूड में हैं. हर जादू कर चुकने के बाद हम हतप्रभ होकर उन्हें देख रहे हों. हर जादू के बाद उनका वही सवाल,
"पापा क्या हो पा?"
और हमारा वही उत्तर, "भगवान."
"ये देखो चारों इक्के एक साथ आ गए."
"वाऊ"
"पापा क्या हो पा?"
"भगवान."
...या मम्मी से मार खाकर हम दोनों भाई बहन उनके ऑफिस से आने का इंतज़ार जब कर रहे हों, तो वो आते ही हमें उदास देख कर मम्मी को झूठ -मूठ डांठना शुरू कर दें. "उन्हें कैसे पता लगा आज मम्मी को डांठा जाना चाहिए?" इस बात पे हमें आश्चर्यचकित होने का मौका देने से पहले ही वो हमसे पूछ बैठें,"पापा क्या हो पा?"
हम मम्मी को माफ़ करते हुए कहें, "भगवान !"


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अल्मोड़ा में कराए गए इलाजों से संतुष्ट ना होकर उन्हें दिल्ली ले आया हूँ. दिल्ली से अल्मोड़ा के भी पूरे रास्ते भर हमारी इतनी बात नहीं हुई जितनी दो अनजान लोगों की हो सकती थी उन परिस्थितियों में.
हम दोनों के बीच कोई अलगाव फिलवक्त तो नहीं है, कोई ऐसी बात या मुद्दा भी नहीं जिस पर हम खुलकर बात ना कर सकें या कभी की ना हो. हम एक दूसरे से कुछ एक्सपेक्ट भी नहीं करते.
पता नहीं ये सब कुछ जान लेने का मौन है एक दूसरे के विषय में, या ना जान सकने का, या ना जानने का. मानो हम वो सब कुछ कहना ही ना चाहते हों, जो बातें अन्यथा संजोकर रखी जा सकती हैं. बिना कहे.
अनजान लोग सफ़र की परेशानियों के विषय में बात कर सकते हैं. या बदलते मौसम के, पर हम दोनों ने सफ़र और मौसम में से कुछ भी नहीं चुना. क्यूंकि दो लोग एक ही समय में झूठा बर्ताव नहीं कर सकते, ये जानते हुए कि दोनों को एक दूसरे का झूठ पता है.
मौन एक सच्चाई है, और दोनों ही उसे तोड़ने का प्रयास नहीं करते, बस किसी स्टॉप में रुके तो एक दूसरे की खाने की चिंता, और अपने सामान की चिंता भी एक दूसरे से नज़र बचाकर कनखियों से गोया,"हो गया फ़िर तू नहीं खायेगा पकोड़ीयाँ तो मैंने खाकर क्या करना. तेरी माँ ने आलू-पुड़ियाँ बाँधी ही हैं."
मेरे होते हुए मम्मी कभी उनकी पत्नी नहीं रही. हमेशा मेरी माँ बनी रहीं. उनकी पत्नी और मेरी माँ के बीच में मेरी रेखा थी, और जब भी वो 'तेरी माँ' कहकर पुकारते हैं तो रिश्ते से अपने को अलग हटा रहे हों माना. हम पकोड़ीयाँ खाते हुए भी उतने ही मौन थे जितना पुड़ियाँ खाते हुए होते.
बात करने के लिए किसी विषय की ज़रूरत नहीं पड़ती. और इच्छा से लिया हुए मौन को कोई भी विषय मुश्किल से तोड़ सकता है.
पहले नहीं पर आजकल डर लगता है कि धीरे धीरे दूरियाँ आयीं है. सामने से देखने में ये दूरियाँ अच्छी लगती हैं कि कम से कम हम झगड़ते नहीं, वो मुझे नहीं डांटते, पर जब ताश खेलते हुए या दुकानदार से लड़ते हुए हमारे बीच सामंजस्य का अभाव दिखता है, ये दूरियाँ मुखरित हो जाती है. 'सीप' का खेल हम जीत भी जाएं मिलकर तो भी हम जीत अलग अलग इंजॉय करते हैं.
...मिलकर करना चाहते हैं, पर करते अलग अलग हैं.

चिंता दोनों को एक दूसरे की  है, गर्व(अकारण) दोनों को एक दूसरे पर है, एक दूसरे का कहा (जो कभी-कभी ही होता है आजकल) हमारे लिए पत्थर की लकीर भी है.
पहले उनका कहा भी उनका आदेश सरीखा होता था, फ़िर उनका आदेश भी बस कहा सरीखा रह गया था, अब दोनों ही नहीं हैं. उनके कहने का मैं कोई भी मायने निकाल सकता हूँ और इसके लिए मैं उनकी ओर से स्वतंत्रत हूँ.
यही बात अच्छी लगती है शुरुआत में पर है सबसे बुरी. क्यूंकि जब तक अगले को पता नहीं है कि आप उसकी बातों का अर्थ अपने हिसाब से निकाल रहे हो (जबकि आप हमेशा ऐसा करते हो) तब तक ठीक है. लेकिन एक दिन कहने वाला जान लेता है कि बातें वो नहीं है जो उसने कही बल्कि वो हैं जो दूसरे ने सुनी. तब एक वाक्य आखिर में और जुड़ जाता है, "बाकी तेरी मर्ज़ी."

पिताजी से रिश्ता भावनात्मक कम होता है.
कम से कम मेरे मामले में तो ऐसा ही है. और मैं उसे खींच के उस स्तर लाना भी नहीं चाहता...
जैसा माँ के केस मैं है, माँ के केस में आप आँख मूँद के काम करते हो, क्यूंकि उन्होंने आपको ऐसा सिखाया है, क्यूंकि उन्होंने आपके साथ ऐसा किया है, पिताजी से आप प्रश्न करते हो, कारण उसका भी समान है.
अगर कोई आपसे कहे कि इस उंचाई से कूद जा और आप कूद जाते हैं तो यकीन करिए वो आपके पिता या माता ही हो सकते हैं.
माता इसलिए कि आप उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं,
और पिताजी ?
इसलिए नहीं कि आप उनके लिए अपनी जान दे सकते हैं...
...अपितु इसलिए कि आप निश्चित हैं कि उन्होंने कहा होगा तो निश्चित ही इसमें आपका कोई हित निहित होगा.

...नहीं तो क्या था मौन तो मौसम और सफ़र कि बात करके भी तोड़ा जा सकता है !


क्सक्सक्स


अपनी प्रेमिका को प्रथम बार आई लव यू कहने में कितना वक्त लगता है और वो 'दौर' कितना कठिन होता होगा, मुझे इसका एक्सपीरिएंस नहीं है. क्यूंकि मेरी पूर्व प्रेमिकाओं ने इसका मौका ही नहीं दिय कभी. वो खुद ही आई लव यू कहकर चलती बनीं और फ़िर चलती बनीं.
मुझे करना बस इतना है कि उनके जूते के फीते खोलने हैं और कहना है "पापा आराम से सो जाइए. अभी बहुत वक्त है." आज तक कभी इतनी तीक्ष्ण इच्छा नहीं हुई ऐसा करने की.
मैं इतना ज़्यादा ऑबसेसड इतना ज़्यादा कंसर्नड हो गया हूँ इस चीज़ को लेकर अभी अभी की मानो मेरे पिछले सारे पापों का प्रायश्चित है 'सफलतापूर्वक' उनके जूते के फीते खोलना.


मुझे दरअसल शेव बनामे में काफी समय लगता है, मुझे आज भी याद है, (और ये याद करते हुए गालों में कहीं कुछ नहीं छिलता, मेक थ्री से शेव बनाने का यही फ़ायदा है की कितना ही बेतकल्लुफ होकर शेव बना लो, छिलता कहीं और है, अंतस में कहीं.)
उनका कहना "तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है?"
उस वक्त भी मुझे अपने घर से भाग जाने पर और हरिद्वार के किसी फ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन करने पर गर्व ही हुआ था अपने ऊपर कि देखो, मैं कैसे परेशान कर सकता हूँ इन्हें.
बड़ी देर में जाना कि ये सबसे आसान काम है. अपनों को परेशान करना, बस आप खुद को थोड़ा कष्ट पहुंचा दो वो परेशान.
"तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है?"
क्यूंकि जब तक उनके लाडले का बाप जिन्दा है उसे किसी भी बात की चिंता करने कि ज़रूरत नहीं सिवा जिन्दा रहने के.
"तेरा बाप अभी मरा नहीं. तू क्यूँ चिंता करता है? तेरे बाप को तुझसे कोई एक्सपेकटेशन नहीं सिवाय इसके कि तू उनसे अधिक जिये. एक दिन ही सही पर उनसे अधिक !"


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"दर्शन"
पापा ने पीछे से आवाज़ लगाई,
"ज़रा जूते के फीते खोल दे यार  ! धोफरी-झूम (दोपहर की नींद) जैसी क्या लग रही ठहरी फ़िर कहा मुझे ?"

...एक दिन हम भी कहानी हो जायेंगे.

चलो बात करते हैं, इश्वर की. आप क्या समझते हैं? क्या है इश्वर ? एक कहानीकार ? क्या वो भी पड़ा रहता होगा यूनिक कहानियों के चक्कर में? और तब कहीं जाकर एक जीवन बनता होगा? क्या होता अगर सच में कोई व्यक्ति हो और इश्वर ने उसके कर्म, उसका भवितव्य अभी लिखना हो?
बुरा लगता है न सोचकर की इश्वर कहानी का लेखक! और उसने जो कहानी लिखी है, हमने जी है, जी रहे हैं. बुरा लगता है न सोचकर की उसको कहानी का प्रारब्ध और अंत ज्यादा से ज्यादा 'प्रभावित भर' ही करता होगा बस ! और कुछ नहीं.
'इश्वर मस्ट बी प्लेइंग डाइस विद अस.'
उस इश्वर की खातिर उसे उदार सिद्ध करने की खातिर मैं भी कहानी से जुडकर कोई कहानी लिखना चाहूँगा. मुझे पता है इश्वर भी ऐसा ही करता होगा...
वो भी हमारे दुखों को महसूसता होगा...
..फिर हम तो इंसान हैं. माया मोह से ग्रस्त ! कितना ही फिक्शन मान के पढ़ें कहानी, कितना ही बड़ा आर्ट वर्क मान लें सिनेमा अगर कहानी डिजर्व करती है तो दो बूँद आसूं तो ओविय्स हैं यार ! और कमला, रीटा, राजेश जैसे किसी भी काल्पनिक कैरेक्टर की खुशियाँ हमें होंट करेंगी ही. 'अद्वेत' हो जाने तक !
या फिर खुद एक कहानी हो जाने तक ! वो कहते हैं ना....
...एक दिन हम भी कहानी हो जायेंगे.

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पर मैं वो लड़की नहीं हो सकता, सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, आप लाख कहानियाँ पढ़ लो, लाख मूवीज से अपने को रिलेट कर लो, किसी अपने (या बेगाने के भी) गम में उदास हो जाओ, उनकी खुशी में 'जेन्युइन्ली' खुश हो जाओ. पर एट द एंड ऑव द डे आप 'आप' ही रहते हो.

सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, कि आपके ऊपर कितने ही कॉन्सेप्ट प्रक्षेपित किये जायें, कितनी ही चीज़ें आप पर फैंकी जायें, आप तक वो ही और उसी तरह से ये पहुंचेंगी जैसे और जिस तरह से आप उन्हें स्वीकार करते हो.
प्रकाश में सभी रंग हैं, पर हरा रंग हरा और गुलाबी रंग गुलाबी है क्यूंकि उसने बाकी सारे रंग अवशोषित कर लिए हैं.

सिम्पल सा कॉन्सेप्ट है, एक जिंदगी का मतलब 'एक और केवल एक' जिंदगी हो सकता है.'एक' इसलिए की जब तक वो है तब तक आपको उसे जीना ही पड़ेगा. और 'केवल एक' इसलिए आप दूसरी नहीं जी सकते. इसलिए वो कोई और को जीने की चाह आपमें एक 'रिक्तता' 'भर' देती है...
"कितना अच्छा होता न अगर..."

ऐसी ही कितनी बातें सोचने पर मुझे मजबूर करती हैं उस लड़की की आँखें...

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इस दिसम्बर आठ साल की हो गयी सोना


उस लड़की की उदास कैनेडियन आँखें.....
काश कि मैं लिखते वक्त उसके दर्द को जी सकता, पर लिखना मैंने है और जीना उसने...
..और मैं क्यूँकर औरों को भी बाध्य करूँ उसके दर्द को समझने को?
ये कहानी कहूँ ही क्यूँ ?
वो आठ नौ साल की लड़की हमेशा झगडती रहती है, हर एक से, छोटी से छोटी बात भी उसे ठेस पहुंचा देती है, आंसुओं का उसकी आँखों से वही सम्बन्ध है जो नमक का आसुओं से होता है. मैं जानता हूँ , उसका ये रोना भावनाओं का एक्सट्रीम है, बुझने वाले दिए की आखरी लौ ! फीलिंग खत्म होने से पहले के इमोशन !

यक़ीनन कुछ सालों बाद उसका स्त्रीत्व मर चुकेगा. वो प्रोफेशनली बड़ी तरक्की करेगी टच वुड ! पति से कोई वैमनस्य नहीं ! बच्चों को अच्छे संस्कार और पैसा दोनों दे पाएगी वो ! यानी ऊपर से देखने पर सब नोर्मल इन्फेक्ट, परफेक्ट !
...वो मुस्कुराएगी वही सोफेस्टीकेटेड ढंग से, पर खिलखिलाएगी नहीं. वो डान्ठेगी, पर लड़ेगी नहीं. वो सुनेगी और पोजेटेवली लेगी, वो रोएगी नहीं !

...ये अभी का रोना उसका, ज़ार-ज़ार 'स्टेप टू बी स्ट्रोंग गर्ल एंड कौन्सिक्वैन्टली अ स्ट्रोंग लेडी' है.

उस लड़की की उदास आँखों के इर्द गिर्द कई झूठी सच्ची कहानियां बन सकती हैं.पर आप या मैं वो लड़की नहीं हैं. ये कहानियाँ भी वो लड़की नहीं है...
पिता कैनेडा गए उसके तो किसी कैनेडियन से शादी कर ली. पर देशभक्ति नामक भावना का हस्तक्षेप हुआ तो भारत वापिस हो लिए. लड़की की माँ भी अन्फोर्च्युनेटली देशभक्त निकली. वहीँ रह गयी. देश दूर था तो वो सुहाना ढोल था, पत्नी दूर हुई तो वो सुहाना ढोल हुई...
..अच्छी बात थी कि पत्नियां स्वदेश की तरह केवल एक होना आवश्यक नहीं था. लड़की के लिए एक गुजराती आया रख ली. शादी बहरहाल अभी नहीं की....
...पिता कहते हैं कि पुरानी वाली को भूल जाओ. और नयी वाली को माँ कहो.
...लड़की अब भी नयी वाली को 'मिस' कहती है,
और पुरानी वाली को 'मिस' करती हैं...
...उस लड़की की उदास कैनेडियन आँखें.

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

...यही जुनूँ यही वहशत हो, और तू आए !



कि मैं बहुत ऊँची मंजिल से गिरा हूँ, पर गिरने के रास्ते में कहीं भी 'हार्ट अटैक' नहीं हुआ. क्या कह सकता हूँ, कि मुझे फर्श के साथ संपर्क होने पर होश आया !
डर है कि मैं कितना ही पोजिटिव सोचूं पर नहीं ! ये दूसरी बार मिलना पहली-पहली बार मिलने की तरह कतई नहीं होगा, क्यूंकि मेरे पास तुम्हें प्रेम करने के, तुम्हें साथ जोड़े रखने और शायद वक्त के साथ साथ तुम्हें अपना विश्वास दिला सकने के तो कई मौके, कई कारण होंगे, पर कोई कारण ऐसा नहीं होगा कि तुमको भुलवा सकूँ पुरानी चीज़ें. और इसलिए...
...और इसलिए, तुमको कोशिशें करनी होंगी, मुझे मालूम है, तुमको बहुत कोशिशें करनी होंगी उन सारी चीजों को भुलाने के लिए, उससे भी कहीं कहीं ज़्यादा जितनी की मुझे भुलाने के लिए कर रही थीं तुम कुछ दिनों से.
यकीनन अगर पहली कोशिश सफल हुई तो ये भी होगी. और अगर पहली कोशिश असफल हुई है तो फ़िर क्वाईट ओविय्सली ये कोशिश तो बिना ज़्यादा कोशिश के सफल होगी !
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आँखों में आंसू हैं, जिनका कोई मोल नहीं खुद की आँखों से भी देखूं तो भी.
देखो ऐसा नहीं है कि तुम बहुत अच्छी हो, कि अगर होती तो मुझे बताती कब तुम्हें मेरी जरूरत है, जैसे तुमने तब बताया था जब मेरे दूर के चाचा को 'शायद' मेरी जरूरत थी. कि तुम्हारे पास कई ऐसे सबूत हैं कि जब भी मैं प्रोवोक हुआ हूँ मेरी परफोर्मेंस बेस्ट रही है, 'युवी' यू सी ! 'राहुल द्रविड़' मैं नहीं हूँ.
पर, फ़िर सोचता हूँ, तुम सही हो कि कोई बताता नहीं कि उसे तुम्हारी जरूरत है...

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कि जब मैं जाना हूँ कि मैं दोषी हूँ ठीक उस वक्त तुम नहीं हो. नहीं ये तो मेरी एक्सक्यूज़ है...
सही बात तो ये है कि तुम नहीं हो इसलिए जान गया हूँ...
....सही बात तो ये है दरअसल !
अकेले होना भी दो तरह का होता है, एक वो जब आपके पास कोई भी नहीं होता, दूसरा जब सब होते हैं (या नहीं भीं हो कोई फर्क नहीं पड़ता, इट्ज़ बैटर इन्फेक्ट ) पर 'वो कोई एक' नहीं होता.
कि जब आप पहले तरीके के अकेले होते है तब कोई भी आकर आपको खुश कर सकता है, पर दूसरी दशा में, नथिंग एल्स विल डू. टू बी मोर स्पेसिफिक, पहली स्थिति में आप बहाने ढूंढते हैं, व्यस्त रहने के, भीड़ में रहने के, टू गेट इनडल्ज़ विद...
...दूसरी में आप बहाने ढूंढते हैं तन्हा रहने के, काम से बच निकलने के और बस अपने को कोसने के, कि या तो 'कुछ भी नहीं' या... या... स्साला...
'कुछ भी नहीं'....

मुझे इसलिए परेशान मत छोड़ो कि तुम भी तो इन चीजों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
पर, फ़िर...
मुझे इसलिए माफ़ मत करो कि तुम इन सब चीज़ों से गुज़र चुकी हो और इन सब का दर्द जानती हो.
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क्या किसी इंसान को केवल इसलिए छोड़ा जा सकता है कि उसने ढेर सारी गल्तियाँ की हैं और उसको कोई और इस तरह प्रेम नहीं कर सकता? फ़िर तो वो इन्सान यकीनन प्रेम किये जाने योग्य है !
...या तुम बस नाराज़ हो ?

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ठीक है मैंने ही एक दिन कहा था "कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहती, नथिंग इज़ फोरेवर, एहसास भी नहीं, और प्रेम भी तो एक एहसास है." और तुमने कहा था कि ऐसा नहीं है, चित्रलेखा लिखने वाला भी कोई भगवान नहीं. मैं भी अब कहता हूँ कि दो इंसानों के ना चाहते हुए कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, दो इंसानों के रहते-रहते कभी प्रेम ख़त्म नहीं हो सकता, उसके बाद भी नहीं. मेरे पास इसका कोई सबूत या इसका कोई लोजिक नहीं है पर तुम्हारी बातों पे अटूट विश्वास है, कि जो कभी तुमने प्रेम में रहते हुए कही थीं. मुझे तुम्हारे प्रेम पे विश्वास है.
(उफ्फ कि, मैं माँ-बेटे या भाई-बहन के प्रेम का सबूत नहीं दे सकता.)

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एक बात जो मैं अपने लिए भी कहना चाहता हूँ, कम से कम एक बात कि मेरी नज़रों में तुम्हारे लिए प्रेम ख़त्म नहीं हुआ कभी, और यकीन के साथ कह सकता हूँ कि कभी नहीं होगा. कभी नहीं... कभी नहीं...
...तुम्हारी कसम ! (कि मैं अब झूठी कसम नहीं खाता तुम्हारी जो मेरे लिए मजाक थीं पर तुम्हारे लिए इनके मायने थे.)
...तब भी नहीं जब मैं तुमसे नाराज़ था, तब भी नहीं जब मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाया. तब भी नहीं होता, कि अगर जो मैंने किया वो तुम करती.
सबूत: अभी भी नहीं हो रहा देखो !
लेकिन दुःख तो यही है कि तुम कभी नहीं करती वो सब कुछ जो मैंने किया, तुम नहीं कहती वो सब कुछ जो मैंने कहा, तुम करती वो सब कुछ जो मैं नहीं कर पाया, तुम कहती वो सब कुछ जो मैं कभी कभी नहीं कह पाया...

"मैं डरपोक हूँ, मतलबी हूँ, दोगला भी हूँ, उन सब लोगों की तरह हूँ जिनसे कभी तुमने नफ़रत** की थी."
...ये तुमने कभी नहीं कहा ! किसी को भी नहीं कह सकती तुम ऐसी बातें दरअसल. **और किसी से नफ़रत कर भी नहीं सकती.
पर क़ाश कहती !! पर क़ाश करती !!

"मैं बहुत अच्छा हूँ, कि मैं सपना हूँ या सच, कि जैसे तुमने मुझे प्यार किया है वैसे अब तुम किसी को नहीं करोगी."
क़ाश ना कहती !! क़ाश ना करती !!

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बुरा था कि तुम रोती थी, बुरा है कि तुम रोती नहीं !
बुरा ये है कि, तुम अच्छी हो. बुरा ये है कि मैंने बहुत बहुत सारी गल्तियाँ करी ! अच्छा ये है कि तुम अब भी अच्छी हो, अच्छा ये है कि मैं जानता हूँ कि मैंने बहुत सारी गल्तियाँ करी ! सबसे अच्छा ये है कि तुम अब भी दूर नहीं हो, चाहे इससे पास आने की संभावना कम है.

तुमने कहा था कि जब मैं तुमसे जुदा हो जाऊँगा तब मैं शायद एक अच्छा राइटर हो जाऊँगा.
तुमने कहा था कि अच्छा लिखने से ज़्यादा अच्छा है खुश रहना.

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तुम हमेशा-हमेशा खुश रहो ये मेरी दूसरी - प्राथमिकता है और हमेशा रहेगी, मेरे साथ खुश रहो ये मेरी प्रथम प्राथमिकता है,
कि मेरी सेल्फ रिस्पेक्ट तुम हो तुम.

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पर फ़िर भी जानती हो मुझे अपना लिखा सब कुछ जाया क्यूँ लग रहा है,
क्यूंकि, जब बहुत कुछ करने की बारी आई थी तो ज़्यादा कुछ किया भी तो नहीं ! कारण कुछ भी रहे हों,
क्यूंकि इन सब शब्दों में वो आ ही नहीं पा रहा, इन सब बातों में...
आखिर एक बात, ज़्यादा से ज़्यादा कितना प्रेम, कितना अवसाद, कितनी शिद्दत, कितनी याचना अपने अन्दर ले सकती है, कोई एक बात जो कह दूं तुम्हें तो रो ही पड़ें दोनों फूट फूट कर. कोई एक बात जिससे सब बातें भुलाई जा सकें ? कोई एक बात जो बन जाए, इश्वर करे कहते कहते ही...
...वो बात जिसमें 'मौन रहने' से भी ज़्यादा अभिव्यक्ति हो ?

गेट कन्फ्यूज्ड टू गेट रिड ऑफ़ इट.




Confused Man By :Arianne Lequay


हर एहसास, हर सोच, इतनी तात्कालिक/क्षणिक हैं कि उनके आगे (पीछे और उनसे अलग) हो जाना निश्चित ही नहीं तीव्र भी है.
...खुद इन एहसासों से भी.
किन्तु इस तात्कालिकता में 'अनिश्चितता' अथवा 'शंका' कहीं नहीं है.
ये अच्छा है या बुरा इसका विश्लेषण नहीं करना  चाहता, लेकिन परस्पर विरोधी एहसास, सोच, विचार भी अपने-अपने सोचे जाने के समय में अपने प्योरेस्ट फॉर्म में होते हैं.
यानी जब कोई विचार होते/आते हैं तो उनके विषय में 'अंतरद्वन्द' नहीं होता, और यदि किंचित भी हुआ तो एहसास परिवर्तित हो जाते हैं और अपने नए रूप में भी शुद्ध रहते हैं.
इस तरह से सोचने पर प्रत्येक 'नहीं' प्रत्येक 'शायद' एक नए विचार नई सोच को जन्म देता है. और किसी भी विचार को लेकर 'नहीं' रह ही नहीं जाता.
मन कहाँ होता है नहीं जानता पर शायद इसको ही मन से सोचना कहते हैं. मन से सोचने की स्थिति मुझे 'नैसर्गिक' स्थिति लगती है, समर्पण की, हर उस विचार को उसकी तीव्रता के समय में 'एज़-इट-इज़' स्वीकार कर लेने की स्थिति.
विरोध नहीं करते आप ! बहाव में रहते हो ! बाँध नहीं बनाते !
ये दरअसल उसी तरह है जैसे पहला आस्तिक इश्वर के विषय में बुरे/अन्यथा विचारों को अपने दिमाग/मन में आने ही नहीं देगा. ये 'नहीं आने देना' दरअसल नए विचारों की 'भ्रूण-हत्या' है, तालाब है पुराने विचारों का, कितना ही डिवाइन हो पर दुर्गन्ध युक्त.
...ये शंका है अपने विचारों के प्रति और कौनसीक्वेंटली इश्वर के प्रति.
वहीँ एक दूसरा आस्तिक, हो सकता है किसी एक क्षण में इश्वर की सत्ता को नकार ही दे, पर ये नकार देना वापसी का माध्यम होगा. उसे सदैव ज्ञात रहेगा की यदि वो विचार अस्थाई थे, तो ये भी अस्थाई होंगे.
पहली तरह से सोचने पर एक ही समय में दो विचार द्वन्द करते हैं. एक वो मेक्रो विचार जिसपर हमारी 'आस्था' है (मैं इसे इम्पोज्ड आस्था कहूँगा, वो सेल्फ इम्पोज्ड भी हो सकती है.) और दूसरा वो माइक्रो विचार जो उसका विरोध कर रही है. पर दूसरी तरह से सोचने पर दो विचार आ ही नहीं सकते. और किसी निश्चित समय में, या एक निश्चित समय-अंतराल में एक और केवल एक विचार पर अटूट आस्था होती है.
विचार ख़त्म, आस्था ख़त्म...
या
...आस्था ख़त्म विचार ख़त्म.
गिव मी सेकंड थॉट नाऊ !
मेरे अनुसार विचारों में स्थायित्व ना होना पूर्ण स्थायित्व का ही प्रथम सोपान है. जिस चीज़ और जिस विचार को आप पूर्व में सोच के नकार चुके हो उसके पुनः आने का कोई प्रश्न ही नहीं, आप उससे आगे बढ़ चुके हो दरअसल या उससे अलग हो चुके हो कम से कम. और यदि वो बिसरा विचार पुनः आता है भी तो या तो वो आता है उसपे हंस सकने के लिए या वो आता है अपने नए आयामों नए प्रश्नों के साथ.
जैसे आप वैकल्पिक प्रश्न में निश्चित हैं कि बाकी के ३ उत्तर तो ग़लत ही हैं, आपको सही उत्तर नहीं पता होने के बावजूद आपने उसका पता लगा लिया ग़लत उत्तरों का विश्लेषण करके.
टू डिनाई समथिंग रोंग, यू नीड टू अंडरस्टैंड दी रोंगनैस इनसाइड आउट.
केवल प्रेमिका के विषय में ही नहीं विचारों के विषय में भी यही सत्य है, 'लेट हर फ्री, इफ शी इज़ यौर्ज़ (शी) विल कम बैक."
दरअसल मन में प्रश्न आना एक ऑविय्स प्रोसेस है, और उनके उत्तर ढूंढना एक 'आवश्यक प्रोसेस'.

किसी व्यक्ति, संस्था, विचार अथवा कॉन्सेप्ट को लेकर मेरे विरोध सदैव ही समर्थन के हेतु रहे हैं. या तो मैं नए/आपके विचारों से सहमत हो जाऊँगा, या फ़िर मेरे खुद के विचार और पुष्ट होंगे. (वैसे 'पुष्ट' होना भी एक ग़लत शब्द है, 'अगले विरोध तक पुष्ट होंगे' टू बी मोर स्पेसिफिक. )
यही एप्रोच मेरी अंतर्द्वंद को लेकर, अपने विचारों को लेकर भी रही है. इट'ज़ नॉट पोसिबल वाली नहीं लेट'स सी व्हट कम नेक्स्ट वाली. तो यदि दो अलग समय में दो अलग/परस्पर विरोधी विचारों का समर्थन करता पाऊं अपने आप को तो इसे पुराने विचारों के साथ 'बेवफाई' नहीं नए विचारों के साथ 'टूटकर प्रेम किया जाना' कहूँगा.

पुनःश्च : जो कुछ भी मैं लिख गया कल उसको पढ़ते हुए मैं मुस्कुरा सकता हूँ, पर अफ़सोस नहीं करूँगा कि मैंने ये लिखा. क्यूंकि इसे लिखे का एक्सक्यूज़ भी इसी में है.

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन...

कई तो ऐसे ही चले गए थे, बिना इस दिन का इंतज़ार किये. वो भाग्यशाली रहे थे कि उनको अपमान के ये कड़वे घूंट जो नहीं पीने पड़े. वे जो अब तक जा चुके थे, वे सब, एक एक कर कभी, या कभी दो-तीन के झुण्ड में रुख्सत हुए. शायद उन्हें अंदेशा था कि एक ऐसी रात आएगी ही.

सब यहाँ मजबूरी के मारे ही तो आये थे, कुछ तो ऐसे थे जो खुद नहीं आ सकते थे यहाँ, इसलिए लाये गए थे या पहुंचा दिए गए थे. हममें से कुछ मेरे जैसे भी थे, जो यहाँ किसी को पहुँचाने आये थे और फिर खुद भी यहीं रह गए थे.
लेकिन पिछले कुछ दिनों से, जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ, धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे. ऐसा नहीं था कि उन जाने वालों के पास बहुत से विकल्प हों. पर शायद, जैसा कि आप जानते हैं, उनको ‘ऐसा कुछ होने वाला है यहाँ’ इसका अंदेशा हो गया था.
और उन्होंने यही सोचा कि बाहर निकल कर कोई न कोई सहारा तो मिल ही जाएगा.

बूढ़े के व्यवहार में परिवर्तन तो अचनाक ही आया, बस हुआ ये कि  उसकी तासीर धीरे धीरे ही शबाब चढ़ी. नहीं तो आज से कुछ रोज पहले कोई बाहर का उसके बारे में हममें से किसी से पूछता, तो बताने वाला चाहे कितना ही धूर्त, एहसान-फरामोश या जालिम क्यूँ न होता वो इस बूढ़े के लिए ‘बूढ़ा’ शब्द कभी न निकालता...
...’माननीय’ या ‘श्री’ के बिना तो उस बूढ़े का नाम हम उसकी अनुपस्थिति में भी नहीं लेते थे कल तक. किन्तु परिस्थितयां...


आज जब वो धक्के मार कर हम बचे हुए लोगों को बाहर निकाल रहा था, जब लगभग सभी लोग उसे भद्दी भद्दी गालियाँ और उलहाने देने में लगे हुए थे चिल्ला चिल्ला कर...

...और जब हमारा, हम कुछ बच गए लोगों का, समूह इस बूढ़े से अपमानित हो रहा था, तभी किसी धूर्त बुद्धिजीवी ने अपना चमकता हुआ चाकू दिखाते हुए राय दी,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
कोई दूसरी डरपोक स्त्री कहती, “मरने दो बूढ़े को अपने आप. कोई नहीं पूछने आएगा अब इसे. कीड़े पडेंगे इसे, कीड़े.” और जब वो ये सब कह रही थी तब भी उसके मन में आशा थी कि ये बूढ़ा जब पागलपन के इस दौर से गुजर चुका होगा फिर हमें वापिस बुला लेगा, और तब हम उसे क्षमा कर देंगे.
कुछ लोग जो थोड़ी सदाचारी थे, या बूढ़े के पिछले परोपकारों के कारण सदाचारी हो गए थे, उन्होंने मेरी तरह इस अपमान को मौन रहकर स्वीकार किया.
“कुछ ही रोज में अपना सारा पुण्य मटियामेट कर दिया इसने.” उन सदाचारियों में से किसी को ये फुसफुसाते सुना था मैंने. (सदचारी चिल्लाते नहीं, या जो चिल्लाते या गरियाते नहीं वही सदाचारी कहलाते हैं ऐसा मुझे आज पता लगा था.)
कोई मुश्किल नहीं था, उस बूढ़े का आज हममें से कोई भी क़त्ल कर सकता था, बस थोड़ी सी उस बूढ़े के लिए घृणा के भाव का संचार होना शेष था. पर पता नहीं क्यूँ उसके इस कृत्य से हममें उस बूढ़े के लिए घृणा नहीं दया का भाव उत्पन्न हो रहा था.
उसके हमारे पीछे-पीछे चलते हडबडाते कांपते पैर, उसका हमें धक्का देते वक्त देर तक हमारे कन्धों से हाथ न हटाना, और चिल्लाते वक्त उसके थूक में सने हुए अनर्थक शब्द समूह....

कक्क... दद्द... घघ्घ....

....ये सभी कुछ स्थिति भयावह नहीं दयनीय बना रहे थे. नहीं तो आप तो जानते ही हैं खून करना इतना मुश्किल भी नहीं है.
...ठीक उस वक्त मैंने मन ही मन कामना की कि उस बूढ़े कि आँखों में एक बूँद आंसू देख सकूँ, जिससे कि मेरे मन में बाद में भी उसके लिए थोड़ी बहुत श्रद्धा रहे, और जिससे कि कभी अपने को समझा सकूँ “वो ऐसा नहीं था, कोई मज़बूरी रही होगी उसकी.”
और तब मैंने उससे आँखों आँखों में पूछ लिया कि वो ऐसा क्यूँ कर रहा है ? नहीं उसपे अब इतना हक था हमारा (ऐसा हमें तो लगता ही था कम से कम) कि मेरी आँखों ने, जो अब तक इतने सारे अपमान को सहने के कारण बाकियों की तरह ही नम हो चुकी थीं, उससे एक दूसरा ही सवाल पूछा,
“वो ऐसा कैसे कर सकता है?”
इस सवाल का ज़वाब उसकी पथराई आँखों ने बड़ी निष्ठुरता से दिया, “मेरी मर्ज़ी ! आखिर ये घर मेरा है, तुम्हें रख सकता हूँ अगर तो तुम्हें निकाल भी सकता हूँ. खुद से नहीं निकलोगे तो ऐसे ही निकाले जाओगे, धक्के मार कर.”


और जब हम पूरी तरह से बाहर निकाले जा चुके थे हमने देखा कि पिछले दिनों जो घर से खुद-ब-खुद गए थे, उनमें से कई बाहर बैठ के, सो के या खड़े होकर किसी चीज़ के हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे. आप तो जानते ही हैं मजबूरी का दूसरा नाम आशा होता है.
उन्हें भी हमारी तरह ऐसा भान था कि बेशक वो घर से बाहर गए हैं, पर परिस्थितियां अभी भी घर के अंदर ही हैं.
उन्हें दुःख था हमारे बाहर निकलने का, कि उनकी आशाएं हम कुछ अंदर रह गए लोगों को लेकर ही थी.
उन्हें खुशी भी थी हमारे बाहर निकलने की, क्यूँ ? ये तो आप बताने की आवश्यकता ही नहीं है.

और जब हम सब लोग समूह में बाहर निकल रहे थे हम सब मौन थे, सबके मन में बूढ़े के लिए अलग अलग विचार थे, जो एक दूसरे के विचारों से अलग ही रहे होंगे. ये आप समझ सकते है कि मुझे नहीं पता था बाकी सब बूढ़े के बारे में क्या सोच रहे हैं. पर क्या आप नहीं जानते कि सबके मन में एक ही प्रश्न था बस, कि उसने ऐसा क्यूँ किया आखिर?
हम निरुद्देश्य और बिना किसी मंजिल के हो चले थे और हम कहीं को भी जा सकते थे. और तब हमने पश्चिम की ही ओर चलना तय किया, तय भी क्या किया बस चल पड़े. भीड़ ज्यादा होने के कारण हमारा आत्मविश्वास लौट रहा था. और तब जबकि हम केवल उस बूढ़े के बारे में सोच रहे थे, हम मौसम, व्यापार और लजीज पकवानों के विषय में बात करना शुरू कर चुके थे. अच्छा था कि हम सब उस ‘अपमान’ को भुला देना ‘चाहते’ थे.
तभी कुछ ऐसा घटा कि उस ‘डिवाइन-अपमान’ की याद ताज़ा हो आई हमारे ज़हन में.
दूर से आते हुए उस आदमी को ये कहते हुए सुना हमने कि
“अरे सुनो तुम्हारा वो कथित इश्वर, वो बूढ़ा, सनकी हो चला है सुना?”
वो दरअसल यही पूछने या बताने हमारे पास आया था...
क्या आप जानते हैं तब मैंने क्या किया? वही जो बाकी के सहयात्री करना चाहते थे और निम्न क्रम में...
१) सबसे पहले मैंने बूढ़े द्वारा अपमानित होने को याद किया.
२) फिर अपनी मुट्ठी भींची.
३) फिर उस धूर्त की ये बात याद की कि,”चार से ज्यादा लोग मिलकर अगर किसी का खून कर दें तो उसे भीड़ द्वारा मचाया गया उत्पात ही कहा जाता है.”
४) वो खंजर धूर्त से माँगा, आग्रह-पूर्वक, क्यूंकि मैं कोई हड़बड़ी करके इसे जोश में आकार किया हुआ कृत्य नहीं सिद्ध करना चाहता था.
५) और चूंकि में इसे कोल्ड ब्लडेड मर्डर सिद्ध करना चाहता था इसलिए मैंने ‘आव’ और ‘ताव’ दोनों देखा और वो खंजर बहुत धीरे धीरे सवाल पूछने वाले के पेट में चुभा दिया.

इस घटना ने हमें पिछली घटना भुलाने में बड़ा योगदान दिया. और हम खुशी के मारे नाचने गाने लगे. हमको खुश होने के, बल्कि यूँ कहिये उन्माद में रहने के कई कारण अब मिल गए थे. हमें पता था कि इस सवाल पूछने वाले का घर आस पास ही कहीं है, और वहाँ भी हमारी तरह ही ‘नाउम्मीद’ लोगों का बसेरा है.
तो, जी हाँ आपने सही अनुमान लगाया, अगली अल-सुबह हमने उस घर को भी तोड़ दिया, वो ऐसा ही कोई दिसम्बर का सर्द दिन था.
और उसकी अगली रात शहर भर में दंगे अपने शबाब पर थे, हमारे पास और कोई काम नहीं बचा था और कोई हमें रोक नहीं रहा था. लेकिन हम लोग केवल मारने वाले ही नहीं थे मरने वालों में भी हमारा शुमार था.

और जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ, हमारा बूढ़ा, उसने हमसे मुंह फेर लिया था. नहीं तो क्या था, बिना हिम्मत, बिना ताकत के भी अगर वो बूढ़ा हमें रोक लेता तो क्या हम नहीं रुकते?


...कई साल बीत गए हम अब भी उस बूढ़े के बुलावे का इंतज़ार कर रहे है. आज भी हमारी उस बूढ़े के प्रति वो श्रद्धा रह रह कर हिलोरे मार ही लेती है.

गुरुवार, 23 जून 2011

क़र्ज़ में डूबे लोगों के लिए आत्महत्या एक ऐसा इंश्योरेन्स है जिसका प्रीमियम भरने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती.

हुआ यों होगा कि आपने मार्केट से दो लाख रुपये उठाये होंगे और उसको शराब जुएँ या और अय्याशियों में खर्च दिया होगा. रुपये खर्च करना सांस लेने से भी ज़्यादा आसान बना दिया गया है अब. चुकता करना मौत से भी मुश्किल.
सबूत : आत्महत्या !
तो आपने झूठ ही लिखा होगा कि आपका पैसा मार्केट में डूब गया. भला मार्केट का पैसा मार्केट में डूब सकता है?
-गणितीय आधार पर नहीं. 2-2=0
-अर्थशास्त्र के आधार पर भी नहीं. उसके आधार पर तो पैसा डूबता नहीं घूमता है. जितना घूमता है उतना बढ़ता है.
-दर्शन-शास्त्र  के आधार पर भी नहीं (तुम क्या लेकर आये थे...)
तो फिर आपको झूठ लिखने की ज़रूरत क्या पड़ी? मौत के बाद किस चीज़ का डर? बदनामी का? प्री डेथ स्टेटमेंट (सुसाइड नोट भी) एक अकाट्य साक्ष्य माना जाता रहा है. इसलिए नहीं कि मरने वला आदमी झूठ नहीं बोल सकता. (जो ज़िन्दगी को झूठा साबित कर दे वो क्या कुछ झूठ नहीं कह/कर सकता. और "बदले की भावना से हत्या ही नहीं आत्महत्या भी तो की जा सकती है" ये ?) बल्कि इसलिए कि 'ऐसा भी तो हो सकता है' का पता लगाना मुश्किल है. क्यूंकि आत्महत्या डूबे हुए जहाज में सभी 'जीवित' लोगों के मर जाने सरीखा है. "उसकी मौत के साथ उसके राज़ भी दफन हो गए".

हाँ तो आपने एक 'देशी कट्टा' की नली भेजे में रखी.अपने भेजे में. आँखें बंद की. भींच के. मानो आप शोर 'देखना' न चाहते हों.ट्रिगर में बीच वाली ऊँगली रखी. उस हाथ की जो रॉक-सौलिड हो गया है इस वक्त. ये वही हाथ था न जो तस्करी का कट्टा खरीदते वक्त काँप रहा था. हाथ क्या? तब तो आपका पूरा शरीर ही काँप रहा था.
...जब पहली बार आपने इस भारी सी चीज़ को अपने हाथ में लिया था. गंदे कपड़े से लिपटी हुई, बिना यूजर मैनुअल के.बाहर ही से उसके सारे कोण, सारे आयाम नाप लिए थे अविश्वास के स्पर्श से. "मेरे हाथ में भी कभी ये चीज़ आ सकती थी ?" आपने ना उसके इस्तेमाल का तरीका पूछा ना ये पूछा कि वो भरी हुई है या खाली? "आदमी घड़ा भी खरीदता है तो ठोक बजाकर." और फ़िर ये चीज़? इसे तो आप ज़िन्दगी में पहली बार खरीद रहे थे. और शायद अंतिम बार भी. आप तो शायद कुल जमा किसी भी चीज़ का सौदा अपनी ज़िन्दगी में अंतिम बार कर रहे थे. इससे पहले आपने क्या ख़रीदा आपको याद है?

हाँ ! अपने  बेटे के लिए लिलिपुट से सिक्स पॉकेट जींस (साला इतने से कम में कहाँ मानता है वो?) और अपनी वाईफ के लिए स्टोन वाली पायल (बेचारी वो तो इतने में ही खुश ). बहरहाल फ़िर भी ये घड़ा जैसा कोई सौदा तो था नहीं, जिसको आप ठोक बजाकर, जांच परख कर लें. ये 'चीज़' तो इन्फेक्ट 'आपको' जांच परख रही थी. वेदर यू डिजर्व इट ऑर नॉट !

बाई द वे...
वो हाथ ! जो उसे खरीदते वक्त काँप रहे थे....
...क्यूँ?
कोई देख ना ले? पुलिस? मुखबिर? जान पहचान वाला? "मरना ही है तो साला बदनामी का क्या डर?" नहीं भाई सा'ब ऐसी बात नहीं है अगर आपको बदनामी का डर ना होता तो आप अपने सुसाइड नोट में अपनी अय्याशियों कि बात ना करते ? लेकिन आप तो कहते हैं कि मार्केट में डूब गया आपका पैसा. आपको मौत का डर नहीं रहा बेशक, पर बदनामी का डर नहीं ये मत कहिये. 'आत्महत्या' और बात है 'बदनामी का डर' और.
...हाँ ! ये ! आप तसल्ली से मरना चाहते थे. सुकून की मौत. कम से कम अपने शर्तों पे. आपने ज़िन्दगी जब अपनी शर्तों से गुज़ारी है (तभी तो ये सब हो रहा है आपके साथ. तभी... ) तो मौत भी अपनी शर्तों से ही आनी चाहिए.

हाँ तो वो हाथ...
अभी बिल्कुल नहीं कांपते ! अगर कांपते होते तो आप आत्महत्या थोड़ी ना कर पाते. क़त्ल करना और क़त्ल हो जाना दोनों एक साथ? जिगरा चाहिए भाई सा'अब जिगरा. येएए... बड़ा ! ये सब कुछ और इससे भी कहीं कुछ ज़्यादा तो आप पहले से ही सोच चुके हैं. दो तीन दिन से सोच ही क्या रहे हैं और आप?

बस बहुत हो चुका बहुत टाल चुके, कहीं वॉश रूम की सफाई करते वक्त आपकी वाईफ (आप वाइफ ही कहते हैं उसे. है ना ?) को पता चल गया तो ? वैसे भी घर की सफाई किये हुए कई दिन हो चुके हैं. कर्जे वाले घरों कि सफाई आमतौर पे 'डेली बेसिस' पे होती भी नहीं.

नहीं ! अब और नहीं टाला जा सकता. बेटे को जींस दे दी. और, एक महीने का राशन आ गया है.और, बीवी की नौकरी लग ही गयी, और, उसके लिए स्टोन वाली पायल ले ही दी.और और...
...हाँ !सुसाइड नोट...
नहीं... उसे लिखे की जरूरत कहाँ है? क्यूँ इतना समय ले रहे हैं आप? जितनी देर करेंगे उतना मन कच्चा होगा आपका .साढ़े सात सौ रुपये कम नहीं होते इस... इस... बकवास चीज़ के लिए. जो ज़्यादा दिनों तक घर में रह भी नहीं सकती.

फ़िर भी एक सुसाइड नोट तो जरूरी ही है. जिससे आपके परिवार वालों पर कोई आंच(?) ना आए...
...इट्स अ सिम्पल केस ऑव सुसाइड.

क्या लिखेंगे आप? "मैं अपनी मर्ज़ी से ख़ुदकुशी कर रहा हूँ?" हद्द है ! 'ख़ुदकुशी' भी भला कोई दूसरों की मर्ज़ी से करता है? आपने ठीक ही किया इस लाइन को काट दिया. मैं तो कहता हूँ कि दूसरा पन्ना ले लीजिये . लोग क्या कहेंगे ? मरते वक्त भी कन्फ्यूज्ड था साला. ना ना 'साला' नहीं कहेंगे. मरने वाले की लोग बड़ी इज्ज़त करते हैं. मरने वाले की ही तो लोग इज्ज़त करते हैं.
हाँ ये ठीक रहेगा...
"मेरी मौत का कोई दोषी नहीं."
कैसे कोई दोषी नहीं?
वो पब का मालिक. वो ऑफिस का बॉस. वो बैंक की कस्टमर केयर अधिकारी (हरामजादी), मकान मालिक, सब्जी वाला, शेयर मार्केट,राजेश, सुरेश, पेप्सी, कोक, ब्लैक बैरी, मेट्रो, ब्लू लाइन, रेड लाईट, ट्रैफिक ज़ाम, ऐश्वर्या, शीला की ज़वानी, भ्रष्टाचार, संसद, इंडिया टी. वी. , गूगल, ट्विटर...
..सब ! इनमें से सब थोड़े थोड़े दोषी हैं. एक भी चीज़ , एक भी चीज़ कम होती इनमें से , हालात ऐसे ना होते आपके !
...ये सुसाइड नोट लिखना तो वरदान ही साबित हुआ आपके लिए (मौत का वरदान. हा !) सब से बदला ले लें. सब से...
सुसाइड नोट के नीचे दस्तखत करना जरूरी है क्या? कर दीजिये . टू बी ऑन अ सेफर साईड.

ये लो अभी तक आपने कपडा भी नहीं हटाया था? साली इसकी जांच भी तो नहीं कर सकते ना आप? क्या कहा था उस दल्ले ने? एक बार 'फाईर' करने के बाद दूसरा 'फाईर' आधे घंटे बाद. क्यूंकि हाथ में फटने कि कोई 'गारमटी' नहीं. लेकिन पहले फाईर की 'फुल्ल गारमटी'.


-XXX-


आप अब भी यकीं नहीं कर पा रहे ना ये सब जो आप करने वाले हैं? अच्छा ही है आपके लिए. सच 'रॉकेट साइंस' सरीखा है और भ्रम के लिए 'रॉकेट' की आपको क्या ज़रूरत. चाहो चाँद में पहुँच जाओ ! मुगलते में ही रहो, मरने के लिए बड़ा काम आता है.
...और क्या नहीं तो इतना आसान होता ट्रिगर दबाना? वो एक पल, वो एक अंतिम पल...
ज़िन्दगी और मौत के 'ठीक' बीच का. जब आपको पता है की ये पल 'अमुक' पल है. इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...
(आपको अपनी बीवी की एक पुरानी बात पे भी हँसी आती है: देख लेना जब में नहीं होउंगी तब मेरी वकत पता चलेगी. जान, वकत तो पता बेशक लगेगी लेकिन तुमको ये बात कैसे पता लगेगी? )

इस पल से अगले पल आप नहीं होंगे...
ये ज़िन्दगी जो आपने जी है... (क्या फर्क पड़ता अगर पैदा होते ही मर जाते. या पैदा ही ना होते? क्यूंकि जो जिया वो तो साला एनीवे बीत चुका. टू फिलोस्फिकल हाँ? हो जाता है आदमी, मरते वक्त फिलोस्फिकल भी हो जाता है. )

ये कपड़े जो आपने पहने हैं...

वो बहसें... राजनीती से लेकर मोबाइल हेडसेट तक. (क्या फर्क पड़ता है 'सिम्बियन' हो या 'एंडरोइड'? नहीं ! फिलोसफी कि बात नहीं. एक दो फीचर ही तो कम ज़्यादा होने थे...)

वो मूवीज़... (आप सुनिश्चित नहीं कर पा रहे कि रिवाल्वर सीने से लगायें या भेजे से ? ज्यादातर मूवीज़ में तो भेजे से ही लगाते हैं... )

वो शहर जो आपने घूमे हैं... (आउट ऑव स्टेशन जाना भी मौत ही है, एक शहर के लिए. आप एक वक्त में दो जगह नहीं हो सकते. और एक वक्त में एक और केवल एक ही जगह कि घटनाओं को प्रभावित कर सकते हैं. अब होगा इतना कि आप किसी भी जगह कि घटनाओं को प्रभावित नहीं कर पाइयेगा. इस घटना को छोड़कर ऑफ़ कोर्स... )

वो मॉल जहाँ से आपने अपने पाँच साल के बेटे और चार साल की वाईफ के लिए शॉपिंग कि है... (साले हैं तो शैतान ही दोनों चाहे कुछ भी कहो... पर पिछले चार पाँच दिनों से दोनों गुमसुम रहते हैं, मार भी तो बहुत खाता है बड़ा वाला आजकल...)

ना ना मत सोचिये बेड़ियाँ है ये सब. माया ! बंधन !! मोह !!! मानव की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं ये...

वो शादी की पहली सालगिरह, वो दो हज़ार सात की दिवाली...
याद भी साली, कितनी ही बुकमार्क करके रख लो, कितना ही उनके ऊपर 'मोस्ट इम्पोर्टेंट' लिख लो आयेंगी बेतरतीब ही, शादी याद नहीं आ रही आपको, पर पहली सालगिरह ज़रूर याद है, और दिवाली भी देखो 'दो हज़ार सात की', ऐसी क्या ख़ास बातें थीं इन दिनों में? यकीनी तौर पर नहीं कह सकते ना आप,

आप महत्वपूर्ण लम्हे रिकॉल करना चाहते हैं, और याद क्या आता है आपको? काम वाली के साथ आपकी बीवी की साधारण सी (बहुत साधारण सी) नोक झोंक, बेटे का बैट हाथ में लेकर किसी शाम अन्दर घुसना, वो अचार के मर्तबान जिनको आपकी वाईफ बार बार ऊपर नीचे करती है. एक धुन सी सवार है उसे भी... पिकलो-मिनिया???

वो 'आलस' के 'जोश' में आकर एक दिन यूँ ही ऑफिस ना जाना...
..और? ...और?
हाँ... अब मिला सिरा... उसके अगले दिन से कभी ऑफिस ना जाना. बिजनेस के लिए रात दिन प्लान आउट करना. अपने बिजनेस के लिए ! वो आत्मविश्वास (आप तो अब भी उसे ओवर कॉन्फिडेंस नहीं मानते ना?), वो शुरुआत की छोटी छोटी असफलताएं, वो बाद की बड़ी बड़ी सफलताएं, वो शुरुआत के छोटे छोटे क़र्ज़, वो बाद के बड़े बड़े (क्वाईट ऑव्यस) क़र्ज़....
....
....
....आप ये क्यूँ भूल गए की एक गोली चलने के बाद दूसरी गोली आधे घंटे बाद ही चलानी थी? वो तो कट्टा ही अच्छा था, हाथ में नहीं फटा आपके.
...बहरहाल कॉग्रेट्स  !


बुधवार, 18 मई 2011

म्माज़ बॉय

लोगों के लाख कहने के बाद भी मैं नहीं मानती कि उस दिन मैं पागल हो गयी थी. क्यूंकि यही लोग साथ साथ इसे मेरा बचपना भी ठहराते हैं. और मैं मानती हूँ कि बचपन में पागल नहीं हुआ जा सकता.
घर से कौन लड़की नहीं भागना चाहती भला? पापा बेशक तुममें (चाहे तुम लाख कहो) इतनी हिम्मत नहीं थी की बचपन में पैदा होते ही मुझे मार सकते पर वो बड़ा हिम्मत वाला निकला और जैसा मैंने सोचा था, उस वक्त अचानक मुझे अपने घर में देखकर भी वो डरा नहीं.
...तब जबकि उसे मुझे लेकर कहीं भाग खड़ा होना चाहिए था.
मुझसे उलट एक बहुत अच्छा इन्सान था वो, अपने माँ बाप का आज्ञाकारी ! ख़ास तौर पर अपनी माँ का...
'म्माज़ बॉय'

पापा तुममें मुझे रोक सकने की ताकत नहीं थी. पर उसमें मुझे खींच के घर तक लाने की ताकत थी. 'सकुशल' .
अगर मेरा रोना चिल्लाना गिड़गिड़ाना मेरे जिन्दा होने का सबूत था तो यक़ीनन 'सकुशल'.
जैसे बिना कुछ बोले अपने घर से चली आई थी वैसे ही चुपचाप उस वक्त मैं उसके घर से चली आई थी उसके साथ...
...बिना विरोध किये.
मुस्कुरा रही थी...
...मन ही मन.
....कितना बड़ा नौटंकी है, अभी देखो बाहर जाकर मुझे गले लगा लेगा. जैसे पहले कभी लगाया था. और किसी रोमांटिक मूवी के अन्त की तरह क्रेडिट्स शुरू होने से पहले, ठीक द बिगनिंग के नीचे अपनी बाइक के पीछे से जस्ट मैरिड का बोर्ड लगाकर किसी अनजान शहर में मुझे पीछे बैठकर घूमेगा. जहाँ मुझे स्कार्फ से मुंह ढकने की जरूरत नहीं होगी.फ़िर मैं सलवार-कमीज़ वालियों की तरह दोनों पांव एक तरफ़ करके बैठा करुँगी. करने दो नाटक अपनी माँ के सामने. ऐसे नाटकों को खूब जानती हूँ मैं उसके. कितनी ही तो लडकियों से करता था वो ऐसे कितने ही तो नाटक...
'प्रैंक्स'.
और हाँ ! मैं ये भी जानती हूँ कि मैं उन कितनी ही में से नहीं थी. मैं 'समवन स्पेशल' थी और सब 'टाईम पास'. मैं 'रेड रोज़' वाला रिश्ता थी. बाकी सब 'यल्लो'.
मैं उसके थप्पड़ों से नहीं रो रही थी न ही अपनी होने वाली सास की जली कटी सुनकर. मैं तो उसके निर्देशित नाटक में एक अदना का रोल प्ले कर रही थी. हाँ पर उसके थप्पड़ों से जो आँसूं ढुलके उससे मेरा अभिनय जीवंत हो उठा था. एंड द बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड गोज़ टू....
...सच का रोना गिड़गिड़ाना तो तब शुरू हुआ जब वही सारे मोड़ फ़िर से घूमे जा रहे थे...
...वो मोड़ जिनको मैं हमेशा के लिए छोड़ आई.
...सच बताऊँ पापा? उस वक्त मुझे तुम लोगों से ज़्यादा अपनी चिंता हो रही थी. बस मैं घर वापिस आना ही नहीं चाहती थी, और उस दिन पता चला कि लडकियाँ इतनी असहाय इसलिए होती हैं क्यूंकि उनके पास विकल्पों की कमी होती है. और मेरा एक विकल्प जो कि मेरा खुद का घर था ख़त्म हो चुका था पर कहाँ पता था कि वही एक विकल्प तो है बस इसके बाद.
जो एक मात्र विकल्प सोचा था वो तो हमेशा के लिए ख़त्म !
और जहाँ जितने कम विकल्प होते हैं उतनी ही उम्मीदें ज़्यादा.
लगता था अब भी 'प्रेंक्स' खेल रहा है. अभी... ठीक अभी... कोई एक अनजाना मोड़ लेगा. और फ़िर... और फ़िर...
...फुर्र्र !
उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए अपने गीले चेहरे को उसकी पीठ में रख लिया था मैंने. उसकी गालियाँ भी बड़ी मीठी लग रही थी मुझे.
जैसे उसके किसी सरप्राइज़ देने से पहले आँख बंद कर लेती थी मैं वैसे ही आँख बंद कर ली थी. मुझे पता था वो मुझे डरा रहा है...
..ठीक ठीक कहाँ और किस मोड़ पर अपने पर दया आई और ज़ोर का रोना ? याद नहीं.
शायद मोड़ यक़लखत आए और रोना आहिस्ता आहिस्ता.
मैं बाइक से कूद जाती पर अभी मैं सलवार कमीज़ वाली लड़कियों की तरह नहीं बैठी थी...
..सच बताऊँ पापा उन  मोड़ों से गुज़रते हुए, तब जबकि मौका भी था और दस्तूर भी , मुझे मोड़-मंजिल-सफर से जुड़ा हुआ कोई फलसफा याद ही नहीं आ रहा था.
मुंझे पता लग चुका था कि अंतिम बार उसके साथ बाइक में बैठ रही थी मैं . और ये पहली बार था जब उसके साथ बाईक मैं बैठने पर डर नहीं लगा. क्यूंकि अबकी बार वो रियर मिरर में मुझे नहीं घूर रहा था. उसका ध्यान ट्रैफिक में और अपने होर्न में था. वो सच में मुझे लेकर बहुत परेशान था.
... अभी आप पूछोगे भी तो याद नहीं कर पाऊं मैं 'तब' क्या कह रही थी पापा ? हाँ ! घुटी घुटी आवाज़ में तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो ये तो पूछा ही था मैंने या शायद यही पूछते पूछते रास्ते भर आई थी वापिस उसके साथ.
ख़ुशी, दुःख डर और अनहोनी में से कौन से आंसू रो रही थी नहीं बता पाउंगी मैं. सच, एक पल में चारो विपरीत चीज़ें सोची जा सकती हैं.

माँ मैंने तुझे नहीं मारा जैसा की पिताजी कहते हैं.मेरे आने से ठीक ५ मिनट पहले तेरा गुज़र जाना बस एक को-इंसिडेंट भी तो हो सकता है. नहीं मम्मा ? और मरता कौन नहीं है? मुझे यहाँ पे देखने से तो तेरा मर जाना ही अच्छा था.
यहाँ इस महिला वार्ड में. जहाँ ना मौका है ना दस्तूर फ़िर भी  सोच रही हूँ...
...नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
हाँ तूने सही ही सोचा माँ ! तब जबकि मुझे इस दुधमुहें के साथ मेटरनिटी वार्ड में होना था मैं तिहाड़ के महिला वार्ड में हूँ.
माँ, मैं न अपने को तेरी मौत का दोषी मानती हूँ न उसकी. एक जिन्दा आदमी सर में दो दो मौत का पाप लेकर नहीं जी सकता. मैं असल में दोषी हूँ उन लड़कियों की जिन्हें मुझसे पहले आसमान नीला और फूल खुशबूदार लगते थे.
क्षमा !